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आचार्य विनोबा की साहित्य दृष्टि: The Literary Side of Vinoba Bhave

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Specifications
NZD061
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan, Varanasi
Author: डॉ. सुमन जैन (Dr. Suman Jain)
Language: Hindi
Edition: 2006
ISBN: 8171244866
Pages: 218
Cover: Hardcover
8.5 inch X 5.5 inch
350 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

भारतीय जन-जीवन पर साहित्यिकों की सत्ता हजारों वर्षों तक चली और आज भी चल रही है । किस साहित्यिक ने कितना लिखा, उससे उसकी कीमत नहीं आँकी जा सकती, वह तो इससे आँकनी चाहिए कि उसने सामुदायिक जीवन को समृद्ध करने में कितना योग दिया ।

जो सत्य का यशोगान करे, जीवन का अर्थ समझाये, व्यावहारिक शिक्षा दे और चित्त को शुद्ध करे- वही साहित्य है । शरीर-पोषक क्षर साहित्य टिकाऊ नहीं होता । टिकाऊ होता है वह साहित्य जिसके पीछे शोषणहीन अहिंसक समाज-रचना की प्रेरणा रहती है । उस प्रेरणा से लिखा गया सर्वोदय साहित्य अक्षर साहित्य है ।

जब तक समाज में संवेदना है, सहृदयता है, तब तक सर्वोदय-साहित्य टिका रहेगा । यह है- आचार्य विनोबा की साहित्यिक दृष्टि- जिनका हर वाक्य, हर शब्द और हर ग्रंथ जीवन से जुड़ा है और जिनका विश्वास है कृति से शब्द, शब्द से चिन्तन और चिन्तन से अचिन्तन उत्तरोत्तर अधिक शक्तिशाली है ।

लेखिका के विषय में

डॉ. सुमन जैन

जन्म : 3 अक्टूबर 1966, आशापुर, सारना थ, वाराणसी ।

शिक्षा : बी० ए०, बी० जे० एम० ए० - काशी विद्यापीठ, वाराणसी (1988), पी-एच० डी० -काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (1992)

शिक्षा सेवा : श्री हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी (1991-1993), श्री अग्रसेन स्नातकोत्तर महाविद्यालय) वाराणसी (1993-1996)

सम्प्रति : वसन्त कन्या महाविद्यालय, कमच्छा, वाराणसी में (1996 से) अध्यापन ।

साहित्य सेवा : नागरी प्रचारिणी सभा) वाराणसी के विश्व साहित्य कोष वि भाग में सह - सम्पादक ( 1990 से 1995 के बीच - भाग 1, भाग 2)

लोक सेवा : आचार्यकुल, जय जगत सेवा संस्थान, नागरी प्रचारिणी सभा, मैत्री भवन, अखिल भारतीय विद्वत परिषद, मानवाधिकार सर क्षण एवं मादक द्रव्य निषेध अन्वेषण ब्यूरो आदि संस्थाओं की रचनात्मक प्रवृत्तियों में सहयोग । रचना : कविता, निबंध, समीक्षा) आलोचना एवं शोध पत्र का लेखन तथा साठ से आधिक साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन ।

मुख्य कार्य : छायावादोत्तर, भक्ति साहित्य, लोक साहित्य का अनुशीलन, राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों एवं कार्यशाला का आयोजन, फोटोग्राफी, पत्रकारिता एवं श्रमनिष्ठ, ज्ञाननिष्ठ, विद्यार्थीनिष्ठ) समाजनिष्ठ शिक्षण -प्रशिक्षण, योग) पर्यावरण एवं जैविक कृषि, कार्यक्रम अधिकारी, राष्ट्रीय सेवा योजना ।

प्रकाशन : 1. छायावादोत्तर हिन्दी कविता के रचनात्मक सरोकार, 2. शिक्षा एवं शिक्षकों की रचना धूमता, 3. जय जगत चर्चा-अर्चा, 4. महात्मा गां धी काशी विद्यापीठ एवं गां धी जीवन दर्शन, 5. मूल्यपरक शिक्षा- आचार्य राममूत ।

