मध्य एवं सुदूर पूर्व से मिले प्रमाण यह दशति हैं कि मनुष्य ने करीब दस हजार वर्ष पहले फसलें उगानी शुरू कर दी थी। तत्पश्चात् भोजन के लिए पशु पालन, परिवहन और खेती करने की शुरुआत हुई। मनुष्य ने प्रक्रिया को न जानते हुए भी सूक्ष्मजीवों का उपयोग किण्वित भोजन और पेय बनाने में किया। प्रारम्भ में आनुवंशिकता और विभिन्नता के मूलाधार का ज्ञान न होने के कारण फसलों और पशुओं की किस्मों और नस्लों में सुधार बहुत धीमी गति से हुआ।
मटर के पौधे पर किये गये अपने प्रयोगों के आधार पर एक आस्ट्रियाई पादरी जॉन ग्रेगर मेन्डल ने सबसे पहले आनुवंशिकता के सिद्धान्तों को सूत्रबद्ध किया। वर्ष 1865 में प्रकाशित उनका प्रथम पत्र शताब्दी के अन्त में पुनः शोध होने तक यूं ही उपेक्षित रहा। आनुवंशिक पदार्थ डी एन ए की रचना पांचवे दशक के मध्य में ज्ञात हुयी जिसे जीव विज्ञान के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण खोज समझा गया। 'तदुपरान्त आनुवंशिक कूट (कोड) का रहस्योद्घाटन हुआ। इन खोजों ने आण्विक जीव विज्ञान की नींव रखी। आण्विक जीव विज्ञान के ज्ञान और तकनीकों को सूक्ष्मजीवों पौधों और पशुओं की नस्लों को सुधारने में प्रयोग किये जाने को ही जैव प्रौद्योगिकी के नाम से जाना जाता है। पुनर्योगज डी एन ए प्रौद्योगिकी के द्वारा आज यह सम्भव है कि हम अपनी मनचाही जीन को किसी भी जीवित प्राणी सूक्ष्मजीव, पौधे अथवा पशु में प्रविष्ट कर सकते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में जैव प्रौद्योगिकी एक बहुचर्चित शब्द है किन्तु कुछ ही लोग जानते हैं कि इस तकनीक का विस्तार कितना है। जब कभी भी मैंने अपने स्नातकोत्तर विद्यार्थियों से कृषि में जैव प्रौद्योगिकी के बारे में बात की तो उन्होंने हमेशा यही कहा कि इसका तात्पर्य फसलों की आनुवंशिक अभियांत्रिकी से है। उन्हें यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि कृषि जैव-प्रौद्योगिकी कितना विस्तृत विषय है। यह तो कृषि-पालन और जैव उर्वरक तैयार करने जैसी निम्न तकनीक से लेकर पशु-प्रोटीन बनाने वाले आनुवंशिक रूप से अभियांत्रिक पौधे बनाने तक की उच्च स्तरीय तकनीक कृषि में हैं। जैवप्रौद्योगिकी के विस्तृत स्वरूप के कारण ही मैंने आम लोगों और उभरते वैज्ञानिकों के लिए कुछ लिखने का प्रयास किया। तेजी से विकसित हो रहे इस क्षेत्र के कुछ प्रेरक प्रसंगों को यदि वे ग्रहण कर सकेंगे तो इस पुस्तक को लिखने का मेरा उद्देश्य पूरा हो जायेगा।
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