पुस्तक के बारे में
यह सरल सी कार्य पुस्तक बच्चों और बड़ी दोनों के लिए है। बच्चे इसमें दिये खिलौनों को आसानी से बना सकते हैं। शयद कहीं-कहीं पर उन्हें बड़ों की मदद की जरूरत भी पड़ सकती है। इस पुस्तक में संकलित 101 खिलौनों को बिना कुछ खर्च किये आज भी बच्चे देश के अलग-अलग हिस्सों में बनाते हैं। इन खिलौनों को बनाने मैं बच्चों कौ मजा तो आता ही है, साथ-साथ उनमें स्वयं सृजन करने का आत्मविश्वास भी पैदा होता है । इन सरल और साधारण से दिखने वाले खिलौनों में न जानै कितने ही डिजाइन के गुर और विज्ञान के सिद्धांत छिपे हैं।
सुदर्शन खन्ना पेशे से एक डिजाइनर हैं, और राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान, अहमदाबाद में पढ़ाते हैं। उनकी दूसरी पुस्तकें 'डायनैमिक फोक टॉयज़' और 'टॉयज़ एंड टेल्स' को शिक्षाविदों और डिजाइनरों द्वारा अनूठी कृतियां माना गया था । उन्हें बच्चों में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए 1995 मैं एन.सी.एस.टी.सीडी.एसटी. ने राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। वह इंटरनेशनल टॉय रिसर्च एसोसिएशन की सलाहकार समिति के सदस्य हैं। इन खिलौनों और उन्हें बनाने वाले कारीगरों पर उन्होंने कई कार्यशालाएं, गोष्ठियां और प्रदर्शनियां आयोजित की हैं। अनुवादक अरविन्द गुप्ता स्वयं इस विषय में महारत रखते हैं। यह सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् हैं और गतिविधियों के माध्यम से बच्चों में सृजन क्षमता बढाने के पक्षधर हैं।
भूमिका
खिलौनों को खेलते-खेलते तोड़ डालने से और अच्छा काम भला बच्चे क्या कर सकते हैं! शायद यही कि बच्चे उन्हें खुद बनायें । यह किताब उन खिलौनों के बारे में है जिन्हें बच्चे खुद बना सकें और बिना किसी डर के तोड़ सकें । इस किताब में सस्ते या बिना कीमत के खिलौनों संबंधी जानकारी का संकलन है । भारत के लाखों-करोड़ों बच्चे इन खिलौनों से न जाने कब से खेलते आ रहे हैं ।
इनमें से कई खिलौने तो फेंकी हुई चीजों से बन जाते हैं, बिना किसी कीमत के। पर इस तरह के कबाड़ से वनाये गये खिलौने किसी भी बात में कारखानों के महंगे खिलौनों से कम नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि खुद बनाये खिलौने बाजार के खिलौनों से कहीं अच्छे हैं। आप पूछेंगे क्यों? इस पर विस्तार से चर्चा होना जरूरी है। प्रयोग करके सीखना और रचनात्मक क्रियाएं इन खिलौनों की एक विशेष बात यह है कि इन्हें बनाने के दौरान बच्चे काम करने का सही और वैज्ञानिक तरीका सीख लेते हैं। अपने बनाये खिलौनों से खेलते हुए वे बनाते समय रह गयी कमियों को पकड़ लेते हैं । यह इसलिए कि खिलौना अगर एकदम सही हिसाब और नाप से नहीं बना तो शायद वह चलेगा ही नहीं। और अगर चला भी तो एकदम अच्छी तरह नहीं चलेगा। बच्चे खुद थोड़ी फेरबदल करके खिलौने को दुरुस्त कर सकते हैं। मान लो कि अगर बच्चा कागज की सीटी बनाये और उसमें से आवाज न निकले तो बच्चा अवश्य सोचेगा-क्या मैंने सीटी सही तरह से बनायी? फूंक मारने का तरीका तो ठीक है? क्या मैंने कागज ठीक चुना? इस तरह बच्चे 'प्रयोग' और 'रचनात्मकता' की अवधारणा से अच्छी तरह परिचित हो जाते हैं।
