पुस्तक के बारे में
दुनिया में करीब-करीब हर आदमी अपनी विफलताओं से, दूसरों की स्वार्थपरता से, रिश्तेदारों के एहसान-फरामोशी से और पड़ोसियों की धोखेबाजी से जला-भुना बैठा है और उसे लगता है कि हँसी-खुशी के बजाय यह जिंदगी रोते-झींकते ही निकलती जा रही है । किसी से थोड़ी सी हमदर्दी दिखा दीजिए, वह आपके सामने अपनी जिंदगी की पीड़ाओं और कुंठाओं का महाकाव्य खोलकर रख देगा-किस तरह लोगों ने उसकी मदद ली और बदले में बदनामी की, कैसे-कैसे नाशुक्रे जहरीले लोगों ने उसकी सहायता से तरक्की की और आखिर उसी को डस लिया, किरन तरह ऐसे-वैसे लोग आज कैसे-कैसे बन गये हैं और पुराने उपकार भूल गये हैं । कोई निराशा के गहरे गर्त में पड़ा है और देख रहा है कि जिंदगी का जुलूस उसे बहुत पीछे छोड गया है, कोई इस बात से खिन्न है कि बिल्कुल ही अयोग्य लोग शिखर पर जा पहुँचे हैं और वह पूरी योग्यता रखते हुए भी नीचे खड़ा रह गया है । कोई अकेलेपन की स्वनिर्मित कैद में पड़ा तनाव, डिप्रेशन एव आत्मग्लानि के दलदल में छटपटा रहा है । सभी अपनी विफलताओं और हताशाओं के लिए दूसरों को दोष दे रहे हैं ।
यह पुस्तक आपको बताती है कि दुनिया में एक? ही आदमी आपको दुःखी और असफल बना सकता है-आप स्वय । दुःख, भय, पश्चाताप और नाउम्मीदी सिर्फ आपकी आदतें हैं, परिस्थितियाँ नहीं । सभी को दिन में चौबीस घण्टे और जीवन में 70-80 वर्ष ही मिले हैं लेकिन कोई सूर्य की तरह आसमान में जगमगाकर पृथ्वी को आलोकित कर देता है और कोई हाथ मलता रह जाता है। यह पुस्तक बताती है-सुख-दुःख एवं सफलता-विफलता क्यों और कैसे प्राप्त होती है?
लेखक-परिचय
विख्यात लेखक प्रो. राजेन्द्र गर्ग (जन्म 1945) 1966 से 2002 तक राजस्थान के राजकीय महाविद्यालयों में स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं में अंग्रेजी भाषा और साहित्य का अध्यापन करते रहे हैं । 1967 से ही आपके लेख टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, केरेवेन, सरिता, मुक्ता, कादम्बिनी, साप्ताहिक धर्मयुग, मधुमती, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका और नवज्योति में प्रकाशित होते रहे हैं । आपके लेखन के विषय हैं दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य, इतिहास, धर्म, राजनीति और समाजशास्त्र । आपकी हिन्दी और अंग्रेजी कविताएँ कई ख्यातिप्राप्त राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं । आपकी पुस्तकें जैसे 'सुखमय वृद्धावस्था' और 'सफल जीवन की राहें' काफी लोकप्रिय हुई हैं । कुछ काव्य सग्रह शीघ्र ही प्रकाशित हो रहे हैं । वर्तमान में आप ऑल इंडिया रेडिकल ह्यूमनिस्ट आन्दोलन से जुड़े हुए हैं और 'नव- मानव' द्वैमासिक पत्र का संपादन कर रहे हैं ।
प्रस्तावना
इस संसार में इतना दुःख-दर्द कहाँ से आ गया? धरती के इस विराट रंगमंच पर हर आदमी क्यों पीड़ा से कराह रहा है? भेड़ियो के जंगल में मयूर मस्ती से नाच रहे हैं, सिंहों की घाटी में हिरन चौकड़ी भर रहे हैं, झिंगुरी ने साँपों से भरी झाड़ियों में तान छेड़ी हुई है, वृक्षों के झुरमुट में परिंदे संगीत का झरना बहा रहे हैं, कसाई के घर जाता हुआ बकरा मजे से नीम की पत्तियाँ चबाता हुआ उछलता-कूदता आगे बढ़ रहा है, सपेरे की पिटारी में कैद साँप बीन के सुरों पर झूम रहा है, तो फिर यह आदमी ही क्यों सिसक रहा है, रो रहा है?
