पुस्तक परिचय
कहानिंया सत्य की दूर से आती प्रतिध्वनियां हैं एक सूक्ष्म सा इशारा, एक नाजुक सा धागा। तुम्हें खोजते रहना होगा। तब कहानी धीरे धीरे अपने खजाने तुम्हारे लिए खमलने लगेगी।
यदि तुम कहानी को वैसे ही लो जैसी वह दिखाई देती है, तुम उसके संपूर्ण अर्थ से ही चूक जाओगे। प्रत्यक्ष वास्तविक नहीं है। वास्तविक छिपा है बड़े गहरे में छिपा है जैसे किसी प्याज में कोई हीरा छिपा हो। तुम उघाड़ते जाते हो प्याज की परतों पर परतें, और तब हीरा उजागर होता है।
भूमिका
मनुष्य को परमात्मा तक पहुंचने से कौन रोकता है त्र और मनुष्य को पृथ्वी से कौन बांधे रखता है? वह शक्ति कौन सी है जो उसकी जीवन सरिता को सत्ता के सागर तक नहीं पहुंचने देती है?
मैं कहता हूं मनुष्य स्वयं । उसके अहंकार का भार ही उसे ऊपर नहीं उठने देता है । पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण नहीं, अहंकार का पाषाणभार ही हमे ऊपर नहीं उठने देता है । हम अपने ही भार से दबे हैं, और गति में असमर्थ हो गए हैँ । पृथ्वी का वश देह के आगे नहीं है । उसका गुरुत्वाकर्षण देह को बांधे हुए है । किंतु अहंकार ने आत्मा को भी पृथ्वी से बांध दिया है । उसका भार ही परमात्मा तक उठने की असमर्थता और अशक्ति बन गया है । देह तो पृथ्वी की है । वह तो उससे ही जन्मी है और उसमें ही उसे लीन हो जाना है । लेकिन आत्मा अहंकार के कारण परमात्मा से वंचित हो, व्यर्थ ही देहानुसरण को विवश हो जाती है ।
और यदि आत्मा परमात्मा तक न पहुंच सके, तो जीवन एक असह्य पीड़ा मे परिणत हो जाता है । परमात्मा ही उसका विकास है । वही उसकी पूर्णतम अभिव्यक्ति है । और जहां विकास में बाधा है, वहीं दुख है । जहां स्वयं की संभावनाओं के सत्य बनने में अवरोध है, वहीं पीड़ा है । क्योंकि स्वयं की पूर्ण अभिव्यक्ति ही आनंद है ।
वह देखते हो ? उस दीये को देखते हो ? मिट्टी का मर्त्य दीया है, लेकिन ज्योति तो अमृत की है । दीया पृथ्वी का ज्योति तो आकाश की है । जो पृथ्वी का है, वह पृथ्वी पर ठहरा है, लेकिन ज्योति तो सतत अज्ञात आकाश की ओर भागी जा रही है । ऐसे ही मिट्टी की देह है मनुष्य की, किंतु आत्मा तो मिट्टी की नहीं है । वह तो मर्त्य दीप नहीं, अमृत ज्योति है । किंतु अहंकार के कारण वह भी पृथ्वी से नहीं उठ पाती है ।
परमात्मा की ओर केवल वे ही गति कर पाते हैं, जो सब भांति स्वयं से निर्भार हो जाते है ।
एक कथा मैने सुनी है
एक अति दुर्गम और ऊंचे पर्वत पर परमात्मा का स्वर्ण मंदिर था । उसका पुजारी बूढ़ा हो गया था और उसने घोषणा की थी कि मनुष्य जाति मे जो सर्वाधिक बलशाली होगा, वही नये पुजारी की जगह नियुक्त हो सकेगा । इस पद से बड़ा और कोई सौभाग्य नहीं था । निश्चित तिथि पर बलशाली उम्मीदवारों ने पर्वतारोहण प्रारंभ किया । जो सबसे पहले पर्वत शिखर पर स्थित मंदिर में पहुंच जाएगा, निश्चय ही वही सर्वाधिक बलशाली सिद्ध हो जाएगा । आरोहण पर निकलते समय प्रत्येक प्रतियोगी ने अपने बल का द्योतक एक एक पत्थर अपने कंधे पर ले रखा था । जो जितना बलशाली स्वयं को समझता था, उसने उतना ही बडा पत्थर अपने कंधे पर उठा रक्खा था । महीनों की अति कठिन चढ़ाई थी । अनेक के प्राणों के जाने का भी भय था । शायद इसलिए आकर्षण भी था और चुनौती भी थी। सैकड़ों लोग अपने अपने भाग्य और पुरुषार्थ की परीक्षा के लिए निकल पड़े थे । जैसे जैसे दिन बीतते गए, अनेक आरोही पिछड़ते गए । कुछ खाई खड्डों में अपने पत्थरों को लिए संसार से कूच कर गए । फिर भी थके और क्लांत जो शेष थे, वे अदम्य लालसा से बड़े जाते थे । जो गिरते जाते थे, उनके संबंध में चलनेवालों को विचार करने के लिए न समय था, न सुविधा थी । लेकिन एक दिन सभी आरोहियो ने आश्चर्य से देखा कि जो व्यक्ति सबसे पीछे रह गया था, वही तेजी से सबके आगे निकलता जा रहा है । उसके कंधे पर बल का द्योतक कोई भार नहीं था । निश्चय ही यही भारहीनता उसकी तीव्र गति बन गई थी । उसने अपने पत्थर को कहीं फेंक दिया था । वे सब उसकी मूढ़ता देख हंसने लगे थे, क्योंकि अपने पौरुषचिन्ह से रहित व्यक्ति के पर्वत शिखर पर पहुंचने का अभिप्राय ही क्या हो सकता था ? फिर जब महीनों की कष्ट साध्य चढ़ाई के बाद धीरे धीरे सभी पर्वतारोही परमात्मा के मंदिर तक पहुंच गए तो उन्हें यह जान कर अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका वही स्वल्प सामर्थ्य साथी जो अपना पौरुषभार फेंक कर सबसे पहले मंदिर पर पहुंच गया था, नया पुजारी बना दिया गया है! लेकिन इसके पहले कि वे इस अन्याय की शिकायत करें, पुराने पुजारी ने उन सबका स्वागत करते हुए कहा परमात्मा के मंदिर में प्रवेश का अधिकारी केवल वही है, जो स्वयं के अहंकार के भार से मुक्त हो गया है । इस युवक ने एक सर्वथा नवीन बल का परिचय दिया है । अहंकार का पाषाणभार वास्तविक बल नहीं है । और मै आप सबसे सविनय पूछता हूं कि पर्वतारोहण के पूर्व इन पत्थरों को कंधों पर ढोने की सलाह आपको किसने दी थी और कब दी थी,?
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