कृष्ण अकेले हैं जो समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए इस देश ने और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है, कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा है। राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे ही परमात्मा हैं। और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात कर लिया है।
कृष्ण जीवन को देखते हैं उत्सव की तरह, महोत्सव की तरह, एक खेल की तरह, एक क्रीड़ा की तरह। जैसा कि फूल देखते हैं, जैसा कि पक्षी देखते हैं, जैसा कि आकाश के बादल देखते हैं, जैसा कि मनुष्य को छोड़ कर सारा जगत देखता है। उत्सव की तरह। कोई पूछे इन फूलों से कि खिलते किसलिए हो, काम क्या है? तारों से कोई पूछे कि चमकते किसलिए हो? काम क्या है? पूछे कोई हवाओं से, बहती क्यों हो? काम क्या है?
मनुष्य को छोड़ कर जगत में काम कहीं भी नहीं है। मनुष्य को छोड़ कर जगत में महोत्सव है। उत्सव चल रहा है प्रतिपल। कृष्ण इस जगत के उत्सव को मनुष्य के जीवन में भी ले आते हैं। वे कहते हैं, मनुष्य का जीवन भी इस उत्सव के साथ एक हो जाए। ऐसा नहीं है कि उत्सव में काम नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हवाएं नहीं दौड़ रही हैं। दौड़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि चांद-तारे नहीं चल रहे हैं। चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि फूलों को खिलने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है, बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन करना गौण हो जाता है, होना महत्वपूर्ण हो जाता है। डूइंग पीछे हो जाती है, बीइंग पहले हो जाता है। उत्सव पहले हो जाता है, काम पीछे हो जाता है।
ऐसे ही महामना भगवान श्रीकृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व पर प्रश्नोत्तर सहित मुंबई एवं मनाली में ओशो द्वारा दी गई वार्ताओं एवं नव-संन्यास पर दिए गए एक विशेष प्रवचन का अप्रतिम संकलन है यह पुस्तक। यही वह प्रवचनमाला है जिसके दौरान ओशो द्वारा नव-संन्यास दीक्षा का सूत्रपात हुआ।
ओशो के अनुसार कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम और भविष्य के लिए अधिक समकालिन है। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते है और गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद तथा सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते है।
अगर यह कहा जाय कि कृष्ण के जन्म हुए हजारों साल बीत चुके हैं लेकिन उनकी देशना का उचित समय अभी भी नहीं आया है तो कोई अतिशयोक्ति होगी। अभी भी मनुष्यता उतनी परिपक्व नहीं हुई की श्रीकृष्ण जैसी चेतना को समझ सके। 'कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है।
अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में हैं, लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया कि कृष्ण का समसामयिक बन सके ।
भविष्य में ही यह संभव हो पाएगा कि कृष्ण को हम समझ पाएं।'
यह पुस्तक सबके लिए पठनीय और मननीय है, विशेष कर साधकों के लिए यह एक आत्मसात करने वाली पस्तक है|
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