हरियाणा ग्रंथ अकादमी द्वारा कार्यान्वित की जा रही योजनाओं के अंतर्गत हरियाणा की कला, संस्कृति, साहित्य तथा लोक साहित्य से संबंधित पुस्तकों का प्रकाशन किया जा रहा है। इसी योजना के अन्तर्गत लोकसाहित्य को समृद्ध करने वाली पुस्तक हरियाणवी लोक साहित्य में हास्य-व्यंग्य का प्रकाशन किया जा रहा है।
हरियाणा प्रदेश युग-युगातंर से लोक साहित्य रूपी सम्पदा से सम्पन्न रहा है। लोक साहित्य के अनेक रंग और रूप है- लोकगीत, लोकनाट्य, लोकगाथाएं, लोककथाएं और प्रकीर्ण साहित्य हरियाणा प्रदेश की धरोहर और धरती की सुगंध है। हरियाणा के लोग विनोदप्रिय हैं। हास्य उनके जीवन की उमंग है। लेकिन वर्तमान समय में आधुनिक भौतिकवाद की चकाचौंध, बढ़ते पाश्चात्य प्रभावों और टूटते सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के कारण लोकजीवन से हंसी-ठट्ठा गायब हो रहा है। डॉ. बलजीत सिंह ने 'हरियाणवी लोक साहित्य में हास्य व्यंग्य' विषय पर शोधकार्य कर एक नई दिशा का उद्घाटन किया है। लेखक ने हरियाणवी लोक साहित्य में हास्य व्यंग्य की विद्यमान फुलझड़ियों को ढूंढकर नया कार्य करने का प्रयास किया है। हास्य-व्यंग्य लोक जीवन का स्वाभाविक अंग है। जिस प्रकार भोजन में खट्टे-मीठे से रसास्वादन आता है, उसी प्रकार हास्य-व्यंग्य लोक जीवन में सहज रूप में विद्यमान रहते हैं।
हास्य और व्यंग्य के द्वारा जितना समाज का सुधार किया जा सकता है। उतना अन्य किसी भी साधन के द्वारा नहीं हो सकता। डॉ. बलजीत सिंह ने प्रस्तुत पुस्तक में हरियाणवी लोक साहित्य की समृद्ध परम्परा के सभी प्रकारों में हास्य-व्यंग्य की खोज करके एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से लोक साहित्य, संस्कृति के उपासकों, शोधार्थियों एवं जिज्ञासु विद्वानों को यथोचित जानकारी उपलब्ध हो सकेगी।
लोक-साहित्य लोक जीवन की एक ऐसी झांकी प्रस्तुत करता है, जिसके माध्यम से लोक जीवन हू-ब-हू अभिव्यक्त हो उठता है। हरियाणवी लोक साहित्य भी इससे अलग नहीं है। हमारे लोकजीवन में हास्य से जुड़ी अनेक घटनाओं, रीति-रिवाजों तथा उत्सवों के माध्यम से हंसी-मजाक के अनेकों किस्से कहानियां लोक-साहित्य में ज्यों के त्यों चित्रित होते देखे जा सकते हैं। लोकगीतों, लोककथाओं, लोकनाट्यों तथा प्रकीर्ण साहित्य में कदम-कदम पर हास्य-व्यंग्य बिखरा पड़ा है।
हरियाणवी जनमानस स्वभाव से ही विनोदी प्रवृत्ति के होते हैं। हास्य सहज रूप में उनके लोकमुख से प्रस्फुटित होता है। हाजिर जवाबी जितनी अधिक हरियाणवी जनमानस में देखने को मिलती है, उतनी अन्यत्र नहीं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हरियाणा का व्यक्ति हंसी-मजाक करने से नहीं चूकता।
हास्य की सृष्टि लोकमंच की पहली शर्त है, क्योंकि हास्य की मीठी मार के अन्तर्गत सामाजिक अन्याय, कुरीतियों, अंधविश्वासों, शोषण-वृत्तियों, फिजूलखर्चियों, बेमेल विवाहों, अनाचारों एवं कुकृत्यों की खूब धज्जियां उड़ाई जाती है। पूर्व पक्ष में बुराईयों का किला बनाकर अन्त में व्यंग्य या धर्मोपदेश की तोप से उड़ा दिया जाता है, ताकि जनता उससे शिक्षा ग्रहण करे।"
