दलित साहित्य का आंदोलन दलितों के सांस्कृतिक जागरण का आंदोलन है। व्यक्ति और समाज, जीवन के परिवर्तन, परिष्करण एवं प्रगति का सजग स्वरूप दलित साहित्य के आंदोलन में परिलक्षित होता है। इसमें संस्कृति और हमारी सांस्कृतिक विरासत, सृष्टि, सृजन पहचान और सांस्कृतिक अन्तःसम्बन्धों की अवधारणा का प्रत्येक पहलू भी सन्निहित है, जो पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रासंगिक है। अर्जेन्टीना के लेखक 'जूनियों कोर्तजार' ने एक बार कहा था- 'हम जिसे संस्कृति कहते हैं, वह मूल रूप में अपनी पूरी सशक्तता के साथ हमारी पहचान के अस्तित्व और उपयोग के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है। इस अस्तित्व का मूल इतिहास में है, जिसकी जान-पहचान एक अलगाव बिन्दु है।' भारतीय साहित्य, दर्शन और सांस्कृतिक विरासत में यही अलगाव बिन्दु दलित साहित्य की पहचान है। दलित साहित्य डॉ. अम्बेडकर के संघर्ष को आगे बढ़ाने वाला आंदोलन है।
इस आंदोलन के उद्भव और विकास के पीछे घृणा, क्रोध, आक्रोश, पीड़ा, विद्रोह और क्रांति का ऐसा इतिहास है, जो साधारणतः बहुत कम दृष्टिगत होता है। सदियों से पीड़ित समाज पर जो अन्याय और अत्याचार किया जाता रहा है। उसका विरोध और दलित जीवन का चित्रण करने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है। ... 'दलित शब्द' व 'दलित साहित्य' पर विभिन्न विद्वानों के विचार व मत से अवगत होने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि वास्तव में दलित साहित्य जीवन की दर्दनाक तड़पन है। रोंगटे खड़ा कर देने वाला साहित्य है। जिसकी पीड़ा जिजीविषा उनके साहित्य में देखा जा सकता है चाहे वह आत्मकथा हो, उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो कोई भी विधा हो जिसमें उसका एक लक्ष्य दिखाई पड़ता है, वह है- सामाजिक परिवर्तन की मांग।
डॉ. अरविन्द कुमार का जन्म 22 मई 1983 ईस्वी को उत्तर प्रदेश प्रांत के वाराणसी जिला स्थित गौर वारी मिर्जामुराद के छोटे से गाँव में हुआ। पिता श्री फलचन्द राम एक साधारण मजदूर और माता स्व. कामता देवी कुशल गृहिणी थी। पिता के साथ मजदूरी कार्य करते हुए, डॉ. अरविन्द कुमार का बचपन गाँव में ही बीता। आपकी शुरुआती शिक्षा गाँव के सरकारी स्कूल प्राथमिक पाठशाला में हुई। आपने 10वीं तथा 12वीं की परीक्षा गाँव के इन्टर कॉलेज से उत्तीर्ण की। आपने स्नातक (हिन्दी आनर्स), स्नातकोत्तर (हिन्दी), पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से तथा एम.फिल. हिन्दी की उपाधि महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी और एकल विषय में स्नातक (संस्कृत) राजपिं टंडन मुक्त विश्वविद्यालय इलाहाबाद से प्राप्त किया। आप हिन्दी साहित्य, आलोचना, दर्शन और नवसाहित्यिक विमर्श के प्रतिष्ठित अध्येता हैं। आपके द्वारा लिखित पुस्तक दलित चिंतन का परिप्रेक्ष्य सन्दर्भ 'अक्करमाशी और जूठन' (2014) प्रकाशित है और विभिन्न शोध पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक मण्डल के सदस्य हैं। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध-पत्रिकाओं में शोध आलेख प्रकाशित हैं और आपने विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रतिभागिता एवं अध्यक्षता की है। आपने अनेक शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में निर्णायक रहे हैं। डॉ. अरविन्द कुमार अनेक विश्वविद्यालय, महाविद्यालय में साक्षात्कार समिति में विषय-विशेषज्ञ के रूप में नामित हैं। आयोजक सचिव के रूप में रिफ्रेसर कोर्स का कार्य सम्पन्न कराया है।यू.जी.सी. द्वारा प्रदत्त राजीव गांधी नेशनल फैलोशिप अवार्ड प्राप्त हुआ है। सम्प्रति : असिस्टेन्ट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)सम्पर्क सूत्र : 9479975625, ईमेल: arvindhindi2@gmail.com
डॉ. नंदी पटोदिया, जन्म 12 जनवरी 1985 ई., जन्म स्थान इटारसी (म.प्र.) शिक्षा : वी.ए., एम.ए. प्रथम श्रेणी, बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल (म.प्र.)
नेट (समाजशास्त्र), पी-एच.डी. (समाजशास्त्र), डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)
विषय विशेषज्ञ दलित अध्ययन एवं डॉ. अम्बेडकर
प्रकाशित पुस्तक : डॉ. भीमराव अम्बेडकर का चिन्तन, दलित चेतना और डॉ. भीमराव अम्बेडकर
शोध पत्रः शोध आलेख देश के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, विभिन्न पुस्तकों में अध्याय, विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रतिभागिता
सम्प्रति: असिस्टेन्ट प्रोफेसर, समाजशास्त्र एवं समाजकार्य विभाग, डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)
सम्पर्क सूत्र : 09479382197, ईमेल- nandi 12patodia@gmail.com
दलित साहित्य एक प्राचीन साहित्यिक धारा है। दलित साहित्य प्रारम्भ से ही वैदिक तथा वर्ण-व्यवस्था विरोधी रहा है। संभवतः यही कारण है कि बुद्ध, सिद्ध, नाथ, कबीर, रैदास, ज्योतिबा फुले, ब्लैक पैन्थर्स और दलित पैन्थर्स आदि महापुरूषों ने इस धारा को एक नया तेवर एवं नई दृष्टि देकर दलित आन्दोलन और दलित चेतना को विकसित किया। हिन्दी साहित्य में आदिकाल से अब तक होने वाले अनेक साहित्यिक आन्दोलनों में दलित आन्दोलन महत्वपूर्ण है। दलित साहित्य और दलित आन्दोलन का उद्भव दलित जीवन के बीच से आया है। दलित चेतना ही दलित आन्दोलन का प्रमुख कारण बना। 20वीं सदी के अन्त में दो विमर्श हुए, एक दलित विमर्श, दूसरा स्त्री विमर्श। दलित विमर्श दलित जीवन से सम्बन्धित है, लेकिन दलित विमर्श दलित चेतना नहीं है। दलित विमर्श और दलित चेतना में अन्तर है। दलित जीवन और दलित चेतना का दस्तावेज दलित आत्मकथाएँ हैं। दलित आन्दोलन का विकास मराठी दलित साहित्यकारों से माना जाता है और मराठी 'अस्मितादर्श' नामक पत्रिका से दलित आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ है। उन्नीसवीं शताब्दी में साहित्य में दलित धारा महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले के नाटकों तथा काव्यों में दिखाई देती है। महात्मा फुले ने वर्ण-व्यवस्था के पोषकों, पाखण्डियों तथा धर्मान्धों पर गहरा प्रहार किया है। हिन्दी साहित्य में दलित चेतना और दलित जीवन छायावाद के साथ-साथ मुखर हुआ है।
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