झील-गीतों की श्रृंखला में 'करो मत झील तुम कलुषित' शीर्षक से सम्पन्न यह तृतीय झील-गीत संग्रह आपके समक्ष रखते हुए मुझे अपार खुशी की अनुभूति हो रही है। झील शब्द ही जीवन का प्रतीक है, यह जीवन की गतिशीलता और उसमें छिपी अक्षय शक्ति और ताजगी का भी प्रतीक है। कविता में झील का आना अपने आप में यह संकेतित करता है कि चतुर्दिक व्याप्त हाहाकार, संघर्ष और युद्ध के बावजूद जीवन में अभी भी सौन्दर्य, नैतिकता, सत्यनिष्ठा, परमार्थ और संवेदनापूर्ण आचरण के लिए जमीन बाकी है। यद्यपि इन्सान ने धरती को बेतरह रौंदा है, लूटा है, उसका गला घोंटकर दोहन किया है, लेकिन इन सबके बावजूद धरती बंजर नहीं हुई है। यहाँ पर रुदन के लिए कोई स्थान नहीं है जैसा आंग्लभाषा के कवि टामस स्टर्न इलियट के 'द वेस्ट लैंड' में निराशा, हताशा और मृत्यु की आकांक्षा का दर्शन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात लिखी गई कविता में हमें मिलता है। झील-गीतों का कवि दुनिया से जब भी निराशा होता है वह झील के पास जाकर उससे बात करके सुकून हासिल करता है। झील उसके सभी प्रश्नों का जवाब लेकर उसके समक्ष उपस्थित होती है। वह उसे अपने साथ नौकायन के लिए ले जाती है, अपने अमृततुल्य जल से उसकी प्यास बुझाती है, उसे जीवन जीने का मन्त्र देती है, वह उसका मुरीद बन जाता है, भक्त बन जाता है। वह झील-गीत गाने लगता है-
बहोत कोमल हृदय इसका, पिघलती मोम सी पल में मगर जब सख्त होती है, शिलाओं को मसलती है हमारी झील का सौन्दर्य, अनुपम है इस धरती पर सभी कौमें इस दुनिया की, इसे पावन समझती हैं।
(करो मत झील तुम कलुषित)
कवि की झील दुनिया की झीलों से अलग है, उसमें दिव्यता समाहित है, वह धरती से अम्बर तक फैली हुई है, उसका उद्गम अज्ञात है, वह मनुष्य को उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत करती है। यह झील मनुष्य की व्यावसायिकता के कारण प्रकृति दोहन से उत्पन्न संकट पर प्रश्न खड़ी करती है। वह सौदागर मानसिकता पर व्यंग्य करती है, ऐसे लोगों को अपना पवित्र जल स्पर्श करने से साफ इनकार करती है क्योंकि वह जो कुछ भी करती है सेवा भाव से करती है, परमार्थ भाव से करती है, वह तिजारत नहीं जियारत को जीवन में सुखी रहने की कुंजी समझती है-
मगर कुछ लोग ऐसे हैं यहाँ, नापाक दिल वाले जिन्हें इस झील की यह शुद्धता, नागवार लगती है अगर उनकी चले तो झील का जल, बेच डालें वे ख़ुदा का शुक्र है यह झील उनसे दूरी रखती है नहीं आ सकते सौदागर, हमारी झील की अपनी कभी जुदा, भी झील के तट पर दुनिया में हस्ती है!
झील-गीत लिखने में मुझे जिस आनन्द की अनुभूति हुई है वह वर्णनातीत है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि इन झील गीतों की प्रेरणास्त्रोत वह अनन्त झील है जो पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, जिसमें सब कुछ पावन है, जिसमें स्वच्छता है, जिसमें निर्मलता है, जिसमें सत्यम् शिवम् सुन्दरम् समाहित है, जिसका स्पर्श समस्त वेदनाओं और व्याधियों से तुरन्त मुक्ति दिलाने में सक्षम है।
झील-गीतों की भाषा में मैंने उर्दू के शब्दों का भी यथास्थान प्रयोग किया है। कविता में लयात्मकता और भाव सम्प्रेषण के लिए कवि को अपनी भाषा और शब्दावलियाँ चुनने का अधिकार सुरक्षित रहता है, वह अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार किसी भी भाषा के शब्द का प्रयोग करने के लिए स्वतन्त्र होता है। ग़ज़ल शैली में लिखे गये ये झील-गीत वस्तुतः ग़ज़ल नहीं ग़ज़लनुमा हिन्दी गीत हैं। जिस तरह अंग्रेजी भाषा में इटैलियन सॉनेट ने आकर अपना अलग स्वरूप अख्तियार कर लिया, उसी तरह ग़ज़ल ने भी उर्दू से हिन्दी में प्रवेश करके अपना वजूद केवल स्वरूप तक ही रखा है, उसकी शैली में हिन्दी-भाषा की गीतात्मकता प्रवाहित होकर उसे हिन्दी गीत की लयात्मकता और शिल्पगत सौन्दर्य प्रदान करते हुए उसे मधुर गीत में परिणत कर देती है।
झील-गीतों के माध्यम से मैंने यह सन्देश देने की कोशिश की है कि मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए प्रकृति पर ही मूलतः निर्भर है अतः उसको प्रकृति के साहचर्य में ही रहते हुए अपनी जिन्दगी की खुशियाँ तलाशनी होंगी। वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग प्रकृति को न्यूनतम क्षति पहुँचाते हुए करना होगा। मनुष्य यन्त्र नहीं, संवेदनाओं का पुंज है और इसलिए बिना नैतिक मूल्यों के संरक्षण के वह अपना अस्तित्व ही विनाश के घेरे में ले जाकर अपनी पहचान नष्ट कर लेगा, वह पशु से भी अधम होकर अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य होगा। सिर्फ पेट का पोषण करना उसे जानवर तुल्य ही बना देगा जैसा वस्तुतः दर्शनीय है और जिसकी शुरुआत हो चुकी है। यदि इन्सान के भीतर से नैतिक मूल्य, संस्कार और मनुष्यत्व के मूल गुणों का लोप हो जायेगा तो वह अन्ततः पशु में तब्दील होकर एक दिन दुनिया से खत्म हो जायेगा।
ये झील गीत मेरे हृदय के बेहद करीब हैं इसलिए मुझे प्रिय हैं। आशा ही नहीं अपितु विश्वास भी है कि ये गीत आपको अवश्य पसन्द आयेंगे।
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