अपरिमेय प्राकृतिक सुषमा से सुशोभित, अकृत खनिज सम्पदा से समृद्ध, बहुरंगी सांस्कृतिक एवं सामाजिक संरचनाओं से पोषित, संभ्रांत वनशालाओं के मध्य अवस्थित झारखण्ड 15 नवम्बर, 2000 को भारत के 28वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। राज्य गठन के पीछे संघर्ष था, सपने थे, सोच थे, सहयोग या, समर्पण था किन्तु आज 17 वर्ष बाद झारखण्ड विस्मृत अवस्या में पड़ा है। राजनीति दिग्भ्रमित है, राजनेता व्यक्तिगत इच्छाओं व महत्वाकांक्षाओं से प्ररित हो रहे हैं, जबकि जनता हताश-निराश किंकत्तव्यं विमूढ़ हो पथराई आंखों से सबकुछ देखने के लिए अभिशप्त है। राज्य का संचालन लोक तंत्र की अबूझ पहेली कर रही है जिसकी आड़ में झारखण्ड की समृद्ध सांस्कृतिक व समाजिक विरासत को विकास के छद्म नाम पर छिन्न-भिन्न किया जा रहा है। कुशासन के दुष्वक से मुक्ति की बेचैनी ने इसे अतीत में अलग आन्दोलन की राह दी किन्तु अलग राज्य होकर भी यह आज अशासित, अविकसित, असमर्थ और परानुगामी बना रहा।
स्वतंत्र होना मानवीय चेतना का स्वभाव है और यहीं से अधिकार कर्तव्य, राज्य, संरक्षण, सम्वर्द्धन और विकास की धारणाओं का प्रारम्भ होता है। मानव स्वभाव के सारे प्रयास, सारी चेष्टायें इसी मुक्त होने के स्वभाव की भित्ति के इर्द-गिर्द निर्मित हुए और नित्य अग्रसारित हो रहे हैं। चाहे राजनीति हो या अर्थशास्त्र, धर्म हो या दर्शन मनुष्य के सभी उद्यम मुक्त होने के मूल स्वभाव की ही अभिव्यक्तियों हैं। झारखण्ड एक अलग सांस्कृतिक अस्मिता, ऐतिहासिक अस्तित्व अथवा पृथक राज्य निर्माण के सभी मापदण्डों पर खरा उतरता है। मात्र झारखण्ड की गरीबी, अशिक्षा तथा शोषण ही विदोहन अलग राज्य की मांग के कारण नहीं थे अपितु एक पृथक पहचान ही मुक्ति के लिए संघर्ष को प्रेरित करती रही।
राजनीतिक रूप से पृथक झारखण्ड का स्वप्न 15 नवम्बर, 2000 को साकार हो गया किन्तु जिस स्वच्छ, स्वस्य, सुखी, समृद्ध झारखण्ड का स्वप्न देखा गया वह 17 सालों बाद आज भी धूल-धूसरित है। राज्य गठन के साथ ही जो गठबंधन सरकारों का दौर चला वह आज तक जारी है। परिणामतः गठबंधन सरकार के नकारात्मक पक्षों की झारखण्ड सबसे प्रयोगशाला बन गई। झारखण्ड के राजनीतिक परिदृश्य में तेजी से मूल्यों का स्खलन हुआ है और राजनीति में अमर्यादित, आचारहीन, विचारहीन और लूट संस्कृति का दौर चल पड़ा। झारखण्ड निर्माण की मूल आत्मा झारखण्ड और झारखण्डी जनता को वर्षों के शोषण, उत्पीड़न, दोहन और घुटन की विभीषिका से निकालकर एक सुखी, समृद्ध व वैभवशाली झारखण्ड राज्य बनाना था किन्तु अपने शेषवकाल में ही नवनिर्मित राज्य को राजनीतिक महत्वाकांक्षा, व्यक्तिगत स्वार्थ की पिपासा, क्षुद, संकीर्ण, आत्मकेन्द्रित राजनीतिक दांव-पेंचों ने विषम स्थितियों में डाल दिया है। सारी सामर्थ्य और शक्ति होने के बावजूद झारखण्ड विकास की दौड़ में पीछे छूटता गया। राजनेताओं ने समय-समय पर विकास की नई परिभाषायें जरूर ही गढ़ी लेकिन झारखण्डी विकास भय, भूख, भ्रम और भ्रष्टाचार की भूल-भूलैया में खो गया।
अतः इस पुस्तक में झारखण्ड को समझने के लिए झारखण्डी सभ्यता संस्कृति से लेकर वर्तमान राजनीतिक परिवेश तक की विस्तार से चर्चा की गई है। झारखण्ड की आशाओं, आकांक्षाओं, संभावनाओं पर सटीक विमर्श की कोशिश की गई। झारखण्ड की राजनीतिक अस्थिरता और विश्रृंखलता के मध्य गठबंधन सरकारों में भी स्थायित्व एवं विकास के मुहों का गंभीर विश्लेषण किया गया है। विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक झारखण्ड में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों, शोधार्थियों, शिक्षकों और विद्वान जनों को झारखण्ड को समझने और विचार जनित जिज्ञासाओं को शान्त करने में मदद करेगी।
अन्त में में, अपने माता-पिता, गुरुजनों, मित्रजनों और पारिवारिक सदस्यों, विशेषकर संगिनी डॉ. सरिता कुमारी त्रिपाठी, के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने इस पुस्तक को लिखने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मुझे प्रेरणा दी और मेरा मार्गदर्शन किया। में सत्यम् पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली के स्वामी श्री आर.डी. पाण्डेय के प्रति अपना अपना विशेष आभार प्रकट करना चाहता हूँ जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
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