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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया (पंच महाव्रत पर प्रवचन): Jyon Ki Tyon Dhari Chadariya

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Item Code: NZA639
Author: Osho Rajneesh
Publisher: OSHO MEDIA INTERNATIONAL
Language: Hindi
Edition: 2019
ISBN: 9788172610616
Pages: 316 (10 B/W illustrations)
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 inch X 6.0 inch
Weight 560 gm
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Book Description
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पुस्तक के विषय में

ज्यों की त्यों धरि दोन्हीं चदरिया

इस पुस्तक में ओशो आत्म-जागरण के उन पांच वैज्ञानिक उपकरणों पर चर्चा करते हैं जिन्हें पंच-महाव्रत के नाम से जाना जाता हैअहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम व अप्रमाद ।

ये पंच-महाव्रत जब ओशो की रसायन शाला में आते हैं तो ओशो अप्रमाद यानि होश, अवेयरनेस को बाकी चार से अलग कर लेते है और उसे विस्तीर्ण रूप से समझाते हुए एक मास्टर की हमें थमा देते है जिससे बाकी चार ताले सहज ही खुल जाते हैं ।

ओशो कहते हैं अप्रमाद साधना का सूत्र है अप्रमाद साधना है । अहिंसा-वह परिणाम है, हिंसा स्थिति है । अपरिग्रह-वह परिणाम है, परिग्रह स्थिति है । अचौर्य-वह परिणाम है, चोरी स्थिति है । अकाम-वह परिणाम है, कामवासना या कामना स्थिति है । इस स्थिति को परिणाम तक बदलने के बीच जो सूत्र है, वह है- अप्रमाद, अवेयरनेस, रिमेंबरिंग, स्मरण।

अहिंसा

 हिंसा का मतलब है ऐसा चित्त, जो लड़ने को आतुर है; ऐसा चित्त, जिसका रस लड़ने में है; ऐसा चित्त, जो बिना लड़े बेचैन हो जाएगा; ऐसा चित्त, जो बिना किसी को चोट पहुंचाए बिना किसी को दुख: पहुंचाए सुख अनुभव न कर सकेगा ।

स्वभावत: जो चित्त दूसरे को दुख पहुंचाने को आतुर है, या जिस चित्त का दूसरे को दुख पहुंचाना ही एकमात्र सुख बन गया है, ऐसा चित्त सुखी नहीं हो सकता । ऐसा चित्त भीतर गहरे में दुखी होगा ।

एक बहुत गहरा नियम है कि हम दूसरे को वही देते हैं जो हमारे पास होता है; अन्यथा हम दे भी नहीं सकते । जब मैं दूसरे को दुख देने को आतुर होता हूं तो उसका इतना ही अर्थ है कि दुख मेरे भीतर भरा है और उसे मैं किसी पर उलीच देना चाहता हूं । जैसे, बादल जब पानी से भर जाते है, तो पानी को छोड़ देते है जमीन पर; ऐसे ही, जब हम दुख से भीतर भर जाते हैं, तो हम दूसरों पर दुख फेंकना शुरू कर देते हैं ।

जो कांटे हम दूसरों को चुभाना चाहते हैं, उन्हें पहले अपनी आत्मा में जन्माना होता है; उन कीटों को हम लाएंगे कहां से और जो पीड़ाएं हम दूसरों को देना चाहते है, उन्हें जन्म देने की प्रसव-पीड़ा बहुत पहले स्वयं को ही झेल लेनी पड़ती है। और जो अंधकार हम दूसरों के घरों तक पहुंचाना चाहते है, वह अपने दीये को बुझाए बिना पहुंचाना असंभव है ।

अगर मेरा दीया जलता हो और मैं आपके घर अंधकार पहुंचाने जाऊं, तो उलटा हो जायेगा मेरे साथ आपके घर में रोशनी ही पहुंचेगी, अंधकार नहीं पहुंच सकता!

जो व्यक्ति हिंसामेंउत्सुक है, उसने अपने साथ भी हिंसा कर ली है-वह कर चुका है हिंसा । इसलिए एक सूत्र और आपसे कहना चाहूंगा, और वह यह कि हिंसा आत्महिसा का विकास है । भीतर जब हम अपने साथ हिंसा कर रहे होते है, तब वही हिंसा ओवरफ्लो होकर, बाढ़ की तरह फैलकर, किनारे तोड़कर स्वयं से दूसरे तक पहुंच जाती है । इसलिए हिंसक कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता, भीतर अस्वस्थ होगा ही । उसके भीतर हार्मनी, सामंजस्य, संतुलन, संगीत नहीं हो सकता । उसके भीतर विसंगीत, द्वंद्व, कांफ्लिक्ट, संघर्ष होगा ही । वह अनिवार्यता है । जो दूसरे के साथ हिंसा करना चाहता है, उसे अपने साथ बहुत पहले हिंसा कर ही लेनी पड़ेगी । वह पूर्व तैयारी है।

