पुस्तक परिचय
गोस्वामी तुलसीदास का जीवन चरित प्राय उनके जीवनकाल से ही लिखा जाता रहा है । इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने अपनी दीर्घायु के बीच पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली थी और मुगल सम्राट अक्सर, राजा मानसिंह, अब्दुल रहीम खानखाना, मीराबाई, राजा टोडर आदि ने उनकी श्रीरामभक्ति के प्रति पर्याप्त श्रद्धा और सम्मान अर्पित किया था । साहित्य की परम्परा में उनकी कालजयी कृति श्रीरामचरित मानस की चर्चा भक्ति एवं रीतिकाल से ही बराबर होती चली रही है ।
गोस्वामी तुलसीदास की जीवनगाथा की मूल समस्या है कि इन पाँच सौ वर्षो के अवशेषों में बाबा को कहाँ खोजा जाए? यहाँ बाबा तुलसीदास की खोज का आधार उनकी कृतियाँ तथा पाठ है । प्रत्येक सर्जक अपनी कृति के पाठ में वर्ण से लेकर उसकी समग्र प्रबन्ध रचना तक व्याप्त रहता है कण कण में व्याप्त निर्गुण ब्रह्म की भांति । साधक के लिए, अणु अणु में व्याप्त ब्रह्म से आत्मसाक्षात्कार करके, उसे समाधि चित्त में उतारना बड़ी दुर्लभ समस्या है । ठीक उसी प्रकार, तुलसी की कृतियों में सर्वत्र व्याप्त महात्मा तुलसीदास का आत्मसाक्षात्कार करके उन्हें स्वानुभूति एवं सृजन के स्तर पर उतारना लेखक की वर्षपर्यन्त तक की चेष्टा रही है । इसे औपन्यासिक कृति का रूप देने के लिए क्वचिदन्यतोऽपि का भी उसे आधार लेना पड़ा है किन्तु चेष्टा यही रही है कि कृतियों का सृजन करके उन्हीं में विलीन गोस्वामी तुलसीदास को शब्दों से कैसे रेखांकित किया जाए । जो बन पड़ा, वह सामने है । अन्त में, एक आभार पुन: प्रकाशक की ओर से । इस कृति के प्रकाशन में आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या फैजाबाद के निदेशक डॉ. योगेन्द्र प्रताप सिंह तथा रजिस्ट्रीकरण अधिकारी व विशेष कार्याधिकारी डॉ. ए. पी. गौड़ का प्रकाशक हृदय से आभार व्यक्त करता है ।
भूमिका
गोस्वामी तुलसीदास जी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है, अपने युग की विशृंखलित, टूटी तथा बिखरी हुई कड़ियों को जोड़कर उनके बीच समन्वय स्थापित करना । अकबर तथा जहाँगीर का समय अपेक्षाकृत भारतीय समाज के लिए अधिक शान्त तथा उत्पीड़न शून्य माना जाता रहा है, लेकिन उनके पूर्ववर्ती विदेशी आक्रमणों, लूट एवं धार्मिक उन्मादवाद के प्रभाव से भारतीय समाज पूरी तरह से टूट चुका था । गोस्वामीजी का अवतरण इसी कालखण्ड में हुआ था । उन्होंने हिन्दू जाति की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक टूटन का जितना अधिक एहसास किया है, उससे ज्यादा उन्होंने इसको बड़े धैर्यपूर्वक जोड़ने का भी प्रयास किया । सर जार्ज ग्रियर्सन ने ठीक ही कहा है, महात्मा बुद्ध के बाद भारतीय इतिहास में यदि कोई दूसरा समन्वयवादी महापुरुष हुआ है तो वह हैं, गोस्वामी तुलसीदास ।