किसी भी आदमी को थोड़ा-सा खरोंचकर देखिएगा तो पाइएगा कि हर शख्स के भीतर तरह-तरह की घबराहटों, आशंकाओं, पछतावों, नाराजगी, गुस्सा, ईर्ष्या, तनाव, निराशा, पराजय, चिंताओं, उलझनों आदि का कडुवा बदबूदार सैलाब उमड रहा है । थोडी-सी हमदर्दी और अपनेपन के साथ किसी से दो मिनट बैठकर बात कर लीजिए, बस फिर क्या है, वह आपके सामने अपनी जिंदगी की पीड़ाओं और कुंठाओं का महाकाव्य खोलकर रख देगा-कैसे-कैसे धोखे दिये हैं उसे अपने ही लोगों ने, कब-कब पीठ में लगे-सम्बन्धियों ने छुरे भौंके हैं, जिन्हें अपना दूध और खून पिलाकर पाला- पोसा वे कितने एहसान-फरामोशे निकले, हर किसी की भलाई करने पर भी लोगों से कितना अपमान और बदनामी मिली, नाशुक्रे और नीच लोगों ने उसकी नेकनीयती का फायदा उठाकर अत में कैसे उसे डस लिया, पैर चाटने वाले कीड़े आज कैसे कारों में घूम रहे हैं, लोग उससे क्यों जले-भुने बैठे हैं, और अत में कैसे यह जिंदगी रोते-झींकते ही निकल गई ।
प्राचीन रोमन दार्शनिक सिनेका की एक पुस्तक पढ़ते हुए मुझे शाश्वत सत्य से परिपूर्ण एक वाक्य मिला-“No man is unhappy except by his own fault.” हर दुःखी आदमी सिर्फ अपनी गलती से ही दुःखी है । जिसे जिंदगी जीने की अकल नहीं है वही दुःखी है । एक संस्कृत कवि ने कहा है-
शोकस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च
दिवसे दिवसे मूढ़माविशंति न पंडितम्।
प्रतिदिन मूर्ख ही इस जीवन में कदम-कदम पर हजारों दुःख के स्थानों और सैकड़ों भय के स्थानों पर पहुँचता है, समझदार नहीं । यह ठीक वही बात है जो एक अन्य कवि ने कही है-
देह धरे का दंड है, सब काहू को होय ।
ज्ञानी हँसकर काट दे, मूरख काटे रोय ।।
भूल जाइए कि पडोसियों, रिश्तेदारों और परिवारजनों की खुदगर्जी और बेदर्दी ने आपको तकलीफ पहुँचाई है । बिल्कुल नहीं । आपको दुनिया में सिर्फ एक ही आदमी तकलीफ पहुँचा सकता है-आप खुद । बदकिस्मती का बहाना मत बनाइए, याद रखिए-हिम्मते मर्द मददे खुदा । ' 'मूढ़ै: प्रकल्पित दैवं तत्परास्ते क्षयंगता' ' अर्थात् भाग्य की कल्पना पराजित और क्षीण हुए मूर्खों ने की है । ऋग्वेद में कहा है-न कते श्रांतस्य सख्याय देवा: । अर्थात् परिश्रमी के अतिरिक्त ईश्वर किसी की सहायता नहीं करता। ऐतरेय में कहा है-
आस्ते भग आसीनस्य उर्ध्वस्तिष्टति तिष्ठत:
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भग: ।
लेटे हुए आदमी का भाग्य लेटा रहता है, बैठे हुए का भाग्य भी बैठा रहता । है, उठ खड़े होने वाले का भाग्य उठ खड़ा होता है, चलने वाले का भाग्य चल पड़ता है । इसलिए अपने सुख-दुःख के जिम्मेदार आप खुद हैं ।
बहुत-से लोग अपने दुःखों से दुःखी नहीं बल्कि दूसरों के सुखों से दुःखी हैं । वे अपनी साइकिल से खुश थे मगर जब से पडोसी ने कार खरीदी है? वे दोजख की आग में जल रहे हैं । कोई सारी दुनिया से नफरत करता है । वह अकेला पड़ गया है क्योंकि उसने किसी से प्रेम नहीं किया । कोई जीवन भर, असंतुष्ट ही रहता है- परिवार से असंतुष्ट, रिश्तेदारों से असंतुष्ट, जमाने से स्फंट और खुद से असंतुष्ट । कोई गुस्से से फन-फना रहा है और बदला लेने का इंतजार कर रहा है, उसके दिल में हजारों बिच्छू डंक मार रहे हैं । कोई हर आदमी पर शक करता है और हमेशा इस घबराहट में रहता है कि लोग उसे मूर्ख बनाकर ठग लेंगे, किसी को भविष्य में बुरे दिन दिखाई दे रहे हैं, कोई पुरानी गलतियों पर पछता रहा है, और काफी लोग उन मुसीबतों से चिंतित हैं जो कभी नहीं आने वाली हैं ।
