पुस्तक के विषय में
महावीर की क्रांति इसी बात में है कि वे कहते हैं कोई हाथ ऐसा नहीं है जो तुम्हें आगे बढ़ाए। और किसी काल्पनिक हाथ की प्रतीक्षा में जीवन को व्यय मत कर देना। कोई सहारा नहीं है सिवाय उसकें, जो तुम्हारे भीतर है और तुम हो। कोई और सुरक्षा नहीं है, कोई और हाथ नहीं है जो तुम्हें उठा लेगा, सिवाय उस शक्ति के जो तुम्हारे भीतर है, अगर तुम उसे उठा लो। महावीर ने समस्त सहारे तोड़ दिए। महावीर ने समस्त सहारों की धारणा तोड़ दी। और व्यक्ति को पहली दफा उसकी परम गरिमा में और महिमा में स्थापित किया है। और यह मान लिया है कि व्यक्ति अपने ही भीतर इतना समर्थ है, इतना शक्तिवान है कि यदि अपनी समस्त बिखरी हुई शक्तियों को इकट्ठा करे और अपने समस्त सोए हुए चैतन्य को जगाए, तो अपनी परिपूर्ण चेतन और जागरण की अवस्था में वह स्वयं परमात्मा हो जाता है।
आमुख
चेतना का एक बिंदु है जो जीवन के सारे प्रवाहमें अचल है । उसी बिंदु को पा लेना आत्मा को पा लेना है । तथ्यों को और चल-जगत को, वह परिवर्तनशील जगत को, वह जो चेंजिंग सारी दुनिया है, उसकें प्रति जो जागता है वह क्रमश उसे अनुभव करने लगता है जो कि अचल है, जो कि केंद्र है, जो कि बिंदु है, जो कि हम हैं, जो कि हमारी सत्ता है, जो कि हमारी आथेंटिक, हमारी प्रामाणिक आत्मा है ।
उस बिंदु को जानना सम्यक शान है। सम्यक दर्शन है विधि, सम्यक शान है उसकी उपलब्धि। ये दो बातें बड़ी अर्थपूर्ण है। और दूसरे बिंदु को जो उपलब्ध हो जाता है उसका सारा आचरण बदल जाता है। उसे महावीर ने कहा, उसका आचरण सम्यक आचरण हो जाता है। दर्शन है विधि, ज्ञान है उपलब्धि, आचरण है उसका प्रकाश।
जब भीतर शांत और आनंदित, अचल और अमृत आत्मा का बोध होता है, तो सारा आचरण कुछ और हो जाता है। जैसे किसी घर के दीए बुझे हों, तो उसकी खिड़कियो से अंधकार दिखाई पड़ता है। और जैसे किसी घर के भीतर दीया जल जाए तो उसकी खिड़कियों से रोशनी बाहर फिंकने लगती है । ऐसे ही जब किसी व्यक्ति के भीतर ज्ञान बुझा होता है और अज्ञान घना होता है, तो आचरण से दुराचरण का अंधकार फैलता रहता है। हिंसा है, और असत्य है, और काम है, और क्रोध है, वे उसकी खिडकियों से जीवन के बाहर फैलते रहते हैं। और जब उसकें भीतर ज्ञान का दीया जलता है और उसे ज्ञात होता है कि मै कौन हूं और क्या हूं तो उसकें सारे भवन के द्वार, खिड़कियां आलोक को बाहर फेंकने लगते है। वही आलोक अहिंसा है, वही आलोक अपरिग्रह है, वही आलोक ब्रह्मचर्य है, वही आलोक सत्य है, फिर वह अनेक-अनेक किरणों में सारे जगत में व्याप्त होने लगता है।
महावीर ने तथ्यों को जाना, तथ्यो को पहचाना, वे सुख के भ्रम से मुक्त हुए तथ्यों की व्याख्या छोड दी। व्याख्या छोड़ते ही वह दिखाई पड़ना शुरू हुआ जो कि ज्ञाता है, जो कि साक्षी है, जो कि विटनेस है। उसको जानने से उन्होंने स्वयं को पहचाना और जाना और जीवन में उस क्रांति को अनुभव किया जो सारे जीवन को प्रेम और प्रकाश से भर देती है । ऐसा जीवन अपने भीतर जाकर उन्होंने उपलब्ध किया । और जो व्यक्ति भी कभी ऐसे जीवन को पाना चाहे, वह अपने भीतर जाकर उपलब्ध कर सकता है । महावीर होने की क्षमता हर एक के भीतर मौजूद है।