एक-दूसरे से सीखना इस पुस्तक में दर्शाये गये सभी खिलौने खुद बच्चों के द्वारा बनाये गये हैं। बच्चे इन खिलौनों को बनाना कैसे सीखते हैं? अक्सर वे अपनी ही उम्र के दोस्तों से सीखते हैं। कुछ खिलौने वे अपने से बड़ों से भी सीखते हैं । इस तरह वे खुद सीखते और सिखाते हैं। यह भी हो सकता है कि कभी किसी बच्चे को पूरा खिलौना बनाने और उससे खेलने का तरीका समझाना पड़े ।
विज्ञान और तकनीकी से परिचय
ये खिलौने बच्चों का विज्ञान और तकनीकी से सीधा और सहज परिचय करवाते हैं। इन खिलौनों से बच्चे सहज ही विज्ञान के कई सिद्धांतों खासकर भौतिकी के सिद्धांतों को समझ लेते हैं (खिलौनों से संबंधित वैज्ञानिक सिद्धांत अंत में परिशिष्ट के रूप में दिये गये हैं) । विज्ञान के सिद्धांतों को कई तरीकों से समझा जा सकता है-प्रयोगशाला में प्रयोग करके या आम जिंदगी के उदाहरणों का सहारा लेकर । फिर इन खिलौनों की मदद से वैज्ञानिक सिद्धांतों को जानने में क्या विशेषता है? स्पष्टतया, सीखने के इन दोनों तरीकों में काफी भिन्नता है । इन खिलौनों को बनाते व उनसे खेलते समय बच्चा विज्ञान के सिद्धांतों को प्रत्यक्ष अनुभव से समझता हे । उससे तब कुछ भी नहीं छिपा नहीं रह जाता । सीखना बच्चों पर बोझ नहीं बनता। वह खेल की मस्ती में ही बहुत कुछ सीख जाता है ।
हम खंड-3 में आने वाले हेलीकाप्टर का उदाहरण ही लें। यह खिलौना लकड़ी के फुटे (स्केल) को मजबूत धागे से बांधकर बना है । वैसे देखने में यह जरा भी हेलीकाप्टर जैसा नहीं लगता। पर जरा रुकिये । धागे का खुला सिरा पकडकर फुटे को गोल-गोल घुमाइये। आप हेलीकाप्टर की घुरयुराहट सुन सकेंगे । अब हरेक बच्चा यह जानने को उत्सुक होगा कि आखिर फुटे में से ऐसी आवाज कैसे निकलती है।
इन खिलौनों के जरिये बच्चे बड़ी सरलता से तकनीकी के बुनियादी गुर सीख जाते हें । जिन तकनीकी बातों के बारे में बच्चे जानने लगते हैं, वे हैं किसी चीज का योजनाबद्ध तरीके से, एक-एक चरण पार करते हुए निर्माण करना । चाकू कैंची, हथौड़ी जैसे साधारण औजारों का प्रयोग करना । अलग-अलग प्रकार की चीजों का उपयोग और उनके बारे में और अधिक जानकारी हासिल करना । माप-तोल की मूल अवधारणाओं और परिशुद्धता की जरूरतों को समझना ।
कुछ खिलौने खुल जाते हैं, और उनके कई अलग-अलग हिस्से हो जाते हैं । बच्चे खिलौनों को खोलना और हिस्सों को आपस में जोड़ना सीखें । अपने काम को जांचना-परखना और उसमें सुधार की संभावनाओं का पता लगाना।
डिजाइन से परिचय
खिलौनों के माध्यम से बच्चे डिजाइन के बारे में बहुत कुछ सीख सकते हैं । एक उदाहरण से शायद बात 'और स्पष्ट हो जाये । मिसाल के तौर पर खंड 3 की पवन-चरखा को ही लीजिये । इसमें एक ऐसे खिलौने की कल्पना है जो हवा की ताकत से घूम सके । चरखी ठीक काम करेगी या नहीं, यह निर्भर करता है सही कागज के चुनाव पर और बनावट के ढांचे पर । अगर कागज मोटा-पतला हुआ या पंख संतुलित न हुए तो शायद पवन-चरखी चलेगी ही नहीं । इसी तरह पहले-पहल चरखी बनाता बच्चा यह कैसे जान लेता है कि वह हवा के वेग के विपरीत ही अच्छी घूमेगी? कहीं खिलौने के आकार में ही तो यह राज नहीं छिपा है? कई बार बच्चे चरखी के पंखों पर रंगीन गोले बना देते हैं, जिससे कि चरखी का घूमना और स्पष्ट हो जाता है, और उसकी सुंदरता में चार चांद लगा जाते हैं ।
