पुस्तक के विषय में
निवेदन
प्रात:स्मरणीय ऋषिकल्प वाणीमूर्ति कविराज जी के अन्तराकाश में क्रमिक साधना का जो आविर्भाव हुआ था, उसका वाङ्गमय विग्रह 'क्रमसाधना' के रूप में आज अपना आत्मप्रकाश कर रहा है। उपलब्धि तथा साक्षात्कार की चरम स्थिति पर आसीन प्रातिभ ज्ञान सम्पन्न मनीषीगण के लिये क्रमसाधना का कोई मूल्य नहीं होता, क्योंकि परमेश्वर के तीव्रातितीव्र शक्तिपात के कारण वे अक्रम रूप से, युगपत् रूप से, तत्काल, कालावधिरहित स्थिति में परम ज्ञान तथा परमप्राप्तव्य से एकीभूत हो जाते हैं, तब भी पशुपाश में आबद्ध, मोहकलित प्राणीमात्र के लिये दयापरवश होकर वे क्रमसाधना की व्यवस्था करते हैं। साधारण प्राणी अक्रम ज्ञान की अवधारणा कर सकने में पूर्णत: अक्षम है । उसका अस्तिव, अधिकार तथा पात्रता अभी निम्नभूमि में ही आबद्ध है। उसे स्तरानुक्रम से, एक-एक स्तर का अतिक्रमण करते हुये, उर्ध्वपथ का पथिक बनना होगा। क्रमश: क्रमिक साधना का अवलम्बन लेकर आत्मसत्ता पर आच्छत्र जाडयतम को अपसारित करना होगा, इसके अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं है।
इस कम साधना के मूलाधार हैं श्री गुरु । इस कारण इस अथ के प्रारम्भ में सर्वप्रथम परात्पर गुरुतत्त्व से सम्बधित उपदेश का संयोजन किया गया है । इस प्रसंग के अन्तर्गत् परात्पर गुरुरहस्य, विकासक्रम, गुरु का स्थान एवं महत्त्व, दीक्षा अर्थात् परानुग्रह शीर्षक उपदेश क्रमिक रूप से संयोजित हैं । इन सबका सार यह है कि गुरु, शाख तथा स्वभाव ही शुद्धविद्या के उदय के कारक हैं । इनमें स्वभाव मुख्य है । गुरुवाक्य सै अथवा शाखवाक्य से जो बोध होता है, उसमें भी स्वभावरूपी अपना बोध ही प्रधान है । यदि व्यक्ति में अपना बोध नहीं है तब शाख अथवा गुरुरूप कारक भी उसका हित साधन नहीं कर सकते । इसी कारण स्वभाव सर्वप्रधान माना गया है । अत: स्वभाव ही गुरु है । स्वभावसिद्ध को वाह्यगुरु की तथा वाह्यशास्त्र की कोइ आवश्यकता ही नहीं रहती ।
स्वभाव के सम्बन्ध में यथार्थ अभिज्ञता प्राप्त करने के लिये जीव तथा ईश्वर सम्बन्ध की विवेचना आवश्यक है । ईश्वर शक्तिकेन्द्र के रूप में हृदय में स्थित रहते हैं । उनसे विकिरित हो रही शक्ति किरणों से उर्जान्वित होकर ही जीव एवं जगत गतिमान है । जब ईश्वररूपी शक्तिकेन्द्र से निर्गत हो रही शक्तिकिरणों का बिखराव बहात: हो रहा होता है, तब वही है अभाव और जब वे शक्तिकिरणें जीव की सत्ता में अन्तःप्रदेश को प्रकाशित कर रही होती हैं, तब वही है 'स्वभाव' । 'जीव तथा ईश्वर' शीर्षक उपदेश का मनन करने से यह उपलब्धि होने लगती है ।
स्वभाव की प्राप्ति के अनन्तर अथवा साथ ही साथ साधक को द्रष्टा की स्थिति आयत्त होती है। स्वभाव के नेत्रों से ईश्वर दर्शन प्राप्त होता है । इसी बिन्दु से प्रेम की उत्पत्ति होने लगती है । इस स्थिति में साधना को करने की आवश्यकता नहीं रह जाती । साधना स्वत :स्फूर्त्त रूप से होने लगती है । इसका निदर्शन 'भक्ति साधना का एक क्षेत्र' शीर्षक उपदेश से प्राप्त होता है। इस स्थिति में अब तक जिसे 'स्वभाव' कहा जा रहा था, वह 'महाभाव' रूप में उन्नीत होने लगता है । अब साधना अथवा भक्ति अथवा प्रेम का संचालन करती है भगवान् की ह्लादिनी शक्ति (कृपा शक्ति) । 'भगवत् प्रसंग' शीर्षक उपदेश में इसी महान् स्थिति का वर्णन है ।