सवाल उनकी पूजा करने का नही, सवाल उन्हे मानने का नहीं, सवाल उस पूरे अंतस्तल को जानने का है जहां कि वह क्रांति पैदा होती है और व्यक्ति सामान्य से उठ कर असामान्य जीवन में प्रविष्ट हो जाता है । जहां वह असत्य से उसकें सत्य के संसार से संबंधित हो जाता है। जहां वह चलायमान जो है उससे हट कर वह जो अचल है उस पर खड़ा हो जाता है । जहां वह अंधकार से हटता है और प्रकाश के बिंदु को उपलब्ध कर लेता है । यह प्रत्येक मनुष्य की निजी क्षमता है। और महावीर का संदेश दुनिया को यही है कि कोई मनुष्य किसी दूसरे की तरफ आखें न उठाए, मुखापेक्षी न हो। किसी दूसरे से आप आशा न करे, किसी दूसरे से मांगें नही, किसी दूसरे से भिक्षा का खयाल न करें। जो भी किया जा सकता है वह प्रत्येक व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से, अपने श्रम से, अपनी क्षमता से, अपने साहस से कर सकता है।
व्यक्ति की गरिमा को जैसी प्रतिष्ठा महावीर ने दी संभवत: संसार में किसी दूसरे व्यक्ति ने नही दी । और सारी पूजा और सारी शरण जाने की भावना छीन ली । और कहा अपनी शरण पर अपने पैरों पर खड़े हो जाओ । अपनी हिम्मत ओर साहस का प्रयोग करो । जागो, निरीक्षण करो और अपने भीतर प्रवेश पाओ, तो कोई भी वजह नहीं है कि जो कभी किसी को उपलब्ध हुआ हो वह हमें उपलब्ध क्यों न हो सकें । यह उपलब्ध हो सकता है । और इसकें लिए जरूरत नहीं कि कोई जंगल में भाग कर जाए, कोई पहाड़ पर जाए, कोई कपडे बदले, कोई लंगोटी लगाए या नंगा हो जाए, या कोई भूखा मरे, या कोई उलटा सिर करके खड़ा हो जाए । इस सब की कोई भी जरूरत नहीं है। कोई उपद्रव, किसी तरह के उलटे-सीधे काम, किसी तरह का कोई पागलपन करने की कोई जरूरत नहीं है। जीवन को जानने, पहचानने, जागने, समझने और अपने भीतर प्रज्ञा को विकसित करने, साक्षी-भाव को जगाने की जरूरत है। यह कहीं भी हो सकता है। जो जहां है, वहीं हो सकता है। और यह हरेक व्यक्ति को कर ही लेना चाहिए। अन्यथा जीवन तो आएगा और व्यतीत हो जाएगा, और तब हमें ज्ञात होगा कि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। मौत सामने खडी होगी और हमको पता चलेगा, हम तो खाली हाथ है। फिर मौत से कितने ही भागे, कहीं कोई भाग कर नहीं जा सकता। कहीं भी भागे, फिर भागने का कोई उपाय नहीं है। जागने का उपाय है मौत से, लेकिन मौत से भागने का उपाय नही है।
उसकें पहले कि मौत कहे कि ठीक जगह और ठीक समय पर आ गए, कुछ समय मिला हुआ है, उसका उपयोग हो सकता है। जो उसका उपयोग नहीं करता और नहीं जागता, वही अधर्म में है। जो उसका उपयोग कर लेता है और जाग जाता है, वह धर्म में प्रविष्ट हो जाता है। धर्म में प्रविष्ट हों, ऐसी परमात्मा प्रेरणा दे। महावीर को प्रेम करते है, बुद्ध को प्रेम करते हैं, कृष्ण को, क्राइस्ट को प्रेम करते है, उनका प्रेम ऐसी प्रेरणा दे कि वह सत्य के प्रति जागे जिसकी कोई मृत्यु नहीं है, स्वयं को जानें जो अमृत है। और उससे भागने की नहीं, उसमे प्रवेश करने की बात है। यह हो सकता है। जैसे प्रत्येक बीज में अंकुर छिपा है, ऐसा प्रत्येक व्यक्तिमें परमात्मा छिपा है। और अगर बीज बीज रह जाए तो जिम्मा हमारे सिवाय और किसी का भी नहीं होगा। वह वृक्ष बन सकता है। परमात्मा ऐसी क्षमता, ऐसी अभीप्सा, ऐसी प्यास प्रत्येक को दे कि वह बीज वृक्ष बन सकें।
अनुक्रम
1
मानवीय गरिमा के उदघोषक
2
अंतर्दृष्टि की पतवार
17
3
आत्म-दर्शन की साधना
33
4
स्वरूप में प्रतिष्ठा
53
5
व्यक्ति है परमात्मा
69
6
असुत्ता मुनि
89
7
अंतस-जीवन की एक झलक
107
8
जीवन-चर्या के तीन सूत्र
129
9
सत्य का अनुसंधान
151
10
अहिंसा आचरण नहीं, अनुभव है
173
11
अहिंसा-दर्शन
193
12
तारण तरण वाणी
207
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