वक्तव्य
उन दिनों मेरे मनमें ईश्वरकी प्राप्तिके लिये लालसा तो थी ही, व्याकुलता भी कम न थी । बीच-चीचमें अपनी त्रुटियों एवं निबलताओंको देखकर निराशा भी हो जाया करती थी । घरबार छोड़कर कहीं शांत एकांत वनप्रान्तमें जाकर निस्पंद पड़े रहनेका मन हुआ करता था । इसी बीच महाइच परगनेके कानूनगो ठाकुर भगरूसिंद्रजीसे परिचय हुआ । थोड़े ही दिनोमें मैंत्री गाढ़ हो गयी । मैं निस्संकोच कह सकता हूं कि इन तीस-पैंतीस वर्षोंके सत्संग- प्रचुर जीवनमें वैसा सच्चा, सरलहृदय एवं ईमानदार पुरुष दूसरा नहीं मिला । यादमें मुझ पर उनकी श्रद्धा हो गयी और मुझसे विधि-पूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार कराकर मत्रदीक्षा ले ली और अनुष्ठान करने लगे । मुक्त मिलनेके पहले ही वे एक बार सब-कुछ छोड्कर हिमालयकी ओर चले गये थे एवं लौट भी आये थे । उन्हे एफ० जे० एलेक्जेएडर द्वारा लिखित अँग्रेजीकी यह पुस्तक (In the Hours of Meditation) ''ध्यानके समय'' एक महात्मा ने दी थी और इससे उनके जीवनमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए थे। उन्होंने ही इस पुस्तकके कुछ अंश अनुवाद करके सुनाये । यह मुझे बहुत प्रिय लगी । इससे मुझे बहुत आश्वासन मिला । अपने जीवनके निर्माणके लिये एक दिशा मिली । मेरे कहनेपर उन्होंने पुस्तकका अधिकांश अपनी उर्दूमिश्रित भाषामें बोल दिया और मैंने संस्कृतप्रधान हिंदीमें लिख लिया । कहना नहीं होगा कि मैंने अब तक अंग्रेजी भाषा या लिपि नहीं सीखी है । इसलिये मूल ग्रन्थके, साथ इस अनुवादका कितना सम्बन्ध है, यह मैं नहीं कह सकता । इतना अवश्य कह सकता हूँ कि इस पुस्तककी भाषा और भाव पर मेरी इतनी ममता हो गयी है कि इस पुस्तकमें मेरा हृदय बोलता हुआ दीखता है । बहुतोंने इस पुस्तककी प्रतिलिपि करवायी और इससे लाभ उठाया । मेरे मित्र भाई सुदर्शनसिंह ''चक्र'' ने यह पुस्तक आद्योपांत पढ़ी । उन्हें यह इतनी भा गयी कि तीन-चार बरस अपने पास रखकर फिर उन्होंने इसे मानस-संघ, राम-वन, सतनासे प्रकाशित करवा दिया । पुस्तककी उपयोगिता इसीसे स्पष्ट है कि अब उस संस्करणकी कोई प्रति ढूँढे भी नहीं मिलती । अब मानस-संघके अधिकारी श्री शारदाप्रसाद जी वकीलसे स्वीकृति प्राप्त करके 'सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट' इसे प्रकाशित कर रहा है । मैंने अपने साधक जीवनके प्रारम्भमें इस पुस्तकका इतना स्वाध्याय किया है, आश्वासन प्राप्त किया है, इसके द्वारा प्राप्त पथ-प्रदर्शनसे लाभ उठाया है कि मैं अपने प्रेमी सत्संगियोंको इससे लाभान्वित किये बिना रह नहीं सकता । इसके पुनः प्रकाशनमें भी मेरी आन्तरिक इच्छाके साथ-साथ सुदर्शनजीकी प्रेरणा भी पर्याप्त मात्रामें है ।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक किसी भी साधकको अपने लक्ष्यकी प्राप्तिमें समर्थ एवं सक्रिय सहयोग देगी ।
अनुक्रम
वक्तव्य : स्वामी अखण्डानन्द जी मन्त्रपाठ
3
1
पवित्रता
6
2
शान्ति
9
जागो
11
4
मुझे पुकारो
13
5
गुरु-शिष्य सम्बन्ध
16
पगली छलाँग
23
7
सच्ची प्राथर्ना
25
8
कठिनाइयोंका सामना करो
30
मैं प्रेम हूँ
35
10
आचरण ही सर्वस्व है
39
अभी और यहीं
43
12
केवल प्रकाश
48
आत्माकी वाणी
51
14
मूल्यांकन
57
15
टेढ़े मार्ग सीधे हो जायंगे
63
विश्वास करो
67
17
सदा कर्मरत रहो
71
18
मनकों श्मशान बना दो
75
19
मिथ्यासक्ति त्यागो
79
20
आत्म-शक्ति
83
21
गुरु-महिमा
89
22
आध्यात्मिक पराक्रम
93
विश्वासमें ही भलाई
99
24
आत्मविश्लेषण करो
103
अहंकारको मिटा दो
108
26
निरपेक्ष रहो
114
27
विश्व-प्रेमी बनो
118
28
सच्चा संन्यास
122
29
नित्य साक्षात्कार
126
ॐ तत्वमसि
128
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