ॐ श्री गणेशायनमः
प० पू० स्वामी शिवानंदाय नमः
इस पुस्तक में जो भी अनुभव लिखे गए हैं वे मेरे निजी अनुभव हैं। १९५६ से लेकर १९६८ तक के ध्यान-साधना-कला में जो अनुभव हुए, वे इस पुस्तक में प्रस्तुत किए गए हैं। पहले ये अनुभव 'संतकृपा' मासिक पत्रिका में एक साल तक क्रमशः छप कर आते रहे। बाद में 'संतकृपा' के माननीय संपादक श्री ना०वि० काकतकर और उक्त मासिक के सब कार्यकारी सदस्यों के सौजन्य से यह लेख माला मराठी में पुस्तक रूप में छपी जिससे अनेक मुमुक्षु साधकों को लाभ हुआ।
मेरी सब साधना दिल्ली में हुई, लेकिन जब पुस्तक लिखी गई तब हम अपने गाँव मिरज (महाराष्ट्र) में आ गए थे। पुस्तक लिखने का उद्देश्य यह रहा कि जो मैंने पाया है उसे सब पा लें। मुझे जो अपूर्व आनंद मिला वह सब को मिले। इस उद्देश्य से जैसे ही लेख-माला शुरू की, मासिक में हर महीने छप कर आने लगी। लोग पढ़कर बड़े ही प्रभावित हो उठे। मैं चाहती थी कि लोगों का भला भी हो और हम किसी के सामने न आएँ, लेकिन गुरुदेव को यह मंजूर नहीं था। लोग लेख पढ़कर संपादकजी को पत्र लिखते, मेरा पता पूछते, पत्र लिखते, आकर मिल लेते और साधना शुरू करते। रोजाना दस-बारह पत्र मेरे पास आते रहते थे। कितने ही लोग मिलने आने लगे। इस तरह जनता जनार्दन ने मुझे सद्गुरु के कार्य के लिए बाहर कार्य करने के लिए प्रेरित कर दिया।
जो भी पत्र आता उसमें सद्गुरु की स्तुति होती। सत्य, प्रेम, त्याग उन सब गुणों की स्तुति होती रहती। हम महाराष्ट्र में अपने गाँव और घर में 38 साल बाद गए थे। वहाँ सत्संगियों का संग न था। वह इस लेख माला ने मुझे दिया। घर में रोज़ भगवत्चर्चा होने लगी, बड़ा आनंद मिलने लगा।
श्री ज्ञानेश्वर महाराज जी ने कहा है, "जो रस मैंने पिया, मैं तृप्त हुआ। वह वही रस लोगों में बाँट रहा हूँ।" सच है, बांटने में जो आनंद है, वह बहुत महत्व का है।
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