उपनिषदों में दो प्रकार की विद्या का निरूपण मिलता है:-
(१) अपरा विद्या;
(२) परा विद्या ।
अपरा विद्या के अन्तर्गत संसार के सभी ज्ञान-विज्ञान आ जाते हैं; किन्तु इस अपरा से मात्र प्रेयस् की सिद्धि होती है, थे यस् की सिद्धि इससे नहीं होती । श्रेयस् की सिद्धि परा विद्या से होती है। यह परा विद्या ही वेदान्त है। यह ब्रह्मविद्या है, अध्यात्म विद्या है, यह आत्मविद्या है। अपरा विद्या के अन्तर्गत आनेवाले समस्त शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, अविद्या जन्य है, मात्र परा विद्या हो विद्या है। शेष सब कुछ अविद्या। ब्रह्मविद् के लिये कुछ भी ज्ञातव्य शेप नहीं रहता । भगवद्गीता में कृष्ण का निम्नलिखित उद्घोष है :-
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यञ्ज्ञातव्यमवशिष्यते
श्रीमद्भगवद्गीता, ७।२
वेदान्त की अन्यान्य विधायें हैं। इन विधाओं में दार्शनिक चिन्तन की परम निष्पत्ति शाङ्कर वेदान्त में हुयी है। शाङ्कर वेदान्त 'तत्पदायंशोधनविधि' के द्वारा समस्त वस्तुजगत् का अधिष्ठान एवं उत्स एक ओर निरपेक्ष ब्रह्म में करता है, वहीं पर 'त्वम्पदाषंशोधनविधि' के माध्यम समस्त विपर्याय-जगत् का अधिष्ठान एवं उत्स आत्मा में करता है। अन्ततः 'तत्' एवं 'त्वम्' को 'अयम् आत्मा ब्रह्म' के माध्यम 'विषयता' अथवा 'इदन्ता' एवं 'विपयिता' अथवा 'अहंता' के भेद को दूर कर 'एकमेवाद्वितीयं सच्चिदानन्द ब्रह्म' का साक्षात्कार करता है। इस प्रकार मानवीय चेतना का जैसा सशक्त एवं जीवन्त रूप शाङ्कर वेदान्त में उभरता है वह अन्यत्र दुर्लभ है।
शाङ्कर वेदान्त सो ही सशक्त एवं जीवन्त एवं उसी के 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' पर अधिष्ठित यदि कोई अन्य दार्शनिक विधा है तो वह काश्मीर शैव दर्शन है। इस विधा का इतिहास अत्यल्प है। तान्त्रिक परम्परा होने के कारण यह विद्या वेदान्त से भी अधिक 'गोपनीय' बनी रही। फलस्वरूप इसका विकास वैसा। नहीं हो सका जैसा वेदान्त का ।
काश्मीर शैव दर्शन की उपादेयताकाश्मीर शैव दर्शन तान्त्रिक (आगमिक) परम्परा का सबसे प्रधान दर्शन है। भारतीय संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में तान्त्रिक परम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। तान्त्रिक दर्शन में जीवन के ऐसे सत्यों की गवेषणा है, जिन्हें जानना सुखी जीवन के लिए अपरिहार्य है। उन चिरन्तन सत्यों का ज्ञान आज के जीवन में भी संगत है; तन्त्र ने चिरन्तन नवीन रहने वाला स्वस्थ जीवन दर्शन दिया है। तान्त्रिक (आगमिक) जीवन-दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है जीवन एवं जगत् के प्रति भावात्मक (positive) दृष्टिकोण। तन्त्र ने जगत् एवं जागतिक मूल्यों (values) को स्वीकार कर उन्हें इस प्रकार बरतने की विधा दी है जिससे हम सुखी एवं स्वस्थ जीवन बिताते हुए जीवन के चरम लक्ष्य आत्मप्राप्ति की ओर अग्रसर होते रहें। यहाँ भोग और योग का प्रवृत्ति एवं निवृत्ति का समन्वय है। यहाँ भोग भी योग बन जाता है एवं साधारणतया बन्धन करने वाला संसार स्वयं मोक्ष का साधन बन जाता है।'
निषेधात्मक जोवन-दर्शन का मार्जन:- इस जीवन-दर्शन का महत्व तब और भी प्रखर रूप से सामने आता है जब हम इसे ऐसे जीवन-दर्शनों के समकक्ष रखकर विचार करते हैं, जिनमें जीवन एवं जगत् को नकारा गया है तथा आत्म- प्राप्ति के लिए संसार के त्याग (संन्यास) की शिक्षा दी गई है। उदाहरण के लिए बेदों (उपनिषदों) को आधार मानकर चलने वाला बद्वैत वेदान्त दर्शन यह मानता है कि परम-तत्त्व ब्रह्म (आत्मा) वस्तुतः निष्क्रिय तत्त्व है; वह स्वयं में कुछ भी नहीं करता, सारा सृष्टि-व्यापार ब्रह्म पर अविद्या (या माया) के द्वारा आक्षिप्त (super-imposed) है। दूसरे शब्दों में, अविद्या के कारण पैदा हुआा संसार ब्रह्म ( जो हमारा वास्तविक स्वरूप है) के ऊपर पड़ा हुआ पर्दा अथवा अवरोध है।
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