पुस्तक में कुछ ऐसे भी खिलौने हैं जिनसे हम 'डिजाइन और प्रकृति' के रिश्ते को समझ पाते हैं। ऐसा ही एक खिलौना खंड-2 में दिया गया है । इस खिलौने को हमने चींटी और पंखा मशीन का नाम दिया है । इसकी बनावट कुछ ऐसी होती है कि एक रबड़ के पेड़ के खोखले बीज में एक डंडी खड़ी होती है ' इस साबुत बीज के खोल पर कोई दरार या काट-पीट के निशान नहीं दिखते। अब सवाल यह उठता है कि बीज को बगैर तोड़े उसके अंदर का गदा कैसे निकाला 'इसका जवाब शायद आपको परी-कथा जैसा लगे, परंतु है सच । बच्चे बीज में दो छेद बनाकर उसे एक-दो दिन के लिए चींटियों की बांबी पर छोड़ देते हैं ' चींटियों के झुंड बीज के अंदर के गूदे को सफाचट कर जाते हैं । बच्चे इस खोखले बीज से खिलौना बनाते हैं । क्या यह सुनकर आश्चर्य नहीं होता। पर यह सच हे! केरल के बच्चे इस लोकप्रिय खिलौने को इसी तरह बनाते हैं। आम इंसान इस तरह के नायाब हल कैसे ढूंढ लेता है! ऐसे और कई खिलौने हैं जो बच्चों को डिजाइन के रचनात्मक पक्ष से परिचित कराते हैं । ऐसा ही एक खिलौना खंड 4 में दिया है । इसे 'सिलाई मशीन' कहा जाता है । दक्षिण भारत में नारियल के पेड़ खूब होते हैं । वहां पर यह खिलौना बहुत लोकप्रिय है। खिलौने को घुमाने पर उसमें से एकदम सिलाई मशीन जैसी टिक-टिक की आवाज आती है । इसमें एक ऐसी करतबी विशेषता है जो इसे और मजेदार बना देती है । अगर इसमें एक हरी पत्ती फंसाकर घुमाये तो टिक-टिक की आवाज के साथ ही पत्ती में बिल्कुल बखिया जैसे मे हो जाते हैं । अब ऐसी सिलाई मशीन जो टिक-टिक की आवाज करे तथा पेड़ के हरे पत्ते में असली मशीन जैसा बखिया लगाये, भला किस बच्चे को पंसद नहीं जायेगी? लोग अक्सर इन खिलौनों के बारे में कई तबाह पूछते हैं जिनका वर्णन नीचे किया गया है। सुरक्षा की दृष्टि से क्या ये खिलौने ठीक हैं? भारतीय घरों के परिवेश को ध्यान में रखते हुए ये खिलौने अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं । इन खिलौनों का सामान बच्चों के लिए कोई नया नहीं । आम घरों में बच्चे वैसे भी बोतल, ढक्कन, डिब्बे, बल्व आदि इकट्ठे करते हैं, और उनसे खेलते हैं तो इन खिलौनों से बच्चों को कौन साबड़ा खतरा हो सकता है? रही औजारों की बात, तो घर में चाकू कैंची, सुई तो होते ही हैं । अगर बच्चे इनका उपयोग नहीं भी जानते हैं तो खिलौने बनाते वक्त ठोका-पीटी, काट-छांट के दौरान वे इनका ठीक प्रयोग सीख जायेंगे । सबसे बडी बात तो यह है कि बच्चे बड़ी सावधानी और एहतियात से औजारों का उपयोग सीखते हैं! बड़ा होने के साथ-साथ यह सीखना भी जरूरी है । पर कुछ खिलौने ऐसे हैं, जिन्हें अगर बच्चे खुद बनायें तो शायद कुछ खतरा हो । मिसाल के तौर पर कुछ खिलौनों में ब्लेड और तीर-कमान का इस्तेमाल होता है और वहां बेहद सावधानी की आवश्यकता है। शिक्षक और अभिभावक बच्चों को औजारों को सावधानी से प्रयोग करना सिखा सकते हैं। क्या ये सभी खिलौने भारतीय हैं? इसका जवाब हां और ना दोनों में हैं । 