हास्य और व्यंग्य के उद्देश्य और महत्व को स्पष्ट करते हुए जी०पी० श्रीवास्तव कहते हैं- बुराई रूपी पापों के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरी गंगा जी नहीं है। यह वह हथियार है जो बड़े-बड़ों के मिजाज चुटकियों में ठीक कर देता है। यह वह कोड़ा है जो मनुष्य को सीधी राह से बहकने नहीं देता। मनुष्य ही नहीं धर्म और समाज को भी सुधारने वाला है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में मेरा पीएच०डी० क विषय 'हरियाणवी लोकसाहित्य में हास्य-व्यंग्य' है। मैंने इस शोधकार्य को पूरा करने के लिए शोध-प्रबन्ध का आवंटन छह अध्यायों में किया है।
पहले अध्याय में हास्य और व्यंग्य का अर्थ, परिभाषा, स्वरूप, तत्व, सीमाएं व व्यंग्य के प्रकार आदि विषयों पर भारतीय एवं पाश्चात्य मतों आदि विषयों पर प्रकाश डाला है। दूसरे अध्याय में हरियाणवी लोक-साहित्य का सामान्य परिचय और उसके वर्गीकरण का परिचय दिया है। तीसरे अध्याय में हरियाणवी लोकगीतों का अर्थ, परिभाषा, वर्गीकरण और इनमें हास्य-व्यंग्य पर कार्य किया है। चौथे अध्याय में हरियाणवी लोकगाथाओं और लोककथाओं में हास्य-व्यंग्य पर कार्य किया है। पांचवे अध्याय में हरियाणवी लोकनाट्य सांग या स्वांग में हास्य-व्यंग्य का वर्णन किया है। छठे अध्याय में हरियाणवी प्रकीर्ण लोकसाहित्य में हास्य-व्यंग्य पर शोधकार्य किया गया है। शोध-प्रबन्ध के निष्कर्ष को उपसंहार के माध्यम से दर्शाया गया है और अंत में सन्दर्भ ग्रन्थ सूची को दर्शाया गया है।
इस शोधकार्य की प्रक्रिया में मुझे जिन विद्वान श्रद्धेय गुरुजनों एवं प्रियजनों का सहयोग व प्रोत्साहन मिला है, उनका कृतज्ञता ज्ञापन करना मेरा प्रथम नैतिक कर्त्तव्य है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध को प्रस्तुत करते हुए मैं सर्वप्रथम साहित्य साधना में लीन, स्वनाम, धन्य, परम आदरणीय मेरे गुरु डॉ० भारतभूषण शर्मा जी, प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, आर० के० एस० डी० कॉलेज, कैथल के समक्ष श्रद्धावनत् हूँ, जिनके निर्देशन तथा मार्गदर्शन से यह प्रयास सम्पन्न हुआ। विषय चयन से लेकर अरूप के रूपांकन तथा उनकी सहयोगी प्रव प्रवृत्ति तथा सुनिर्देश से मेरा शोध-पथ-प्रदीप बना रहा, जिसके आलोक से मेरा यह अनुष्ठान निर्वाध सम्पन्न हुआ। उनका मृदु स्वभाव, स्नेहशील, उत्साहवर्धन तथा अकारण अनुग्रह का आभार शब्द परिधि से परे केवल हृदय संवेद्य हैं। समय-समय पर जब अध्ययन के दौरान मैं अनेक प्रश्नों से घिर जाता और मैं घबरा कर अपने वात्सल्यमय गुरु के पास जाता, वह मुझे मेरे ही लिये पृष्ठों में संभावनाएं ढूंढकर मुझे बता देते। उन्होंने मुझे जो संतुलित दृष्टि प्रदान की, उसकै लिए न तो धन्यवाद के खोखले शब्द उपयुक्त लगते हैं और न ही हार्दिक कृतज्ञता की अनुभूति को पूर्णतः अभिव्यक्ति करने वाले शब्द ही मिलते हैं।
मैं डॉ० वेदव्रत जी, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय, कुरुक्षेत्र का भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने मुझे हर प्रकार से सहयोग प्रदान किया। मैं आभारी हूँ आर०के०एस०डी० कॉलेज का जिसके पुस्तकालय से मुझे अपने शोध कार्य की निरन्तरता में सभी प्रकार की पुस्तकें मिलीं तथा मैं अपने शोध-प्रबन्ध को मूल रूप दे सका।
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