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कृष्ण स्मृति (हीरे जो कभी परखे ही न गए): In Krishna's Memory....

$53
Specifications
NZA638
Author: Osho Rajneesh
Publisher: OSHO MEDIA INTERNATIONAL
Language: Hindi
Edition: 2013
ISBN: 9788172610234
Pages: 516 (13 B/W illustrations)
Cover: Hardcover
8.5 inch X 6.5 inch
930 gm
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Book Description

 

पुस्तक के विषय में

कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है। अनूठेपन की पहल बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में है, लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया कि कृष्ण का समसामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य की समझ के बाहर है। भविष्य में ही यह संभव हो पाएगा कि कृष्ण को हम समझ पाएं।

कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं है, उदास नहीं है, रोते हुए नहीं हैं। साधारणत: संत का लक्षण ही रोता हुआ होना है- जिंदगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही नाचते हुए व्यक्ति हैं- हंसते हुए, गीत गाते हुए। अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास, आंसुओं से भरा हुआ था। हंसता हुआ धर्म, जीवन को सम्रग रूप से स्वीकार करने वाला धर्म अभी पैदा होने को है।

पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:-

कृष्ण का व्यक्तित्व और उसका महत्व: आज के संदर्भ में

आध्यात्मिक संभोग का अर्थ

जीवन में महोत्सव के प्रतीत कृष्ण

स्वस्थ राजनीति के प्रतीकपुरुष कृष्ण

सात शरीरों की साधना

भूमिका

जीवन एक विशाल कैनवास है, जिसमें क्षण-क्षण भावों की कूची से अनेकानेक रंग मिल-जुल कर सुख-दुख के चित्र उभारते हैं । मनुष्य सदियों से चिर आनंद की खोज में अपने पल-पल उन चित्रों की बेहतरी के लिए जुटाता है । ये चित्र हजारों वर्षों से मानव-संस्कृति के अंग बन चुके है। किसी एक के नाम का उच्चारण करते ही प्रतिकृति हंसती-मुस्काती उदित हो उठती है ।

आदिकाल से मनुष्य किसी चित्र को अपने मन में बसा कर कभी पूजा, तो कभी आराधना, तो कभी चिंतन-मनन से गुजरता हुआ ध्यान की अवस्था तक पहुंचता रहा है । इतिहास में, पुराणों में ऐसे कई चित्र हैं, जो सदियों से मानव संस्कृति को प्रभावित करते रहे है । महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध, राम ने मानव- जाति को गहरे छुआ है । इन सबकी बाते अलग-अलग है । कृष्ण ने इन सबके रूपो-गुणों को अपने आप में समाहित किया है । कृष्ण एक ऐसा नाम है, जिसने जीवन को पूर्णता दी । एक ओर नाचना-गाना, रासलीला तो दूसरी ओर युद्ध और राजनीति, सामान्यत: परस्पर विरोधी बातों को अपने में समेंट कर आनंदित हो मुरली बजाने जैसी सहज क्रियाओं से जुड़े कृष्ण सचमुच चौकाने वाले चरित्र है । ऐसे चरित्र को रेखांकित करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। व्याख्याएं कभी-कभी दिशाएं मोड़ देती हैं, कभी-कभी भटका भी देती है ।

ओशो ने कृष्ण को अपनी दृष्टि से हमारे सामने रखा है, अपनी दार्शनिक और चिंतनशील पारदर्शी दृष्टि से हम तक इस पुस्तक के माध्यम से पहुंचाया है । व्यक्तित्व जब बड़ा हो, विशाल हो तब मूर्ति बनाना आसान नहीं । सिर्फ बाहरी छवि उभारना पर्याप्त नहीं होता । व्यक्तित्व के सभी पहलू भी उभरने चाहिए । श्रेष्ठ कलाकार वही है जो मूर्ति में ऐसी बातों को भी उभार सके जो सामान्य आखें देख नहीं पातीं ।