'हां' इसलिए, क्योंकि ये सभी खिलौने भारत भर में बनाये जाते हैं। 'ना' इसलिए, क्योंकि इनसे मिलते-जुलते खिलौने अन्य देशों में भी बनते हैं। उदाहरण के लिए पवन-चरखी अलग-अलग रूप में दुनिया भर में बनती है, और उससे बच्चे खेलते हैं। परंतु घूमती गुठली, और सिलाई मशीन जैसे खिलौने एकदम भारतीय हैं। यह सच. है कि जैसी विविधता भारतीय खिलौनों में मिलती है वैसी कहीं और नहीं दिखती। ये खिलौने एक ऐसी जीवंत परंपरा का अंग हैं जिसमें खुद अपने हाथ से गढ़ने, बनाने को महत्व दिया जाता है। ऐसी कई और उपयोगी चीजें हैं जो कई घरों में खुद बनायी जाती हैं-जैसे टोकरी, मिट्टी के बर्तन, कपडा आदि । इन खिलौनों में खासकर फेंके हुए सामान या कबाड़ का सदुपयोग होता है। यह भी भारतीय संस्कृति की एक परंपरा है । भारत के संपन्न और सतरंगे परिवेश में इन विचारों और कल्पनाओं को फलने-फूलने का खूब मौका मिला है ।
आगामी विकास
ये खिलौने इस तथ्य की भी पुष्टि करते हैं कि नवाचार की क्षमता और तकनीकी कुशलताएं काफी लोगों में विद्यमान हैं । स्कूली शिक्षा और ट्रेनिंग न होने के बावजूद आम लोग अपने हुनर का खूब इस्तेमाल करते हैं । समय तेजी से बदल रहा है । नये सामाजिक संदर्भ और तकनीक उभरी हैं । एम माहौल में हम नये खिलौने कैसे बनायें? आजकल तमाम चीजें इस्तेमाल के वाद कचरा समझकर फेंक दी जाती हैं । इस कबाडू की सूची में शामिल हैं-असंख्य टार्च के पुराने सेल बिजली के नए के बेशुमार टुकडे, इंजेक्शन के सिरींज और चिकित्सा संबंधी अन्य तामझाम, कपड़ा मिलों की खाली रीलें और प्लास्टिक की पुरानी डिब्बी, फिल्म शीट, थैली आदि। और यह सूची यहीं खत्म नहीं होनी । हम इसमें कितनी ही और चीजें जोड़ सकते हैं । इस कबाड़ में से मुक्त के नये-नये खिलौनों का कौन जुगाडू करेगा ? प्रशिक्षित वैज्ञानिकों, डिजाइनरों और शिक्षाविदों की इसमें क्या भूमिका होगी ? सबसे अहम बात तो यह है कि इन खिलौनों को बनाकर बच्चे खुशी का और एक नयी खोज का अनुभव करते हैं । सभी तरह के अन्य खिलौने इनके सामने फीके हैं । शायद यही खिलौने भविष्य के वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और डिजाइनरों के सबसे पहले माड़ल हैं । हमें ऐसी आशा है कि इस पुस्तक में संकलित मग्न और रोचक खिलौने काफी लोगो को प्रेरित करेंगे ।
यह पुस्तक दरअसल उन तमाम साधारण लोगों को एक श्रद्धांजलि है जिनकी प्रतिभा ने इन असाधारण खिलौनों को जन्म दिया । इनमें से कई विलक्षण लोगों का तो कोई नाम भी नहीं जानता । परंतु उनके खिलौनों में भरा प्यार और दुलार सभी अनुभव कर सकते हैं । हो सकता है कि तुम्हें कोई खिलौना बनाना मुश्किल लगे या उससे खेलने में दिक्कत आये । अगर ऐसा हो तो उसे छोड़ मत देना और न ही हताश होकर धीरज खोना । बार-बार कोशिश करते रहना।
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