निराशा के धुएँ से बाहर निकलकर देखिए, चारों तरफ उल्लास की बौछार हो रही है । यह पुस्तक तो सिर्फ पीड़ा और हताशा की अँधेरी गुफा से बाहर निकलने की पगडंडी दिखा सकती है। चलने का इरादा तो आपका ही होगा ।
व्यक्तित्व-विकास और उत्थान की प्रेरणा देने वाली पुस्तकें बड़ीसंख्या में लिखी जा रही हैं लेकिन बहुत क्य पुस्तकों में ही इस विषय का सम्पूर्ण विवेचन किया जाता है । कई पुस्तकों में केवल उपदेशों द्रारा ही पाठकों को प्रेरित करने का प्रयास किया जाता है जैसे-निराशा को दूर भगायें, उत्साह से कार्य करें, आशावादी बनें, साहसी बनें, सभाओं में बोलने से न डरें, इंटरव्यू में घबरायें नहीं आदि आदि । यह सारी कवायद निरर्थक है। सभी लोग आशावादी बनना चाहते हैं और इंटरव्यू में घबराना नहीं चाहते । इन उपदेशों से उन्हें क्या नयी बात मिल जाने वाली है? इसलिए इन उपदेशात्मक पुस्तकों से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है । कुछ अन्य पुस्तकें जो फ्रॉयड के मनोविश्लेषण पर आधारित होती हैं प्राय: शैशव और बाल्यकाल के अनुभवों का विश्लेषण करती हैं और यह समझाती हैं कि आपका मानस जैसा भी बनना था बचपन में ही बन चुका है । इस प्रकार के शास्त्रीय विश्लेषण से भी पाठक को लाभ नहीं होता है । उसकी धारणा यह बन जाती है कि वह बदल नहीं सकता।
अमेरिका में बिहेवियरल साइकोलोजी पर खोजें हो रही हैं । ये मनोवैज्ञानिक केवल नये प्रकार की संवेगात्मक आदतें डालकर उम्मीद करते हैं । कि रोगी मानस को स्वस्थ किया जा सकता है।
उपर्युक्त सभी विधियाँ अकेले-अकेले तो अधूरी ही हैं । मन के कार्य- व्यापार बड़े ही उलझन भरे हैं । किसी मनुष्य का व्यवहार देखकर हम भ्रमित हो सकते हैं कि वह बड़ा आक्रामक या रौबीला या हावी होने वाला व्यक्ति है और आत्मविश्वास से लबालब है । मनोवैज्ञानिक जानता है कि उसका सारा ' बड़बोलापन और रौब उसकी गहरी आत्महीनता का ही लक्षण है ।
मैंने इस पुस्तक में मनोविज्ञान की सभी धाराओं का समावेश करने की कोशिश की है । पाठकों से आशा करता हूँ कि वे अपनी प्रतिक्रियाओं और । सुझावों द्वारा मेरा मार्गदर्शन करने की कृपा करते रहें।
विषय
1
अपने भीतर टटोलकर देखें
2
सुख और सफलता में हम ही बाधक
8
3
उदासी से उल्लास की ओर
15
4
अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति
22
5
मुसीबतें खाली दिमाग की उपज़
28
6
तनाव, सिर्फ एक बुरी आदत
33
7
कच्चे व्यक्तित्व की कड़वाहट
39
निराशा का अंधेरा
46
9
अकेलेपन की कैद
52
10
निंदा करने वालों को धन्यवाद
58
11
ऐसे ही तो विवाह टूटते हैं
65
12
ईर्ष्या की आग
73
13
मित्र बिना है जीवन सूना
78
14
नेकी कर कुएँ में डाल
84
उफन पड़ना या सुलगते रहना
91
16
कल कभी नहीं आता
96
17
व्यवहारकुशलता का चमत्कार
101
18
अपने आप को न धिक्कारे
106
19
काल्पनिक खतरों से घबराहट
112
20
आत्मविश्वास के शिखर पर
119
21
लोग क्या सोचेंगे?
127
इनके साथ हमदर्दी रखें
132
23
साक्षात्कार में घबराहट
137
24
बचकाना व्यक्तित्व
144
25
माफ कर दो और भूल जाओ
150
26
विवाह या आजीवन कारावास
157
27
काले चश्मे में सब काला
164
अपनी तस्वीर सुंदर बनाएँ
170
29
जीवन भर का बचपना
176
30
दूसरे की भी सुनिए
181
31
मतभेद से मनभेद न हो
187
32
व्यवसाय वह जो मन को भाये
192
विजेता और पराजित लोग
197
34
चिंता की चिता
203
35
प्रशंसा का जादू
207
36
बदला लेने की बेचैनी
212
37
चाँद पकड़ने के लिए मचलना
217
38
बाहर से दादा अंदर से कमजोर
223
जीवन भर जवान बने रहें
227
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