झारखंड के आदिवासी अपनी संस्कृति, सभ्यता के लिये धनी है। प्रकृति से संस्कृति की ओर विकासशील जीवन की हर अवस्था के लिये काम, कला, गीत, नृत्य, जीवन शैली का समान महत्व है। प्रकृति को ही विकसित, संयम, मर्यादित और उपयोगी बनाने का नाम संस्कृति है। जो विकास प्रकृति को मिटा कर या उसका गला घोटकर किया जाता है, उस पीछे हटी हुई ऋणप्रकृति का नाम विकृति है। अवश्य ही यहाँ के झारखंडी आदिवासियों का मेल जोल दूसरे संस्कृति के लोगों के साथ हुआ है यही कारण है कि थोड़ी बहुत इनकी संस्कृति में भी बदलाव हुआ है। परंतु मूलतः देखा जाए तो झारखण्ड के सभी आदिवासी प्रकृति के साथ प्रत्यक्ष रुप से जुड़े हुए हैं।
इस पुस्तक के माध्यम से आदिवासियों के विभिन्न पहलूओं पर प्रकाश डाला गया है। आदिवासी समाज क्या है? कैसा है? इनके किया-कलाप एवं रहन-सहन साथ ही भाषा संस्कृति और सभ्यता को दिखाने का प्रयास किया गया है।
आदिवासियों के जीवन दर्शन किस तरह गीतों में परिलक्षित होते हैं। क्यों इन्हें संगीत के लिये अमीर कहा जाता है। परिश्रामी होने के साथ गीत-संगीत का इनके जीवन में क्या महत्व है? इनकी परम्पराएँ हमें क्या बताना चाहती हैं? इनके साहित्य का विकास किस तरह से हुआ और हो रहा है? क्यों इनके गीतों में प्रकृति चित्रण की परम्परा अब भी बनी हुई है? यह परम्परा कब से और क्यों चली आ रही है?
पुरखा से चली आ रही लोक मानस के विभिन्न पहलूओं और इनके सामाजिक व्यवस्था को समझने की आवश्यकता है। आदिवासी सम्पूर्ण रुप से प्रकृति के साथ है और प्रकृति से संबंधित हरेक पर्व इनके अपने है। तभी तो कृषि कार्य से जुड़ा हुआ आदिवासी समाज जब अपने खेतों में कृषि कार्य के लिए उतरता है तो अपने खेत का माटी सबसे पहले अपने माथे पर लगाता है और पालनहार धरती को नमन करता है।
अनेक ऐसे सवाल हैं जो आज की पीढ़ी जानने के लिये आतुर है। इस पुस्तक के माध्यम से ऐसे सवालों के जबाब कुछ हद तक मिल जायेंगे।
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