गांधीजी पत्र-व्यवहार में बहुत ही नियमित थे। पत्त-व्यवहार के द्वारा ही वे असंख्य लोगों से हार्दिक सम्बन्ध रख सकते थे और उन्हें जीवन के ऊंचे आदर्श सिद्ध करने के लिए प्रेरित करते थे। जिसके साथ सम्बन्ध आया, उसके व्यक्तिगत जीवन में हृदय से प्रवेश पाना, उसकी योग्यता, उसकी खूबी और उसकी गहराई को समझकर उसके विकास में मदद देना, यह भी उनके पक्ष-व्यवहार की विशेषता। गांधीजी का पत्त-साहित्य उनके लेखों और भाषणों के जितना ही महत्व का है। उनके व्यक्तित्व की समझने के लिए उनका यह पत-साहित्य बहुत ही उपयोगी है। मैंने देखा है कि पत्रों में उनकी लेखन-शैली भी अनोखी होती है। संसार में शायद ही ऐसा कोई नेता हुजा होगा, जिसने अपने पीछे गांधीजी के जितना पत्र-व्यवहार छोड़ रखा हो।
गांधीजी का पत्र-व्यवहार पड़ते समय मुझे हमेशा यही प्रतीत हुआ है, मानो मैं पवित्र गंगाजी में स्नान और पान कर रहा हूं। मुझे उसमें हमेशा पवित्रता और प्रसन्नता का ही अनुभव हुआ है। उसके इर्द-गिर्द का वायुमंडल पावन, प्राणदायी और प्रशमकारी है।
इसीलिए जब श्री घनश्यामदासजी बिड़ला ने गांधीजी के साथ का अपना पत्त-व्यवहार मेरे पास भेज दिया तो मुझे बड़ा आनन्द हुआ और उत्साह के साथ मैं उसे पढ़ने लगा। जैसे-जैसे पड़ता गया, वैसे-वैसे स्पष्ट होता गया कि यह केवल घनश्यामदासजी और गांधीजी के बीच का ही पक्ष-व्यवहार नहीं है। इसमें तो गांधीजी के अभिन्न साथी स्व० महादेवभाई देसाई और घनश्यामदासजी के बीच का पत्र-व्यवहार ही सबसे अधिक है। इसके अतिरिक्त गांधीजी के अन्य साथियों, देश के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं, अंग्रेज बाइसरायों और कूटनीतिज्ञों के साथ का पक्ष-व्यवहार भी है और उनकी मुलाकातों का विवरण भी।
संक्षेप में- हमारे युग का एक महत्व का इतिहास इसमें भरा हुआ है। यह देखकर मेरे मुंह से उद्गार निकल पड़ा: 'काश ! यह सारी सामग्री पांच साल पहले मेरे हाथों में आती।
आज मेरी उम्र इक्यानवे वर्ष की है। विस्मरण ने अपनी हुकूमत मेरे दिमाग पर जोरों से चलाना शुरू कर दिया है। कई महत्व की बातें अब बड़ी रपतार के साथ भूलता जा रहा हूं। मुझे विषाद के साथ कबूल करना बाहिए कि पांच साल पहले यह सामग्री मेरे हाथ में आती तो जितनी गहराई में उतरकर में उसमें अवगाहत कर सकता, उतना आज नहीं कर पाऊंगा। फिर भी मैं मानता हूं कि मूलभूत तत्वों के चितन की बैठक अब भी मुझमें साबूत है। उसी के सहारे में इस सागर में डुबकी लगाने का वाइस कर रहा हूँ।
सन् १९१५ के पहले हमारे देशवासियों ने स्वराज्य-प्राप्ति के तरह-तरह के प्रयोग आजमाकर देखे थे। हमने विद्रोह का प्रयोग करके देखा। प्रार्थना-विनय का मार्ग भी आजमाया। औद्योगिक प्रगति में आगे बढ़ने के प्रयत्न किये। सामाजिक सुधार के आंदोलन चलाये। धर्म-निष्ठा बढ़ाने की भी कोशिशें कीं। स्वदेशी और बहिष्कार के रास्ते से भी चले और यम-पिस्तौल का मार्ग भी अपनाकर देखा। स्वराज्य के लिए जो-जी इलाज सूझे, या सुझाये गये, सब लगन के साथ आजमा- कर हम भारतवासियों ने देखे। फिर भी न तो स्वराज्य नजदीक आया, न आशा की कोई किरण दिखाई दी। हमारे बंद प्रयत्न तो अंग्रेजों का राज हटाने के बदले उसे मजबूत करने में ही मददगार हुए। देश बिलकुल घोर निराशा में पड़ा हुआा था, जब सन् १६१५ में गांधीजी दक्षिण आफ्रिका से भारत लौट आये।
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