इसलिए हिंसा मेरे लिए अंतर्द्वंद्व है । दूसरे पर फैलकर दूसरों का दुख बनती है और अपने भीतर जब उसका बीज अंकुरित होता है और फैलता है, तो स्वयं के लिए द्वंद्व और अंतर-संघर्ष, और अंतर-पीडा बनती है । हिंसा अंतर-संघर्ष, अंतर-असामंजस्य, अंतर-विग्रह, अंतर-कलह की स्थिति है । हिंसा दूसरे से बाद में लड़ती है, पहले स्वयं से ही लड़ती और बढ़ती है । प्रत्येक हिंसक व्यक्ति अपने से लड़ रहा है । और जो अपने से लड़ रहा है, वह स्वस्थ नहीं हो सकता स्वस्थ का अर्थ ही है, हार्मनी स्वस्थ का अर्थ हे जो अपने भीतर एक समस्वरता को, एकरसता को, एक लयबद्धता को एक रिदम को उपलब्ध हो गया है।

महावीर या बुद्ध के चेहरों पर संगीत की जो छाप है वह वीणा लिए बेठे संगीतज्ञों के चेहरों पर भी नहीं है । वह महावीर के वीणा रहित हाथों में है वह संगीत किसी वीणा से पैदा होने वाला संगीत नहीं, वह भीतर की आत्मा से फैला हुआ समस्वरता का बाहर तक बिखर जाना है बुद्ध के चलने में वह जो लयबद्धता है-वह जो बुद्ध के उठने और बैठने में वह जो बुद्ध की आखो में एक समस्वरता है, वह समस्वरता किन्ही कड़ियों के बीच बधे हुए गीत की नहीं किन्हीं वाद्यों पर पैदा किये गये स्वरों की नहीं-वह आत्मा के भीतर से सब द्वद्व के विसर्जन से उत्पन्न हुई है ।

अहिंसा एक अंतर संगीत है । और जब भीतर प्राण संगीत से भर जाते है, तो जीवन स्वास्थ्य से भर जाता है, ओर जब भीतर प्राण विसंगीत से भर जाते है तो जीवन रुग्णता से, डिसीज़ से भर जाता है।

यह अंग्रेजी का शब्द डिसीज़ बहुत महत्चपूर्ण है । वह डिस ईज़ से बना है जब भीतर विश्राम खो जाता है, ईज़ खो जाती है, जब भीतर सब संतुलन डगमगा जाते है, और सब लये टूट जाती है और काव्य की सब कड़ियां बिखर जाती है, और सितार के सब पार टूट जाते है, तब भीतर जो स्थिति होती है वह डिसीज़ है। और जब भीतर कोई चित रुग्ण हो जाता है, तो शरीर बहुत दिन तक स्वस्थ नहीं रह सकता है शरीर छाया की तरह प्राणों का अनुगमन करता है।

इसलिए मैंने कहा कि हिसा एक रोग है, एक डिसीज़ है और अहिंसा रोगमुक्ति हे और अहिंसा स्वास्थ्य है।

जैसे मैंने कहा, अग्रेजी का शब्द डिसीज़ महत्वपूर्ण है वैसा हिंदी का शब्द स्वास्थ्यमहत्वपूर्ण है । स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ हेल्थ नहीं होता, जैसे डिसीज़ का मतलब सिर्फ बीमारी नहीं होती स्वास्थ्य का मतलब होता है स्वयं में जो स्थित हो गया है स्वयं में जो ठहर गया है स्वयं में जो खड़ा हो गया है स्वयं में जो लीन हो गया है और डूब गया है। स्वयं हो गया है जो । जो अपनी स्वयंता को उपलब्ध हो गया है जहा अब कोई परता नहीं, कोई दूसरा नहीं कि जिससे सघर्ष भी हो सके, कोई भिन्न सदर स्वर नहीं, सब स्वर स्वयं बन गए-ऐसी स्थिति का नाम स्वास्थ्यहै।

अहिंसा इस अर्थ में स्वास्थ्य है, हिसा रोग है।

 

अनुक्रम

1

अहिंयस

1

2

अपरिग्रह

27

3

अचार्य

49

4

अकाम

69

5

अप्रमाद

91

प्रश्नोत्तर

6

अहिंसा

113

7

ब्रह्मार्च

135

8

अपरिग्रह

161

9

अचौर्य

183

10

संन्यास

206

11

अकाम

231

12

तंत्र

257

13

अप्रमाद

281

 

 

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