स्वभाव की प्राप्ति के लिये गुरु की कृपा से दीक्षाप्राप्ति की आवश्यकता कही गयी है । दीक्षा से अभाव विदूरित होता है और ' स्वभाव ' का जागरण होता है । '' दीक्षा तथा परानुग्रह '' शीर्षक उपदेश से यह सत्य ज्ञात होता है । दीक्षा द्वारा योग, मंत्र तथा जप का विधान किया जाता है। योग से इच्छाशक्ति का जागरण होता है । स्वभाव सिद्धि के लिए इच्छाशक्ति भी सोपान स्वरूपा है। योगीगण योग द्वारा तथा तात्रिकगण मंत्र. एवं जप द्वारा इच्छाशक्ति का जागरण करते हैं। 'पातंजलोक्त योग-दर्शन ', 'योगोक्त सृष्टिरहस्य एवं इच्छाशक्ति', तथा 'मन्त्र एवं जप', शीर्षक प्रबन्धों द्वारा इसी सत्य का उद्भासन होता है । योग, मन्त्र, जप, भक्ति ये सभी क्रमिक साधना के अन्तर्गत हैं । परन्तु क्रमिक साधनाओं से तब तक स्वभाव की उपलब्धि नहीं होती जब तक साधना फलाकांक्षा रहित नहीं होती । स्वभाव की प्राप्ति के लिये स्वभावज कर्म सम्पादित करना होगा। स्वभावज कर्म ही अकृत्रिम कर्म है । वह है हृदयस्थ ईश्वर की प्रेरणा! अर्थात् स्वप्रकृति के नियोग में चलना । इसे ' गीतोक्त लक्ष्य ' शीर्षक उपदेश में यथाविधि परिभाषित किया गया है।
जो स्वभाव में स्थित हो चुके हैं तथापि अभी पूर्णत्व पद पर अभिषिक्त नहीं हो सके हैं, उन्हें सदा अप्रमत्त तथा प्रबुद्ध रहना होगा, क्योंकि स्वभाव में स्थित हो जाने पर भी उन्हें अभी तक महाभाव का संस्पर्श प्राप्त नहीं हो सका है । महाभाव की पूर्वावस्था में कभी भी पतन हो सकता है । महाभाव की प्राप्ति की उत्तरावस्था में पतन की कोई आशंका ही नहीं रह जाती । अत: साधक को सदा प्रबुद्ध एवं अप्रमत्त रहना चाहिये । इस तथ्य का निरूपण ' प्रबुद्धता तथा सप्तदशी ' शीर्षक उपदेश में किया गया है । क्रममार्ग की साधना में साधक के लिये प्रत्येक पग निक्षेप के साथ अनवरत सावधानी रखना आवश्यक है । इसी प्रसंग में तत्ववेत्ता कविराज जी उपलब्धि की विभित्र स्थितियों की विवेचना भी प्रस्तुत करते हैं । आत्मा की पंचदशी एवं षोडशी दशा में पूर्णता नहीं है । पूर्णता है सप्तदशी में । यह स्थिति भगवत् कृपा से प्राप्त होती है। यही है अक्रम स्थिति । षोडशी पर्यन्त क्रम है, परन्तु सप्तदशी में क्रम का सर्व था अभाव हो जाता है । १५वीं कला तक हास एवं वृद्धि है परन्तु १६वीं कला हास एवं वृद्धि से रहित होने पर भी क्रियाहीन है । अत : उसमें अग्रगति नहीं है । वह अमृत भंडार होकर भी अनुभूति रहित है। अपने आप में पूर्ण तथा विश्रान्त है। यह स्वभाव तथा महाभाव के मध्य की अवस्था है। आत्मा की १५वीं कला आयत्त होती है क्रिया से । क्रिया द्वारा उन्मिषित ज्ञान से प्राप्त होती है षोडशी। परन्तु ससदशी प्राप्त होती है विज्ञान से । यहाँ सम्पूर्ण विरोधाभास का समन्वय हो जाता है । तब जिस समन्वयी भंगिमा का उदय होता है उसका विवरण 'समन्वय दृष्टि' शीर्षक प्रबन्ध में अंकित है । संक्षेप में यही है प्रस्तुत मथ का सारतत्त्व ।
इस ग्रन्थ का सुव्यवस्थित प्रकाशन करके 'अनुराग प्रकाशन' के अधिष्ठाता श्री परागकुमारजी मोदी ने एक महनीय कार्य किया है, जिसके लिये साधक समाज उनका चिरकृतज्ञ रहेगा ।
विषयानुक्रमणिका
1
परात्पर गुरुरहस्य (रुद्रयामलोक्त)
2
विकासक्रम
22
3
गुरु का स्थान एवं महत्त्व
24
4
दीक्षा अर्थात् परानुग्रह
33
5
उपसंहार
39
6
जीव एवं ईश्वर
41
7
भक्ति साधना का एक क्षेत्र
50
8
पज्ञमहाभूत
62
9
गीतोक्त लक्ष्य
66
10
भगवत् प्रसंग
67
11
पातंजलोक्त योगदर्शन
88
12
योगोक्त सृष्टिरहस्य एवं इच्छा शक्ति
90
13
प्रबुद्धता तथा सप्तदशी
95
14
मन्त्र तथा जप
103
15
समन्वय दृष्टि
112
16
द्विधारा
113
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