संस्मरण लिखना, अतीत के पन्नों को पलटने जैसा है। साथ ही यादों को दोहराना भी कह सकते हैं। हर व्यक्ति की जीवन यात्रा में सुखद और दुःखद घटनाएं होती हैं। साथ ही समय-समय पर साथियों से मुलाकातें भी होती हैं। संस्मरण लिखते हुए उन्हें महसूस करने की चाहत और शिद्दत भी होती है। यायावरी से मेरा पुराना सम्बंध रहा है। साहित्य और आंदोलन से जुड़ने के बाद उनमें विस्तार भी होता गया। कभी स्वयं के कारण तो कभी अन्य कुछ कारणों से। इस दौरान गांव/कस्वा/शहर और महानगरों में कुछ साथियों से मिलना हुआ। उनमें लेखक भी थे और पत्रकार भी। सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ अधिकारी भी। इस दौर में राजनीतिज्ञों से भी मिलना हुआ। यहां तक कि जेल में अधिकारियों के साथ कैदियों से भी मुलाकातें हुईं।
मैं आरंभ से ही राहुल सांकृत्यायन जी का प्रशंसक रहा हूँ। उनके द्वारा लिखी चार-पांच किताबें भी पढ़ी। मेरे मन में भी इच्छा जागृत हुई अपनी बस्ती, शहर, राज्य और देश से बाहर जाकर उस दुनिया को देखा जाए जो मेरे सपनों में थी। तभी से स्पेश खुलता गया और साथी मिलते गए। लेखक को तो प्रेरणा चाहिए और जब प्रेरणा मिलती है तो कवि, कथाकार घुमक्कड़ बन जाता है। जैसे राहुल सांकृत्यायन बने।
मेरठ में रहते हुए आरंभिक दौर में भीम सैनिक अखबार के लिए लिखना हुआ। फिर दैनिक प्रभात, मयराष्ट्र आदि के बाद, निर्णायक भीम पत्रिका, कानपुर से आर. के कंरजिया के साप्ताहिक अखबार 'ब्लिट्ज और दिल्ली से प्रकाशित धम्म-दर्पण आदि में' लिखा। इस तरह नए-नए अखबारों को लायब्रेरी में जाकर पढ़ना, नए साथियों से मिलना, किताबें पढ़ना, आंदोलन में शामिल होना। आम और खास लोगों से मुलाकातें होना। कभी-कभी उनसे साक्षात्कार भी लेना। बाद में दिल्ली आने पर अन्य राष्ट्रीय अखबारों से जुड़ना हुआ।
संस्मरण लिखते हुए लेखक के भीतर बहुत कुछ उभरता है। हमारे अतीत के साथ सिर्फ इतिहास और संस्कृति ही नहीं, भूगोल भी। यहां तक राजनीति के चित्र भी उभरते हैं। जो हमारे भीतर बाहर होते हैं। हमारी रुचियां और अभिरुचियां, हमारे दूसरों से सम्बन्ध, उन सम्बन्धों में मिठास के साथ कड़वाहट भी।
पानी हमारी आरंभ से जरूरत थी और आज भी है। पानी के लिए बाबा साहेब ने महाड़ आंदोलन भी किया था। आजादी के बाद से घटते पानी और सूखते तालाबों पर आंदोलन के रूप में गंभीरता से काम किया था अनुपम मिश्र ने। वे आज भी हमें याद आते हैं।
अनुपम मिश्र गांधी शान्ति प्रतिष्ठान से दशकों तक जुड़े रहे। इसी तरह से इंदिरा गोस्वामी लेखक होने के साथ प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता थी। पहाड़ी और घाटियों में बारुद की गंध उन्हें रास नहीं आती थी। इसलिए भी उन्होंने शान्ति के लिए प्रयास किये। सुजाता भी ऐसी ही मेरी साथी थी, जो हम सभी को छोड़कर चली गई। सामाजिक कार्यों के लिए प्रतिबद्ध साथी। ऐसे कितने साथी रहे हैं। उनमें राजपाल सिंह राज और वरिष्ठ साथी भगवान दास। उनके साथ ही मैकूराम, पुलिस सेवा में उच्च अधिकारी। मीनक्षी मून और उनके जीवन साथी वसंत मून, ये सभी बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के कारवां के साथी थे जो एक के बाद एक कर चले गए।
जाना सभी को होता है। प्रकृति का यही नियम है। बिहार के पहले दलित मुख्य मंत्री भोला पासवान शास्त्री भी हमारी स्मृति में हैं। जिनकी ईमानदारी का कोई सानी नहीं रहा। उनके बारे में कहा गया है कि वे अपना मकान तक नहीं बनवा सके थे। जिज्ञासा स्वरूप मैं उनके गांव ही नहीं उनके घर तक भी गया था।
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