तुम धरातल रूपी आसमान के चमकते सितारे हो, इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम बड़े दीपक हो, ऊँचे हो, दिव्य हो किन्तु अकड़-अकड़कर जलने में क्या रखा है? होश करो मनुज टेढ़ी चालें छोड़कर सीधी चालें चलना सीखो।
तुम सम्भवतः ब्रह्माण्ड के सबसे सुरम्य प्रकाश हो, तुमसे धरती और आकाश कुछ भी नहीं छुपा है, चराचर तुम्हें श्रद्धा से नमन करता है, तुम सृष्टि के श्रृंगार हो, तुम ज्ञान, विज्ञान और प्रकाश का भण्डार हो।
आज हम जहाँ तक देखते हैं विनाश ही विनाश दिखायी पड़ता है।
तुमने आसमान में छेद कर डाला, जमीन को खोखला बना दिया, आशियानों को वीरानों में तब्दील कर दिया। अपने घर बनाने के लिए तुमने हम निरीहों के घरों को उजाड़ दिया। हमारा जल में, थल में, पहाड़ों पर सभी जगह रहना दूभर कर दिया है। तुमने जहाँ-जहाँ कदम रखे हैं, वातावरण को गन्दा ओर रुग्ण बना दिया है। पहाड़ों की सुन्दरता क्षरण पर है, जंगलों की हरियाली लुप्त होने लगी है। धरती का स्वास्थ्य तुमने बिगाड़ दिया है और उसकी सुषमा को नष्ट भ्रष्ट करने का जघन्य अपराध तुमने किया है और बिना रुके करते जा रहे हो।
सारी पृथ्वी आज तुम्हारी ओर बड़ी आशा भरी दृष्टि से निहार रही है। हम सबके पैर कब्रों में हैं। कब काल का ग्रास बन जाएँ कोई ठिकाना नहीं। एक तुम ही हो जो सबकी जान बचा सकते हो। तुम सम्भलो और सुधरो वरना वह दिन दूर नहीं जब यहाँ केवल विनाश, वीरानगी और खामोशी वास करेगी। सारी पृथ्वी वृक्षहीन, जलहीन एवं जीवनहीन हो जाएगी और इस सबकी जिम्मेदारी तुम पर होगी।
जन्म-स्थान: गाँव-अहेरा, जिला बागपत (उत्तर प्रदेश)
माता-पिता : स्व. श्री गरीबराम एवं श्रीमति लूड़ो देवी
शिक्षा: एम.ए. (अंग्रेजी, शिक्षाशास्त्र) बी.एड.
विधा : काव्य रचना, लघु कथा, कहानी, आध्यात्मिक तथा समसामयिक लेख।
प्रकाशित रचनाएँ : 'कविता बोलती है' तथा 'आंगन आंगन चांदनी' कविता संग्रहों में कविताएँ प्रकाशित • उजाले की ओर (कहानी संग्रह) क्या नारी को हीन समझा जाए? (लेख) अनेक आध्यात्मिक एवं समसामयिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित।
रुचि : लेखन, स्वाध्याय, संगीत। पुरस्कार एवं उपाधि : हिन्दी मित्र सेवा समिति दिल्ली, द्वारा काव्य सुगन्ध की उपाधि, 2012
सम्पर्क: : एस-3, बी-13, डी.एल.एफ. एक्सटेंशन - द्वितीय, साहिबाबाद, गाजियाबाद (उ.प्र.)
मनुष्य ने अपना विकास तो अवश्य किया लेकिन इस विकास के नाम पर जो विनाश होता जा रहा है वह शायद उसको दिखायी नहीं देता। सर्वप्रथम मनुष्य ने अपने पेट की भूख मिटाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना आरम्भ किया। अगर यह दौड़ केवल पेट की भूख मिटाने तक ही सीमित रहती तो कोई बात नहीं थी लेकिन अब मनुष्य अपने ऐशो-आराम और अय्याशी के लिए धरती और आकाश तक का बेदर्दी से दोहन कर रहा है। यह चिन्ता का विषय है। पेट की भूख भी बढ़कर भस्मक का रोग बन चुकी है। मनुष्य का पेट भरने का नाम ही नहीं लेता। अपना भर जाए तो अपनी सात पुश्तों तक का इन्तजाम कर लेना चाहता है। अतः झूठ, चोरी, बेईमानी व लूट किसी भी तरह से भौतिकवाद की इस अन्धी दौड़ में आगे और आगे जाना चाहता है। जिसके लिए जंगल काटे जा रहे हैं, पर्वतों को तोड़ा जा रहा है, नदियों को बांधा जा रहा है, सागर में उथल-पुथल मची है, हवा में ज़हर घोला जा रहा है। अतः तमाम जंगली जीवों में एक तरह से हा-हाकार मचा हुआ है। उनका जीवन खतरे में है।
आज मानव का अपनी आत्मा से विश्वास उठ चुका है, परमात्मा से विश्वास उठ चुका है, यदिं इसका किसी पर विश्वास है तो केवल अपने द्वारा ईजाद किए हुए क्षणभंगुर यन्त्रों पर। यह किसी मस्त पक्षी की भाँति हवा में गोते लगाया करता है, जल में किसी मछली की भाँति तैरना सीख गया है किन्तु धरती पर चलना भूल गया है। यह सबकुछ बन जाना चाहता है, सिवाय इन्सान के। अन्धकूप में किसी चरमराती डाली से लटका मानव शहद की बूंदों के स्वाद में खोया हुआ है। इसे अपने दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे होता विनाश दिखायी नहीं देता।
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