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जैन एवं गांधी आचार मीमांसा: Jain and Gandhi Mimansa

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Item Code: HAH633
Author: Jasbir Arya
Publisher: BHARAT BHARTI, VARANASI
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9789394814257
Pages: 160
Cover: HARDCOVER
Other Details 9.00x6.00 inch
Weight 350 gm
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Book Description
भूमिका

प्रस्तुत पुस्तक जैन दर्शन एवं गांधी दर्शन का आचार मीमांसीय अध्ययन जैन धर्म एवं गांधी दर्शन के नैतिक नियमों को दशनि का प्रयास करता है। भारतीय संस्कृति सम्पूर्ण विश्व में अपनी विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है। इसमें दो धाराएँ प्रवाहित होती हैं- श्रमण और ब्राह्मण। ब्राह्मण घारा के अन्तर्गत वैदिक, हिन्दू परम्परा आती हैं तथा श्रमण धारा में जैन, बौद्ध और इसी तरह की तापसी अथवा यौगिक परम्पराएँ समाविष्ट है। जैन धर्म संसार के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। यह भारत का एक अति प्राचीन तया स्वतंत्र धर्म है और महात्मा गांधी भारत के उन विरले व्यक्तित्व में से एक हैं जिनके विचारों और जीवन गाथा को वैश्विक स्तर पर आदर से स्वीकार किया जाता है। जैन धर्म में श्रमण संस्कृति मानव के उन गुणों का प्रतिनिधित्व करती है जो उसके व्यक्तिगत स्वार्थ से भिन्न हैं।' दूसरे शब्दों में, श्रमण परम्परा साम्य पर प्रतिष्ठित हैं। यह साम्य मुख्य रूप से तीन बातों में देखा जा सकता है- (1) समाजविषयक, (2) साध्यविषयक, (3) प्राणिजगत् के प्रति दृष्टिविषयक ।

समाज-विषयक साम्य का अर्थ है समाज में किसी एक वर्ण जाति का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व न मानकर गुणकृत एवं कर्मकृत श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व मानना। श्रमण-संस्कृति समाज-रचना एवं धर्म-विषयक अधिकार की दृष्टि से जन्मसिद्ध वर्ण और लिंगभेद को महत्व न देकर व्यक्ति द्वारा समाचरित कर्म और गुण के आधार पर ही समाज-रचना करती है। उसकी दृष्टि में जन्म का उतना महत्व नहीं है जितना की पुरूषार्थ और गुण का। मानव-समाज का सही आधार व्यक्ति का प्रयत्न एवं कर्म है, न कि जन्मसिद्ध तथाकथित श्रेष्ठत्व । केवल जन्म से कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं होता। हीनता और श्रेष्ठता का वास्तविक आधार स्वकृत कर्म है।

साध्य विषयक साम्य का अर्थ है अभ्युदय का एक सरीखा रूप। श्रमण-संस्कृति का साध्य-विषयक आदर्श वह अवस्था है जहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं रहता। वह एक ऐसा आदर्श है जहाँ एहिक एवं परलौकिक सभी स्वार्थों का अन्त हो जाता है। वहाँ न इस लोक के स्वार्थ सताते है, न परलोक का प्रलोभन व्याकुलता उत्पन्न करता है। वह ऐसी साम्यावस्था हैं जहाँ कोई किसी से कम योग्य नहीं रहने पाता। वह अवस्था योग्यता और अयोग्यता, अधिकता और न्यूनता, हीनता और श्रेष्ठता सभी से परे है।

प्राणि-जगत् के प्रति दृष्टिविषयक साम्य- प्राणि-जगत् के प्रति दृष्टिविषयक साम्य का अर्थ है जीव-जगत् के प्रति पूर्ण साम्य। ऐसी समता कि जिसमें न केवल मानव समाज या पशु-पक्षी समाज ही समाविष्ट हो, अपितु वनस्पति जैसे अत्यन्त सूक्ष्म जीव समूह का भी समावेश हो। इस तरह की दृष्टि विश्व प्रेम की अद्भुत दृष्टि है। इस संसार में विराजमान प्रत्येक प्राणी, चाहे वह मनुष्य हो या पशु, पक्षी या कीट-पंतगे, वनस्पति हो या अन्य क्षुद्र जीव आत्मवत् है। संसार में किसी भी प्राणी का वध करना अथवा उसे कष्ट पहुंचाना आत्मपीड़ा के समान है।

'आत्मवत् सर्व-भूतेषु" की भूमिका पर प्रतिष्ठित यह साम्यदृष्टि श्रमण परम्परा का प्राण है। सामान्य जीवन को ही अपना चरम लक्ष्य मानने वाला साधारण व्यक्ति इस भूमिका पर नहीं पहुँच सकता। यह भूमिका स्व और पर के अभेद की पृष्ठभूमि है। यही पृष्ठभूमि श्रमण-संस्कृति का सर्वस्व है। जैन धर्म वेद को प्रमाण नहीं मानती। वे यह भी नहीं मानती कि वेद का कर्ता ईश्वर है। अथवा वेद अपीरूपेय है। जैन परम्परा ये भी स्वीकार नहीं करती की ब्राह्मण वर्ग का जाति की दृष्टि से या पुरोहित के नामे गुरूपद भी स्वीकार नहीं करती। जैन धर्म के अपने ग्रन्थ है, जो निर्दोष आप्त व्यक्ति की रचनाएँ हैं। जैन धर्म को मानने वाले के लिए वे ही ग्रन्य प्रमाणभूत है। जैन धर्म किसी जाति की अपेक्षा व्यक्ति की पूजा को मान्यता देता है। व्यक्ति पूजा का आधार है गुण और कर्म। जैन धर्म में साधक और त्यागी वर्ग के लिए श्रमण, मिक्षु, अनगार, यति, साधु, परिव्राजक, अर्हत्, जिन आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।

जैन परम्परा में साधकों के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। यह शब्द जैन ग्रन्थों में 'निग्गंध' के नाम से मिलता है। इसीलिए जैन शास्त्र को 'निर्ग्रन्य प्रवचन' भी कहा जाता है।

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