भूमिका

विनोबा जी की ख्याति गांधीजी के अनुगामी, अहिंसा और सत्याग्रह के सिपाही, सर्वोदय और भूदान आदोलन के अग्रणी नायक के रूप में है । लेकिन उनका व्यक्तित्व और भी बड़ा है । वे भारतीय नवजागरण की महान् परंपरा के लगभग आखिरी स्तंभ हैं आधुनिक भारत की नई ऋषि परंपरा के एक दैदीप्यमान नक्षत्र; समाज, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, आध्यात्म, धर्म आदि विषयों के मौलिक चिंतक और गांधीवादी प्रयोगों के मौलिक अनुसंधानकर्ता; पूर्ण कर्मयोगी । विचार और कर्म के क्षेत्र में उनके योगदान का सम्यक् मूल्यांकन अभी नहीं हुआ है । वेद से लेकर भक्ति साहित्य तक का, विभिन्न धर्मो का उन्होंने गंभीर अध्ययन किया, व्याख्या की और उसका जनसुलभ और उपयोगी सार-संग्रह किया - वह सब भारतीय वाङ्मय की मूल्यवान थाती है । वे भारत और भारत के बाहर की लगभग बीस-पचीस भाषाएं जानते थे । संस्कृत का ज्ञान तो उनका प्रौढ़ था ही; भूदान -पदयात्रा करते हुए समूचे भारत में जहां भी गये, वहां की भाषा सीखी, वहां के मूल्यवान भक्ति साहित्य का अध्ययन किया । कुरान का अध्ययन करने के लिए श्रमपूर्वक अरबी सीखी । अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन आदि सीख कर विदेशी साहित्य का भी अध्ययन किया । इस कारण विविधता में एकता का दर्शन करने वाले वे अद्वितीय आचार्य हैं ।

विनोबा जी ने पचास वर्षो तक वेदों का अध्ययन-मनन कर सार निकाला और मंत्रों की नई व्याख्या की; उनसे युगानुरूप नये से नये सामाजिक और आध्यात्मिक संदेश निकाले । विश्वदृष्टि, विश्वमानवतावाद सर्वधर्म-समन्वय, ग्रामस्वराज्य, मानवमात्रा की एकता, जीवदया, गोसेवा आदि के सूत्र वेदों से निकाले । उदाहरण के लिए-अज्येष्ठासो अकनिष्ठास: यानि वैदिक ऋषि का आदर्श ग्राम वह है, जहां न कोई बड़ा है, न कोई छोटा, सभी समान हैं । वह सबको मैत्रीभाव से देखता है - मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । वैदिक ऋषि एक ऐसे स्वराज्य के लिए यत्न करने का संदेश देते हैं जहां सबको मताधिकार प्राप्त हैं, जहां लोक कल्याणकारी नीतियां चलन में हैं - व्यचिष्ठे बहुप्रापाये यतेमहि स्वराज्ये । व्याचिष्ठ यानि अत्यंत व्यापक अर्थात्( सभी को मताधिकार प्राप्त है; बहुप्राप्य अर्थात् जहां के बहुसंख्यक अल्पसंख्यक के रक्षण के विषय में सावधान है । इसी प्रकार - विश्व पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातुरम् - इसमें ग्रामनिष्ठा और विश्व दृष्टि दोनों का समन्वय है । गांव में ही स्वस्थ और समृद्ध विश्व का दर्शन हो रहा है। दोनों में कोई विरोध नहीं, वरन् सामंजस्य है ।

बढ़ गई है । इसीलिए विनोबा जी की साहित्य दृष्टि को लेकर डा. सुमन जैन ने जो यह विशद अध्ययन कार्य किया है, मैं इसका स्वागत करता हूं ।

डा. सुमन जैन ने विनोबा जी के साहित्य विषयक विचारों के अतिरिक्त उनके स्त्री विषयक विचारों का भी संकलन किया एं और पुस्तक के अंतिम अध्याय में विनोबा जी के विज्ञान और अध्यात्म के सामंजस्य दर्शन पर भी प्रकाश डाला है । परिशिष्ट भाग में विनोबा जी द्वारा स्थापित आचार्यकुल संबंधी विचारों और प्रयोगों के परिचायक दो साक्षात्कार संलग्न किये है । इससे पुस्तक और भी उपयोगी हो गयी है । इस कार्य के लिए मैं डा० सुमन जैन को बधाई देता हूं और आशा करता हूं कि भविष्य में भी वे इस कार्य को आगे बढ़ाती रहेंगी ।

 

अनुक्रम

1

विनोबा-जीवन विचार कर्म और साहित्य

1-35

2

विनोबा जी की साहित्यिक मान्यताएं

33-68

3

भारतीय साहित्य की दार्शनिक पृष्ठभूमि (वेद-वेदान्त)

69-101

4

भारत के सन्त कवि और उनका साहित्य

102-167

5

विनोबा जी की दृष्टि में स्त्री-शक्ति

168-183

6

विज्ञान और अध्यात्म का सृजनात्मक पक्ष

184-195

7

दो विचारकों से साक्षात्कार एवं मूल्यांकन

196-208

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