हमारे परम आराध्य नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की असीम कृपा से 'काम, क्रोध, लोभ... (नरक के द्वार...)' नामक इस पुस्तक को श्रद्धालु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मैं अपार प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ।
भौतिक जगत एक दुःखालय है, जहाँ प्रत्येक जीव किसी न किसी कारणवश दुखी रहता है। पति-पत्नी एक-दूसरे से दुखी हैं, माता-पिता अपनी संतान से दुखी हैं, अधिकारी कर्मचारी से दुखी हैं, प्रेमिका प्रेमी से दुखी है, वरिष्ठजन कनिष्ठों से दुखी हैं, सभी किसी न किसी के कारण दुखी हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि सभी लोग किसी दूसरे जीव से नहीं अपितु काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सर्य से दुखी हैं। स्त्री अपने पति से ऊँची अपेक्षाएँ रखती है अतः वह दुखी है, अधिकारी को अधिक धन एवं प्रतिष्ठा का लोभ है अतः वह कर्मचारी द्वारा कार्य का भली प्रकार निष्पादन न होने के कारण दुखी है, माता-पिता को संतान से मोह के कारण दुःख है, कनिष्ठ द्वारा उचित सम्मान न दिये जाने के कारण वरिष्ठजन के मद को चोट पहुँचती है इसलिए वरिष्ठजन दुखी हैं, आदि-आदि। दुःख किसी भी प्रकार का हो, उसकी जड़ केवल इन छः में से ही एक हो सकती है- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद व मात्सर्य। ये छहों हमारे मानसिक भाव हैं, जिन्हें शास्त्रों में मानसिक विकार भी कहा गया है। ये विकार हमें इस सुंदर जीवन को सुख-शांति से जीने नहीं देते। जो जीवन हमें भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति के लिए मिला है उसे हम इन विकारों द्वारा प्रभावित होकर कलह करने में व्यर्थ गँवा देते हैं।
विडम्बना यह है कि हमें कभी यह अनुभव ही नहीं हो पाता कि हमारा शत्रु अन्य कोई नहीं अपितु हमारी चेतना में ही छिपकर बैठे हुए ये छहों हैं, जो अवसर प्राप्त होते ही हमें अपने चंगुल में फँसा लेते हैं और तब हम एक मूर्ख प्राणी की भाँति कार्य करते हैं जैसे एक गधा। आज आधुनिक समाज में शास्त्रों का, जो इन शत्रुओं पर नियंत्रण रखने का सुगम मार्ग सुझाते हैं, अनुगमन कोई नहीं करता वरन् उन्हें अप्रचलित मानकर उनका तिरस्कार किया जाता है। प्रस्तुत पुस्तक में हमने सरलतापूर्वक एवं व्यावहारिक उदाहरण देते हुए यह बताया है कि ये छहों विकार हमारे वास्तविक शत्रु हैं और किस प्रकार ये हमें फँसाते हैं तथा दुःख देते हैं। हमारे शास्त्रों में इन विकारों से निपटने के सरल एवं सटीक मार्ग बताए गए हैं। शास्त्र, हमसे किसी प्रकार का शुल्क लिए बिना यह ज्ञान देते हैं जिससे हम सदैव सुखी रह सकते हैं। इस ज्ञान को ही हमने सरलतापूर्वक इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है और हमारा दृढ़विश्वास है कि यहाँ दिये गए समाधानों के अनुगमन से आप अपने जीवन में निश्चित ही परिवर्तन का अनुभव कर सकेंगे और एक उत्तम व व्यवस्थित जीवन का निर्वाह करेंगे।
इस पुस्तिका के लेखक जो श्रील प्रभुपाद के परम प्रिय शिष्य हैं, श्रीमान् क्रतु दास जी का जन्म 5 जुलाई 1944 को लाछरस गाँव, गुजरात, भारत में हुआ। अपने मातृक गाँव में जन्म लेने वाले लेखक का परिवार वैष्णव था। लेखक की माताजी श्रीमती शांताबेन और पिताजी श्रीमान् भवानभाई, ने जन्म से ही उन्हें कृष्णभावनाभावित होने का सुअवसर प्रदान किया और उन्हें कृष्ण भक्ति के मार्ग पर अग्रसर किया। उनकी माताजी ने उन्हें बचपन से ही सभी वैदिक ग्रंथों, यथा महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत का गहन अध्ययन करवाया। उनके पिताजी उन्हें कृष्ण कथा और भजनों का आस्वादन करवाते थे और उनके दादाजी प्रतिदिन उन्हें भगवान् श्रीराम के विग्रह के दर्शन के लिए मंदिर लेकर जाते थे। लेखक में बचपन से ही नेतृत्व के गुण थे। वह वाकल हाई स्कूल, मोभा रोड, वडोदरा, गुजरात छात्र संघ के अध्यक्ष थे। वडोदरा से सिविल इंजीनियरिंग पूर्ण करने के बाद उन्होंने सन् 1972 में अमेरिका की सेंट लुइस यूनिवर्सिटी से मास्टर्स ऑफ साइंस की डिग्री प्राप्त की।
सन् 1968 में उन्होंने श्रीमती अमृतकेलि देवी दासी से विवाह किया, जो स्वयं एक धार्मिक महिला हैं एवं भगवान् श्रीकृष्ण की समर्पित भक्त हैं। ये दोनों सन् 1970 में इस्कॉन के संपर्क में आये एवं सन् 1974 से टोरंटो इस्कॉन मंदिर में पूर्णकालीन सेवक बने। सन् 1976 में उन्हें श्रील प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए एवं उन्होंने लेखक एवं माताजी को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार करते हुए आशीर्वाद दिया। अगले ही वर्ष उन्होंने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा प्राप्त की।
अमेरिका एवं कनाडा में एक सफल सिविल इंजीनियर के पद पर कार्यरत होते हुए भी वे कभी पश्चिमी सभ्यता से आकर्षित नहीं हुए। श्रील प्रभुपाद से प्रेरित होकर लेखक ने अपने इंजीनियर पद का त्याग कर दिया और इस्कॉन के पूर्ण उपासक बन गए। वे सुबह-शाम प्रचार कार्यों एवं अन्य सेवाओं में व्यस्त रहने लगे। वे टोरंटो, शिकागो एवं वैंकूवर मंदिर के सामूहिक प्रचार कार्यों के संचालक थे। सन् 1987 में वे इस्कॉन बैंकूवर मंदिर के अध्यक्ष बने। उन्होंने बैंकूवर एवं वेस्ट वर्जिनिया में न्यू वृंदावन मंदिर के निर्माण में भी सिविल इंजिनियर की भूमिका निभाई।
पश्चिमी देशों में लम्बे समय तक प्रचार करने के उपरान्त, श्रीमान् क्रतु दास जी सन् 1993 में भारत लौट आये एवं गुजरात में प्रचार करने लगे।
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