कृष्ण भारतीय जन-मानस के लिए नये नहीं हैं । कृष्ण की छवि, मुद्रा परिचित है । चाहे यह बाल्यकाल की छवि सूरदास की हो या महाभारत की विभिन्न मुद्राएं हों या विभिन्न कवियों के कृष्ण हों, लोककथाओं या आख्यायिकाओं के कृष्ण हों-चिर-परिचित हैं । कृष्ण का चित्र स्टील फोटोग्राफी की तरह हमारे मन में रच-बस गया है ।

परंतु, ओशो ने इस पुस्तक की विचार-श्रृंखला में कृष्ण का मात्र फोटो नहीं खींचा है बल्कि एक सधे हुए चिंतक-कलाकार की तरह अपने विचार-रंगों से कृष्ण के जीवन के उन पहलुओं को छुआ है, आकार दिया है, जो कैमरे की आंख से नहीं देखे जा सकते । सिर्फ कूची के स्पर्श से उभारे जा सकते हैं ।

पूर्णता का नाम कृष्ण

कैमरा सिर्फ मूर्त आकृतियों की प्रतिकृति देता है पर कलाकार की कूची अमूर्तता को रेखांकित करती है । 'कृष्ण स्मृति' ऐसी ही अनदेखी, अनजानी अमूर्त छटाओं का एक संपूर्ण संकलन है, जो ओशो की एक लंबी प्रवचन-श्रृंखला से उभरा है । श्रोताओं की जिज्ञासाओं, कुतूहलों और कृष्ण व्यक्तित्व से उठने वाले उन तमाम प्रश्नों के उत्तर में, झरने सा कल-कल बहता हुआ, कांच की तरह पारदर्शी विचार-चिंतन इस पुस्तक में प्रवाहित हुआ है ।

कृष्ण यथार्थवादी है । वे राग, प्रेम, भोग, काम, योग, ध्यान और आत्मा-परमात्मा जैसे विषयों को उनके यथार्थ रूप में ही स्वीकार करते हैं । दूसरी ओर युद्ध और राजनीति को भी उन्होंने वास्तविक अर्थो में स्वीकार किया है । ओशो कहते हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं है । कृष्ण का व्यक्तित्व पूर्वाग्रही नहीं है । यदि युद्ध होना ही हो तो भागना ठीक नहीं है । यदि युद्ध होना ही है और मनुष्य के हित में अनिवार्य हो जाए तो युद्ध को आनंद से स्वीकार करना चाहिए । उसे बोझ की तरह ढोना उचित नहीं । क्योंकि बोझ समझ कर लड़ने में हार निश्चित है ।

ओशो युद्ध और शांति के द्वंद्व को समझाते हुए कृष्ण के व्यक्तित्व को अधिक सरलता से प्रस्तुत करते है । क्योंकि कृष्ण जीवन को युद्ध और शांति दोनो द्वारों से गुजरने देना चाहते है । शांति के लिए युद्ध की सामर्थ्य हो ।

मनुष्य की युद्ध की मानसिकता को ओशो ने बडी सहजता से उजागर किया है । वे कहते हैं, सतगुणों और दुर्गुणों से ही मनुष्य आकार लेता है । अनुपात कम-अधिक हो सकते हैं । ऐसा अच्छे से अच्छा आदमी नहीं है पृथ्वी पर जिसमें बुरा थोड़ा सा न हो । और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोजा जा सकता जिसमें थोड़ा सा अच्छा न हो । इसलिए सवाल सदा अनुपात और प्रबलता का है । स्वतंत्रता, व्यक्ति, आत्मा, धर्म, ये मूल्य है जिनकी तरफ शुभ की चेतना साथ होगी । कृष्ण इसी चेतना के प्रतीक है ।

ओशो ने कृष्ण पर बोलने का बड़ा सुंदर आधार दिया है-कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम और भविष्य के लिए ज्यादा है । सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय से कम से कम पांच हजार वर्ष पहले पैदा हुए ।

सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते हैं और सभी गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं । बस महत्वपूर्ण और गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति में इतना ही फर्क है । और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पदा होते है ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को समझना आसान नहीं होता उसका वर्तमान हार अतीत उसे समझने में असमर्थता अनुभव करता है ओशो न कितना सुदर कहा है कि जब हम समझने योग्य नहीं हो पाते, तब हम उसकी पूजा करना शुरू कर देते है या पो हम उसका विरोध करते हे या तो हम गाली देते है या हम प्रशंसा करते हे । दोना पूजाए हैएक शत्रु की है एक मित्र की है ओशो की प्रखर आखो ने कृष्ण का अपने वर्तमान के लिए देखा । दुख, निराशा, उदासी, वैराग्य इसी बातें कृष्ण ने पृथ्वी पर नहीं की । पृथ्वी पर जीने वाले, उल्लास, उत्सव आनंद, गीत, नत्य, सगीत को कृष्ण न विस्तार दिया कृष्ण ने इस ससार का सारी चीजों को उनके वास्तविक अर्थो में ही स्वीकार किया । कृणा के बहुआयामी व्यक्तित्व और रहस्यपूर्ण कृतित्व की व्याख्या ओशो न सहजता ओर सरलता से की है कृष्ण को देखने की उनकी दृष्टि सचमुच ऐसा विस्तार देती है जो मात्र तुलना नहीं है कृष्ण कुशलता से चोरी कर सकते है, महावीर एकदम बेकाम चोर साबित होगे कृष्ण कुशलता से युद्ध कर सकते है, बुद्ध न लड सकेंगे जीसस की हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि वे बासुरी बजा सकते है, लेकिन कृष्ण वली पर चढ सकते है। कृष्ण को क्राइस्ट के व्यक्तित्व में सोचा ही नहीं जा सकता ।

यह पूरा सिलसिला लबे प्रवचनों के माध्यम से प्रश्नों के उत्तसे के रूप में हे । इसमें मानव मन से उठने वाली तमाम जिज्ञासाओं और कुतूहलों की आतुरता शात की गई है प्रभ, नैतिकता, पन्ना, प्रेमिका, स्त्री-पुरुष, विवाह, आध्यात्मिक संभोग, राधा-कृष्ण संबधों और हजार-हजार प्रश्नों के रेशो को इसमें कुशलता से सहेजा गया है, समाधान किया गया है । प्रतीको ओर यथार्थ की तराजू तौलते हुए मानवीय संवेदनाओं और शरीर की जैविक आवश्यकताओं तथा मन, बुद्धि और शशीर की यात्राओं में स्त्रीपुरुष की पूर्णता का युक्तिसंगत ऊहापोह ठोस मनोवैज्ञानिक धरातल पर गया है। राधा आर कृष्ण, कृष्ण और सोलह हजार गोपिकाए इनके बीच नैतिक-अनैतिक की परिभाषाए उदाहरणों से इतनी पारदर्शी हो उठी है कि तर्कों की डोर बहुत शिथिल पड जाती हे । कच्छा की पृष्ठभूमि में विवाह, स्त्री-पुरुष संबंध प्रेम और सामाजिक पृष्ठभूमि में ये विचार देशकाल की सीमाओ को तोड कर व्यक्ति को एक नया अर्थ देते है । इन सारे संबधों में निकटता, आकर्षण, ऊर्जा बहाव, तृप्ति, हलकापन ओंर सृजन को बडी सुदरता से प्रस्तुत किया है।

इन विस्तृत चर्चाओं में कृष्ण के इर्द-गिर्द जुड़े समस्त पात्रो के अलावा कृष्ण से फ्रायड तक की मनोवैज्ञानिक बाते और गाधी तक का दर्शन समाहित किया गया है ।

