आमुख
काशीस्थ मनीषियों ने वेदान्त के प्रसार तथा प्रचार के निमित्त जो कार्य किया, वह वेदान्त के इतिहास में सुवर्णाक्षरों से अंकित करने योग्य है । तथ्य तो यह है कि वेदान्त की सार्वभौम मौलिक रचनाओं के निमित्त दार्शनिक समाज काशी के विद्वानों का चिरऋणी रहेगा । इस अभिनव प्रयास में विरक्त संन्यासियों तथा अनुरक्त गृहस्थों दोनों का सम्मिलित योगदान सर्वदैव श्लाघनीय तथा स्मरणीय रहेगा।विद्वान् संन्यासियों का योगदान अधिक होने से निःसन्देह मननीय तथा माननीय है । इनके रचनाकलाप का अनुशीलन करने से एक विशिष्ट तथ्य की अभिव्यक्ति होती है और वह है ज्ञानमार्गी गन्धों के प्रणयन के साथ ही भक्तिमार्गी ग्रन्थों का निर्माण । यह तथ्य कतिपय संन्यासियों की रचनाओं के द्वारा ही परिस्फुटित होता है अवश्य, परन्तु इसका अपलाप कथमपि नहीं किया जा सकता । अद्वैतसिद्धि के प्रणेता श्री मधुसूदन सरस्वती एक साथ ही प्रौढ़ दार्शनिक तथा सहृदय भक्त दोनों थे । अद्वैतसिद्धि जैसे प्रमेयबहुल तार्किक ग्रन्थ के निर्माण का श्रेय जहाँ उन्हें प्राप्त है, वहीं भक्तिरसायन जैसे भक्तिरस के प्रतिष्ठापक ग्रन्थ की रचना का गौरव भी उन्हें उपलब्ध है । नारायणतीर्थ का भी वैदुष्य इसी प्रकार का था । जहाँ उन्होंने वेदान्त, सांख्य, योग तथा न्याय वैशेषिक के विषय में गन्धों का निर्माण किया, वहीं शांडिल्यकृत भक्तिसूत्र की भी भक्तिचन्द्रिका नाम्नी अपूर्व व्याख्या की रचना की जिसमें भक्तिशास्त्र के महनीय सिद्धान्तों का परिष्कार बड़े कौशल तथा वैशद्य से किया गया है । इसे काशीस्थ संन्यासियों का वैशिष्टय मानना कथमपि अनुचित न होगा और लेखक की दृष्टि में श्रीमद्भागवत में अद्वैत के साथ भक्ति का मञ्जुल समन्वय प्रस्तुत किया गया है । भागवत दोनों के साहचर्य तथा सामरस्य का प्रतिपादक तथा गम्भीरार्थद्योतक दिव्य ग्रन्थ है जिसके अध्ययन से अद्वैतवादी संन्यासियों का दार्शनिक सिद्धान्त भक्तिरस से स्निग्ध तथा मञ्जुल है । काशी के अद्वैती संन्यासियों की यह परम्परा आज भी जागरूक है । आज भी करपात्रीजी महाराज की, जहाँ कट्टर अद्वैत के प्रतिपादन में तार्किक बुद्धि का विलास मिलता है, वहीं रासपज्चाध्यायी के विशद अनुशीलन में तथा भक्तिरसार्णव जैसे भक्तिरस के संस्थापक ग्रन्थ के निर्माण में उनका भक्तिरसाप्लुत स्निग्ध हृदय भी अभिव्यक्त होता है ।
आदि शङ्कराचार्य ने काशी को अपनी कर्मस्थली बनाकर उसे गौरव ही प्रदान नहीं किया अपितु उस प्राचीन परम्परा का भी अनुसरण किया जो विद्वानों से अपने काशी के विद्यारत्न संन्यासी सिद्धान्तों के परीक्षण तथा समीक्षण के लिए काशी में आने के लिए आग्रह करती थी । आचार्य शंकर ने अपने कन्धों का निर्माण कहाँ किया, इस प्रश्न के उत्तर में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है । कुछ तो बदरीनाथ के पास व्यास गुहा को भाष्यों की रचना का स्थल मानते हैं, परन्तु अधिकतर आलोचक काशी को इसके लिए गौरव प्रदान करते हैं । जो कुछ भी हो, काशी में वेदान्त भाष्य के अध्ययन अध्यापन का कार्य अवश्य ही सुसम्पन्न हुआ । फलत काशीस्थ विद्वानों का अद्वैत के प्रति दृढ़ आग्रह और अद्वैतविषयक मथो के प्रणयन के प्रति नैसर्गिक निष्ठा बोधगम्य है । यहाँ विशिष्ट वेदान्त तत्त्वझ संन्यासियों का ही संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है । चतुर्दशशती के वेदान्तज्ञ संन्यासियों में स्वामी ज्ञानानन्द का विशिष्ट स्थान था । उनके प्रधान शिष्य प्रकाशानन्द ने वेदान्त सिद्धान्त मुक्तावली नामक अपूर्व ग्रन्थ का निर्माण किया । यह एकजीववाद का प्रतिपादक ग्रन्थ है । वेदान्त के दो प्रख्यात सम्प्रदाय हैं (क) सृष्टि दृष्टिवाद तथा (ख) दृष्टि सृष्टिवाद । प्रकाशानन्द का ग्रन्थ इसी द्वितीय मत का प्रतिपादक तथा गम्भीर विवेचक है । इस ग्रन्थ की रचना सेदो शताब्दी पीछे षोडशशती में अनेक वेदान्त मर्मज्ञ संन्यासियों ने काशी को अलंकृत किया जिनमें नृसिंहाश्रम, मधुसूदन सरस्वती, नारायण तीर्थ तथा ब्रह्मानन्द सरस्वती का नाम विशेषरूपेण उल्लेखनीय है । नृसिंहाश्रम उस युग के परम प्रसिद्ध तथा आदरणीय संन्यासी थे । वे अपने को वेदान्तसिद्धान्त साराभिज्ञ कहकर उल्लिखित करते हैं । वे पहले नर्मदा तट पर रहते थे । बाद में काशी आकर निवास करने लगे थे । उनकी वेदान्तविषयक अनेक रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें प्रधान हैं भावप्रकाशिका (प्रकाशात्मदेव रचित पज्वपादिका विवरण की टीका), वेदान्ततत्त्वविवेक तथा उसकी टीका दीपन (रचनाकाल मूलग्रन्थ का १६०४ वि क् १५४७ ई ), तत्त्वदीपन ( अभेदरत्न की टीका), भेदधिक्कार ( भेदवाद का खण्डन) । उनके उपास्यदेव नृसिंहदेव थे । वे सम्भवत काञ्वी के निवासी थे । उनके ऊपर अप्पय दीक्षित की असीम श्रद्धा थी और उनके कहने पर अप्पय दीक्षित ने शैव मत का त्याग कर वेदान्त का आश्रय लिया । नृसिंहाश्रम के शिष्य भारत के अनेक राज्यों में फैले हुए थे । अप्पय दीक्षित भी काशी में इसी शती में विद्यमान थे, परन्तु यहाँ निवास करते समय उन्होंने किन गन्धों का प्रणयन किया था, इस विषय में अनुसन्धान की अपेक्षा है ।
विषयानुक्रम
1
श्री गौड़ स्वामी
2
श्री तैलंग स्वामी
8
3
स्वामी भास्करानन्द सरस्वती
15
4
स्वामी मधुसूदन सरस्वती
33
5
श्री देवतीर्थ स्वामी
36
6
स्वामी महादेवाश्रम
53
7
स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती
62
स्वामी ज्ञानानन्द
83
9
स्वामी करपात्रीजी
90
10
दतिया के स्वामीजी
106
11
स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
117
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