अनेक बार ऐसे प्रश्नो, शंकाओ और उलझनों से हमारा वास्ता पड़ता है जिनका समुचित समाधान किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नही है| ऐसी उलझनें शास्त्रज्ञान होने पर भी शास्त्र के मूलस्वर को बारीकी से न पकड़ पाने के कारण ही उत्पन्न होती है| वराहमिहिर ने ज्योतिषी की मौलिक योग्यताए बताते हुए कहा है कि दैवज्ञ को 'न पर्षद भीरु' और 'पृष्टाभिधायी' होना चाहिए | अर्थात वह सभा में बैठे हुए जिज्ञासुओ द्वरा प्रश्न पूछने पर आंखे न चुराने वाला और पूछे गए प्रश्नों का समुचित उत्तर देकर उनकी शंकाओ का समाधान करने वाला हो | ग्रन्थ में 200 से अधिक ऐसे ही प्रश्नों का समाधान है, जिससे सामान्य विद्यार्थी भी सभा सेमिनार में अपनी धाक जमा सकता है | कुछ प्रश्नों का संकेतमात्र प्रस्तुत है- • 1 ग्रह हमसे बहुत दूर होने पर भी पृथ्वीवासियो पर अपना कोई प्रभाव कैसे डाल सकते है ? • 2 नक्षत्रों के स्वामी ग्रह हैं या देवता ? प्रचलित नक्षत्रपति मानने पर क्या और कहाँ विरोध पैदा होता हैं ? • 3 क्या तिथि, योग व कारणों के देवता भी जातक पर अपना प्रभाव रखते हैं ? • 4 क्या फलित ज्योतिष में अंकविद्या का प्रयोग कर सकते हैं ? • 5 पाराशरी होरा में कई शापो का उल्लेख हैं | शाप से क्या तात्पर्य हैं और इनका प्रभाव होता हैं क्या ? • 6 जन्म समय का निर्धारण कैसे करें ? तेहरवीं राशि क्यों नहीं ? • 7 क्या वक्री ग्रह उल्टा देखता हैं ? उच्च वक्री ग्रह का फल कैसे ? • 8 नीचभंगराजयोग, विपरीत राजयोग, पंचमहापुरुषयोग, कालसर्पयोग वास्तव में कितने सही हैं ? • 9 'कारको भाव नाशाय' ' स्थानहानिकरो जीवः स्थानवृद्धिकरः शनि' कि शक्ति और सीमा ? • 10 क्या दशा व वर्षफल में साल 360 दिन का हैं ?
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