प्रार्थना और विनयपूर्ण याचना वे दो पंख हैं जिनके सहारे मनुष्य ईश्वर के दरबार तक पहुंचता है। व्यक्ति को प्रार्थनापूर्ण अवस्था में निरन्तर रहना चाहिये। जब मनुष्य आध्यात्मिक रूप से स्वतंत्र होता है तब उसका मानस प्रार्थना की वेदी और उसका हृदय एक पावन शरणस्थली बन जाता है। प्रार्थना की अवस्था सर्वोत्तम अवस्था है, क्योंकि तब मनुष्य ईश्वर के निकट सान्निध्य में होता है। सच तो यह है कि प्रार्थना जीवन देती है, खासकर तब जब एकांत में की जाती है....।
ध्यान के सहारे मनुष्य शाश्वत जीवन पाता है। ध्यान के दौरान मनुष्य की चेतना स्वतः यह अनुभव करती है और सशक्त होती है; इसके सहारे वैसी बातों का ज्ञान मनुष्य को होता है, जिसके सम्बन्ध में पहले वह कुछ भी नहीं जानता था इसके सहारे मनुष्य दिव्य प्रेरणा पाता है और इसके सहारे ही मनुष्य स्वर्गिक आहार प्राप्त करता है। ध्यान रहस्यों के द्वार खोलने की कुंजी है। ध्यान की अवस्था मनुष्य को पाशविक प्रवृत्तियों से मुक्त रखती है, चीजों की वास्तविकता पहचानने की शक्ति देती है और मनुष्य को ईश्वर के समीप लाती है। इस अवस्था के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और कला का ज्ञान अदृश्य साम्राज्य से प्राप्त किया जा सकता है। ध्यान की अवस्था के सहारे आविष्कार सम्भव हो पाये हैं, बड़े-बड़े उपक्रम चलाये गये हैं...
अस्तित्व के संसार में प्रार्थना से अधिक मधुर कुछ भी नहीं है। मनुष्य को प्रार्थना की स्थिति में रहना चाहिए। प्रार्थना और अनुनय की स्थिति सबसे आशीर्वादित स्थिति होती है। प्रार्थना ईश्वर से वार्तालाप है। सर्वोत्तम उपलब्धि अथवा सबसे मधुर स्थिति ईश्वर से वार्तालाप के अलावा दूसरी कोई नहीं है। यह आध्यात्मिकता का सृजन करती है, हमें सजग बनाती है और हमारे मन में पावन भाव सृजित करती है, ईश्वरीय साम्राज्य के प्रति नये आकर्षण उत्पन्न करती है तथा उच्च स्तर के बुद्धिकौशल की ग्रहणशीलता प्रदान करती है।
अब्दुल बहा, 'स्टार आफ द वेस्ट' से उद्धृत
मनुष्य मूल रूप से आध्यात्मिक प्राणी है। उसकी आध्यात्मिकता का सम्बन्ध उसकी आत्मा से है और आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा से है। मनुष्य का भौतिक शरीर आत्मा का संवाहक है।
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist