*के हिं.सं.' गवेषणा पत्रिका का यह अंक (137वाँ) संगोष्ठी विशेषांक के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है। केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के अनुसंधान एवं भाषा विकास विभाग एवं पूर्वोत्तर शिक्षण सामग्री निर्माण विभाग द्वारा दिनांक 28 एवं 29 मार्च, 2024 को "बहुभाषिक परिवेश में मातृभाषा शिक्षणः चुनौतियाँ एवं संभावनाएँ" विषय पर आयोजित की गई। जिसमें देशभर से आए विद्वानों ने "बहुभाषिकता और भाषा शिक्षण का वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य, बहुभाषा-भाषी भारत में भाषा नीति और भाषा नियोजन, भारतीय बहुभाषिक परिवेश में भारतीय भाषाएँ एवं लिपि व्यवस्था, भाषा शिक्षण के विविध आयाम और मातृभाषा शिक्षण विषय पर अपने विचार व्यक्त किए।
भाषा और बोली किसी भी समुदाय के ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत, ज्ञान परंपरा सामुदायिक प्रतिभा एवं कौशल गाथा की पोषक एवं सहायक संवाहक मानी जाती है। इनके माध्यम से हम भावी पीढ़ी एवं आगामी पीढ़ी को गौरवशाली भविष्य के लिए तैयार कर सकते हैं। विचारों के आदान-प्रदान के लिए व्यक्ति का बहुभाषी होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। विश्व की अन्य भाषाओं में संयोजकर रखी हुई धरोहर में तभी साझीदार बना जा सकता है। जब हम उन भाषाओं की अर्थछटाओं को पहचानने में समर्थ हो। यह सामर्थ्य परस्पर संवाद से धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। इसलिए भाषा कहें या बहुभाषिकता यह एक ऐसा अस्त्र है। जिससे दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर व्यक्ति अपने को अकेला एवं असहाय महसूस नहीं करता है। भाषा से तात्पर्य केवल संप्रेषणता मात्रा ही नहीं है बल्कि भाषा का मुख्य कार्य समाज के विभिन्न समुदायाओं के साथ संबंध स्थापित करना है, इस बात से यह स्पष्ट है भाषा और समाज में एक अटूट संबंध है। वर्तमान में भारत में आर्य, द्रविड़, आस्ट्रो-एशियाटिक, तिब्बत-वर्मन एवं अन्य भाषा परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं। कोई भी व्यक्ति एक भाषी नहीं होता है, प्रत्येक व्यक्ति बहुभाषी होता है, और कोई भी भाषा शुद्धता में एक भाषा नहीं होती है। उसमें बहुत सारी भाषाओं के बीच संवाद होता रहा है। इसी तरह से भाषाएँ बनती और विकसित होती रहती हैं। टेक्नोलॉजी के प्रयोग ने भाषा को एक ग्लोबल विलेज बना दिया है।
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