समन्वय समाज को जोड़ने का एक चिन्तनगत आधार है ताकि हम अपनी बिखरी हुई शक्तियों को एक करके अपने युग विशेष की संरचना में लगा सकें । समन्वय वह मुख्यधारा है, जो हमें अपने इतिहास और अपनी परम्परा से टूटकर बिखर जाने और एकाकी एवं शक्तिहीन हो जाने से बचाता है । गोस्वामी तुलसीदास जी का समन्वयवाद इन दोनों दृष्टियों से अग्रणी है । उसने एक ओर भारतीयों को टूटने, बिखरने तथा अलग थलग होकर नष्ट होने से बचाया है तो दूसरी ओर, भारतीय परम्परा में हमें जोड़कर शक्तिहीन एवं विनष्ट हो जाने से हमारी रक्षा की है । तुलसी ने अपनी जीवनयात्रा हनुमान से शुरू की जबकि चित्रकूट एवं उसके आसपास उस समय शैवधर्म का प्रभाव अधिक था । हनुमान के द्वारा वे राम से जुड़े । उनके गुरु नरहरिदास ने उन्हें भागवत पुराण एवं श्रीकृष्ण की लीलाभक्ति से जोड़ा । शेष सनातन जी ने उन्हें वाल्मीकि, अध्यात्म एवं याज्ञवल्क्य रामायणों से जोड़ा । धीरे धीरे वे ज्योतिष से जुड़े । अपने मित्र मधुसूदन सरस्वती के साथ उन्होंने अद्वैत वेदान्त से अपने को जोड़ा और श्रीरामचरितमानस में नारद, शांडिल्य, भगवत पुराण एवं अध्यात्म रामायण के चारों भक्तिरूप एक साथ पाठक को मिल जाते हैं । उसके लिए पृथक् ग्रंथ के अध्ययन की आवश्यकता नहीं है । श्रीरामचरितमानस में काशी की शिवनगरी में राम का शिव समर्थन एवं अयोध्या के रामानुज मत के साथ आचार्य वल्लभ के लीलावाद का समन्वय एक असत प्रकरण है । शिव का अद्वैत आगम मत एवं लीलावेदान्त का समन्वय मानस की लोकप्रिय अवधारणा है । सांख्यमत, कर्मतथा मीमांसा दर्शन, तपवाद श्रीराम में परिपूर्णता प्राप्त करते हैं । अपने युग की समस्त अवधारणाएं एवं उसके पूर्व की धर्मचर्चाओं से तुलसी का कहीं कोई विरोध नहीं है । सम्भव है, प्रारम्मिक अवस्था में अन्य धर्मों के प्रति कहीं कोई प्रतिक्रिया रही हो किन्तु विनय पत्रिका तक पहुँचते पहुंचते कवि का मन समग्र समन्वय में एकनिष्ठ हो चुका था । वे विनय पत्रिका में महात्मा बुद्ध की वन्दना करते हुए कहते है कि
प्रबल पाखंड महिमंडलाकुल देखि निंद्यकृत अखिल मख कर्मजालं ।
शुद्ध बोधैक घन ज्ञान गुनधाम अज बुद्ध अवतार बंदे कृपाल । ।
विनय पत्रिका, के प्रारम्मिक छन्दों को देखने पर यह नितान्त स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने पहली बार उस युग में जीवित तथा प्रचलित धर्मों को रामभक्ति सूत्र में बाँधकर उसे अखण्ड भारतीयता का स्वरूप दिया था । श्रीरामचरितमानस तो उनके धार्मिक समन्वयवाद का मूलाधार ही है ।
धार्मिक समन्वय के साथ साथ वर्णभेद को तोड्ने वाला उनका जातीय समन्वयवाद सर्वााधिक महत्वपूर्ण है । तुलसी ने अपने युग के उपेक्षित जनसमुदाय को मानवीय मूल्यों के मानकों पर आँका तथा उन्हें नरत्व का श्रेष्ठ आसन दिलाने का प्रयास किया । उनके राम उनके इस कार्य में सदैव सहयोगी रहे हैं ।
तुलसी की एक और भी महत्वपूर्ण विशेषता है, वह यह कि वे सदैव इसी बात का समर्थन करते रहे हैं कि नैतिक मानवीय मूल्यों की संरक्षा से ही मानव समाज की स्थायी सामाजिक संरचना सम्मव है । दया, स्नेह प्रेम, आत्मीयता, अहिंसा, ममता, समत्व जैसे मूल्य ही समाज को स्थायित्व प्रदान करते हैं । राजधर्म का दायित्व है, समाज को ऐसे ही मूल्यों की स्थिरता के लिए तत्पर करना । तुलसी का रामराज्य आज के लिए भी सामाजिक संरचना का दीर्घजीवी एवं स्थायी आदर्श है ।
ऐसे कालजयी महाकवि की जीवनी उनके अन्तर्साक्ष्यों को केन्द्र में रखकर लिखने का यह प्रयास सुधी विद्वानों के सामने है । गोस्वामी तुलसीदास जी ही एक ऐसे कवि है, जिनका जीवन चरित उनके जीवन काल से ही लिखा जाता रहा है । उसी क्रम में, उनके कसम के चार शतकों बाद की यह जीवनगाथा भी उसी परम्परा की धरोहर है ।
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