भारत वर्ष के विशाल सांस्कृतिक और धार्मिक साहित्य में पुराणों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पौराणिक साहित्य प्राचीनतम होने पर भी अद्यावधि लोकोपयोगी और लोकप्रिय बना हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि जिस साहित्य में प्राचीन काल से ही सामाजिक हित का ज्ञान समाहित हो तथा लौकिक और पारलौकिक कल्याण की कामना निहित हो तथा जो युगानुरूप व्यवस्थित हो सके वही साहित्य चिर-स्थायी और सनातन हो सकता है। अतः हमारे ऋषि-मुनियों ने ऐसे साहित्य को पुराण संज्ञा दी है। पुराण शब्द की निरुक्ति बतलाते हुए यास्क ने भी यह सूचित किया है कि जो ज्ञान पुराकालीन होने पर भी युगानुरूप नवीनता युक्त अर्थात् लोकोपयोगी नवीन विषयों से भी युक्त हो सकता है उसे पुराण कहा जाता है-
पुराणं कस्मात्। पुरा नवं भवति (निरुक्त-नैघण्टुकाण्ड ३/१९)।
पुराण साहित्य में लोकोपयोगी नवीन विषयों के समावेश की प्रवृत्ति पुराणकारों में भी थी। मूलतः पुराणकार महर्षिवेदव्यास ने प्राचीन आख्यानों, उपाख्यानों, गायाओं और कल्पशुद्धियों को एकत्र संकलित करके पुराण-सहिता की रचना की थी- आख्याने चाप्युपाख्यानैर्गाथामिः कल्पशुद्धिभिः ।
पुराणसहितां चक्रे पुराणार्थ-विशारदः ॥ (विष्णु पुराण ३/६/१५)
पुराण-संहिता की रचना करके व्यास जी ने उसका उपदेश अपने शिष्य रोमहर्षण सूत को दिया था-
प्रख्यातो व्यासशिष्योऽभूत् सूतो वै रोमहर्षणः ।
पुराणसहितां तस्मै ददौ व्यासो महातिः ॥ (विष्णु पुराण ३/६/१६)
कालान्तर में सृष्टि, प्रलय, वंश, वंशानुचरित (वंश विशेष के महापुरुषों के चरित का) वर्णन और मन्वन्तरों का वर्णन पुराण का प्रमुख लक्षण बन गया था। वैदिक साहित्य में निहित जन-सामान्य के लिए दुरुह किन्तु उपयोगी ज्ञान को भी पुराणों में संकलित किया गया था। इसीलिए महाभारत में कहा गया है पुराण रूपी चन्द्रमा से श्रुति (वेद) रूपी ज्योत्स्ना प्रकाशित हुई है-
पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्ना प्रकाशिता। (आदिपर्व १/८६)
वस्तुतः इतिहास-पुराण का ज्ञान होने पर ही वैदिक साहित्य का ज्ञान सुगम होता है। अतः महाभारत में कहा गया है कि विद्वान् व्यक्ति इतिहास और पुराण के ज्ञान के आधार पर ही वेद के अर्थज्ञान की वृद्धि करे। जो व्यक्ति (इतिहास-पुराण का ज्ञान न होने के कारण) अल्पज्ञ है उससे वेद को भी यह भय रहता है कि वह उस (वेद) पर प्रहार कर सकता है अर्थात् उसका भ्रामक अर्थ कर सकता है।
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