हिन्दी मज़हबी भाषा नहीं है और इस भाषा में रचा गया साहित्य संकीर्णता की परिधि में नहीं आता है। भारत में बहुसंख्यक की भाषा का नाम हिन्दी है। हिन्दी भाषा का विकास अन्य बोलियों, भाषाओं तथा जातियों के साथ हुआ है इसके विकास में यदि बहुसंख्यक का बड़ा भाग है और अल्पसंख्यकों-मुस्लिम और अंग्रेज़ों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। देन की दृष्टि से कुतबन, जायसी, आलम शेख, नज़ीर अकबराबादी आदि के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। ऐसे हिन्दी साहित्य में जो अनेक विधाएँ देखने को मिलती हैं उनके पीछे अंग्रेज़ी और बंग्ला लेखकों का पूरा-पूरा हाथ है, साथ है। यदि हिन्दी के प्राचीन साहित्य का विशेष कर ऐतिहासिक दृष्टि से मध्यकाल का अध्ययन करें तो मुस्लिम कवियों और काव्ययात्मक कारीगरी को बिल्कुल नहीं भुला सकते हैं। रहीम, रसखान तो इतना डूब कर लिख गये हैं कि उनकी क्षमता को अन्य कोई नाम खोजना आसान नहीं है।
सामान्य रूप से साहित्य वही है जिसमें समाज के प्रति अत्यन्त गम्भीरता से लोक हित की बात कही गई हो और जिस धरोहर पर आने वाली पीढ़ियाँ गर्व कर सकें। समाज में जो जीवन दृष्टि प्रदान करती है वह तथा परम्पराएँ साहित्य के रूप में ही ज़िदां रहती हैं। आने वाला समय उन्हें अपनी समझ में रखता है तथा उनकी चर्चा करके पूर्वजों का कृतज्ञ होता है। परम्पराएँ जैसे समाज में होती हैं ऐसे साहित्य में भी परम्पराएँ विकसित होती हैं। हम उन परम्पराओं से परिचित हो कर स्वयं के अस्तित्व पर गर्व करते हैं और धरोहर से धनवान होते हैं।
हमारे मध्य डॉ० नाग्रेन्द राजनीतिक बखेड़ों से दूर साहित्यिक आन्दोलनों से मुक्त एक कवि मनीषी हैं जिन्होंने प्रबन्ध, मुक्तक और गीत के अतिरिक्त मौन साधक की भांति एक कुशल लेखक की भूमिका का निर्वाह किया है। उनका गद्यात्मक- आलोक पत्र-परित्रकाओं में आलेखों के रूप में, समीक्षात्मक लेखों के रूप में तथा विभिन्न पुस्तकों में गम्भीर साहित्यिक भूमिकाओं के रूप में देखने को मिलता है। शशि और उनका काव्य, चन्द्रप्रभा सागरः जीवन और साहित्य', 'विनय सागरः जीवन और साहित्य', 'विगात और प्रेयस', 'रुहेलखण्ड के कवि (भाग एक)' आदि कृतियों में डॉ० नागेन्द्र की साहित्यिक पकड़ देखी जा सकती है। जब तक वे गहराई तक नहीं पहुँच जाते हैं तब तक उनकी लेखनी ठहरने का नाम नहीं लेती है।
उक्त कृतियों के अतिरिक्त डॉ० नागेन्द्र के स्पष्ट रूप में क्रीब दो सौ के लेख प्रकाशित हो चुके हैं। उन लेखों को देख कर सुधी पाठकों के मन में एक विचार आया कि लेखों के जखीरे से कुछ लेख एकत्र कर एक निबन्ध संग्रह प्रकाशित किया जाये। यह दुरुहकार्य डॉ० नागेन्द्र द्वारा ही सहज में हो सकता है। यह सोच कर उनके सामने एक निबन्ध संग्रह की योजना रखी गई और उन्होंने उसे सहज स्वीकार किया। प्रस्तुत 'साहित्यिक नक्षत्र' डॉ० नागेन्द्र को सहज स्वीकृति के फल स्वरूप ही प्रस्तुत हैं।
'साहित्यिक नक्षत्र' प्रस्तुत कृति में मात्र सत्तरह निबन्ध हैं। जिन्हें अध्ययन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए तीन भागों में बाँटा जा सकता है- प्रथम शोधपरक निबन्ध, द्वितीय विवेचनात्मक निबन्ध और तृतीय भावात्मक निबन्ध।
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