पुस्तक के विषय में
भारतीय साहित्य में भक्ति-काला की विशिष्ट भूमिका रही है । भारत जैसे महान् एवं शान्तिप्रिय देश में धार्मिक समन्वय तथा विभिन्न धर्म-दर्शनों के बीरा संवाद और समीकरण की जहाँ बहुत आवश्यकता रही वहाँ इनके बीच परस्पर विश्वास और सामंजस्य पर भी अत्यधिक जोर दिया गया ।
शताब्दियों से कश्मीर ने कई दर्शनों और धर्मों को अपनी सुरम्य वादी में संरक्षण प्रदान किया । भक्त कवियों, शैव-साधकों, तांत्रिकों तथा सूफ़ियों ने यहाँ अपनी वाणियों और रचनाओं द्वारा सर्वधर्म सद्भाव के प्रसार-प्रचार में सराहनीय कार्य किया । इसी महान् परम्परा में कृष्ण राजदान (1850-1926) का नाम ससम्मान लिया जा सकता है । अनन्य शिव-भक्त होते हुए भी उन्होंने जंहाँ उगाने आराध्य की स्तुति में अनगिनत गीत रचे वहाँ पूर्णावतार श्रीकृष्ण की रासलीलाओं को भी गति-बद्ध करते हुए अपने कविकर्म को सफल और सार्थक किया । उन्होंने लीला-विधा जैसे अनूठे विषय को आकर्षक शैली, मनोहारी शब्दन्यास और सुललित छन्दों में केवल निबद्ध ही नहीं किया अपितु उसमें कश्मीर की उन्मुक्त रूपच्छटा और निसर्ग में व्यक्त निष्काम भक्ति-भाव को भो छंद-मुखर किया हें । उनकी रचनाओं में उन प्राचीन नदियों, वनों, पर्वतों, तीर्थ-स्थलों आदि बस बार-बार उल्लेख आया है, जो भारतीय जन-मानस में सदियों से विद्यमान है ।
प्रस्तुत विनिबंध के लेखक अर्जुन देव मजबूर ने परम्परागत भारतीय दृष्टि, मनीषा और शान्ति तथा सहिष्णुता के क्षेत्र में कृष्ण राजदान के कृतित्व एवं उनके योगदान की विशेष चर्चा को है । यह विनिबंध साम्प्रदायिक सद्भाव और शाश्वत मानव मूल्यों को सुरक्षित और संवर्धित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण पहल करेगा, ऐसी आशा की जा सकती है ।
अनुक्रम
1
सम्पूर्ण विश्व है जिसका काव्य
7
2
जीवन-दर्पण
14
3
मसनवी काव्यों की परम्परा
22
4
सूफी दर्शन का प्रभाव
40
5
लीला-काव्य
45
6
भाव-सर्जना
57
प्रकृति का कवि-गायक
68
8
रचनात्मक योगदान
72
9
परिशिष्ट
10
सहायक सामग्री
77
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