कृष्णा को एक विस्तृत 'कैनवास' के रूप में उपयोग कर हमारे वर्तमान जीवन के रग आर भविष्य के चित्र बडी खूबसूरती से उभरे है कोई भी बात बाहर से थोपी नहीं गई है । अपनी विशिष्ट शैली में ओशो ने मन तक पहुचाई है । कृष्ण के पक्ष या विपक्ष में ले जान का कोई आग्रह नहीं है पर ओशो की दृष्टि में आए कृष्ण को जानने, देखने, समझने और अनुभव करने की जिज्ञासा इस पुस्तक से जहा एक ओर शांत होती है वही उस अनत व्यक्तित्व के बारे में मोलिक चिंतन की शुरुआत का एक छोर भी अनायास ही हाथ लग जाता है।

ओशो ने अपनी इस पुस्तक में कही भी पुजारी की भूमिका नहीं की सिर्फ विविध छटाओं को विस्तार दिया है। जिसको जो छटा भाती है, वह उसको सोच कर आंनद को प्राप्त होता है । कृष्ण का जीवन अन्य आराध्यों सा सपाट और आदर्श के शिखर पर विराजमान नहीं है बल्कि अत्यत अकल्पनीय ढंग से उतार चढ़ाव ओर रहस्यों से भरपूर होत हुए भी हमारी आपकी पृथ्वी पर खडा है इसकी सिर्फ पूजा नहीं इसे जीया भी जा सकता है ससार के बंधन और मन की गांठ खुल सकती है। यह सब बताते हुए ओशो यह भी आगाह करते है कि अनुकरण से सावधान रहना चाहिए । क्योंकि प्रत्येक का जीवन मौलिक होता है और अनुकरण से उसका पतन हो सकता है ।

कृष्ण सपूर्णता के प्रतीक है । मानव-समाज के आनंद के लिए सुदर आविष्कार के रूप में उभरते हें, जहां किसी भी बात को पूर्वाग्रह से नकारा नहीं गया है । एक सहज, सकारात्मक, रागात्मक, प्रेमपूर्ण जीवन को उत्सव की तरह सपन्न करने वाले कृष्ण का इस पुस्तक में जो चित्र उभर कर निखरता है, वह सर्वथा नया और आनददायी है।

 

अनुक्रम

1

हंसते व जीवंत धर्म के प्रतीक कृष्ण

15

2

इहलौकिक जीवन के समगलर स्वीकार के प्रतीक कृष्ण

33

3

सहज शून्यता के प्रतीक कृष्ण

61

4

स्वधर्म-निष्ठा के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण

79

5

अकारण के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण

101

6

जीवन के बृहत् जोड़ के प्रतीत कृष्ण

115

7

जीवन में महोत्सव के प्रतीक कृष्ण

143

8

क्षण-क्षण जीने के महाप्रतीक कृष्ण

167

9

विराट जागतिक रासलीला के प्रतीक

195

10

कृष्ण स्वस्थ राजनीति के प्रतीकपुरुष कृष्ण

211

11

मानवीय पहलूयुक्त भगवत्ता के प्रतीक कृष्ण

239

12

साधनारहित सिद्धि के परमप्रतीक कृष्ण

259

13

अचिंत्य-धारा के प्रतीकबिंदु कृष्ण

283

14

अकर्म के पूर्ण प्रतीक कृष्ण

309

15

अनंत सागर-रूप चेतना के प्रतीक कृष्ण

337

16

सीखने की सहजता के प्रतीक कृष्ण

357

17

स्वभाव की पूर्ण खिलावट के प्रतीक कृष्ण

383

18

अभिनय-से जीवन के प्रतीक-कृष्ण

399

19

फलाकांक्षामुक्त कर्म के प्रतीक कृष्ण

421

20

राजपथरूस भव्य जीवनधारा के प्रतीक कृष्ण

439

21

वंशीरूप जीवन के प्रतीक कृष्ण

465

22

परिशिष्ट: नव-संन्यास

485

 

 

 

 

 

 

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