निवेदन
मनुष्ययोनि पाकर भी प्राय: मनुष्य भोग भोगने और धन संग्रह करनेमें ही लगे हुए हैं। मनुष्य-जीवनका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। इस बातको जाननेकी बात तो दूर रही, लोग ठीक तरहसे सुनना भी नहीं चाहते। ऐसा जीवन पशु-जीवनके तुल्य नहीं, बल्कि उससे भी नीचा है । पशु तो प्रारब्ध कर्म भोगकर उत्थानकी ओर जा रहा है। मनुष्य नये-नये पाप करके आसुरीयोनि और नरकोंकी तैयारी कर रहा है । इस दशापर भगवान्को तरस आता है कि मैंने मनुष्ययोनि मेरे पास आनेके लिये दी थी, परन्तु यह मनुष्य किधर जा रहा है। इसी बातको आसुरी सम्पदाके प्रकरणमें गीता 16। 20 में 'मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्' पदसे भगवान्ने कहा है। संत लोग भगवान्के भावको समझकर ऐसा प्रयास करते हैं कि जीव किस तरह अपना कल्याण कर ले, यह महान् दुःखोंसे बच जाय। उनके भावी दुःखोंका चित्र उनके हृदयके सामने आ जाता है। इसलिये उनके द्वारा स्वाभाविक ऐसी चेष्टाएँ होती हैं कि कोई भी बात स्वीकार करके यह मनुष्य अपने जीवनको उन्नत बना ले, किसी प्रकार भगवान्की ओर चल पड़े तो यह महान् दुःखोंसे बचकर महान् आनन्दको प्राप्त कर ले।
गीताप्रेसके संस्थापक श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने अपनी छोटी अवस्थासे ही इस प्रकारका प्रयास आरम्भ कर दिया था । वे छोटी आयुसे ऋषिकेश जाने लग गये थे । वहाँ गंगाजी, वैराग्यकी भूमिमें उन्हें भगवद्धबानमें बहुत ही आनन्द आता था । उनके मनमें आती कि जैसा थोड़ा-सा भगवद्विषयक आनन्द मुझे प्राप्त है, यह सभी भाई-बहिनोंको भी प्राप्त हो जाय । इस उद्देश्यकी पूर्तिके लियेवे सत्संग कराते और सत्संगी भाई-बहिनोंके लिये ठहरने एवं भोजनादिकी व्यवस्था भी गीताभवन स्वर्गाश्रममें उन्होंने की ।
गीताभवनकी स्थापनासे पूर्व प्राय: कानपुरवालोकी कोठीमें ठहरकर वटवृक्षके नीचे सत्संग कराया करते थे । वटवृक्षके सत्संगकी महिमा ही अलग थी । गंगाजीकी रेणुका, बन, गङा, पहाड़ तथा ऐसे स्थानपर भगवत्-अधिकारप्राप्त महापुरुषके द्वारा सत्संग, यह दुर्लभ आयोजन था । वहाँ जो बातें कही जाती थीं, उन बातोंको सत्संगी श्रद्धालु भाई लिख लेते थे । उन बातोंमें माता, बहिनों, बालकों तथा गृहस्थ भाइयोंके लिये बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कही गयी हैं । सरल भाषामें सुगमतासे जीवनमें आनेवाली बातें तथा गृहस्थमें कलह न रहे, व्यापार कैसे शुद्ध बने, इस प्रकारके प्रवचन मिलते हैं। ऊँची-से-ऊँची ध्यानकी, ज्ञानकी, भक्तिकी, वैराग्यकी तथा साधारण-से-साधारण बात बड़ोंको प्रणाम करनेकी, घरोंमें रसोईमें भेद न रखना तथा किसीको कठोर वचन न कहना आदि मिलती है। इन बातोंको हम अपने जीवनमें लाकर घरमें शान्ति तथा अपना कल्याण सुगमतासे कर सकते हैं।
इस पुस्तकके एक प्रवचनमें श्रद्धेय श्रीगोयन्दकाजीने यह प्रेरणा दी है कि इस प्रवचनका प्रचार करो। आज दम्भका, स्वार्थका बोलबाला हो रहा है। उनके प्रवचन पढ़कर हमलोग दम्भी, ठग लोगोंके चंगुलमें नहीं फँसेंगे तथा हममें स्वार्थत्यागकी भावना जगेगी। अत: पाठकोंसे हमारा विनम्र निवेदन है कि ऐसे महापुरुषकी वाणीका हम अध्ययन करें और अपने बन्धु-मित्रगणोंको पढ़नेकी प्रेरणा दें। जिससे वे भी कल्याणकी ओर अग्रसर हों।
विषय
1
चेतावनी
7
2
चार रत्न
12
3
भविष्यका संकल्प न करें
16
4
ध्यानकी विधि
19
5
सत्संगकी महिमा
26
6
भगवान्की दयाका तत्त्व जाननेका प्रभाव
32
भगवत्प्राप्तिमें भोग ही बाधक है
35
8
भक्तिकी तथा स्त्रियों एवं गृहस्थोंके लिये महत्त्वपूर्ण बातें
39
9
ध्यानका विषय
46
10
कल्याणकारी बातें
53
11
निरन्तर भगवत्स्मरण करें
62
एक-दूसरेसे प्रेम करें
67
13
महात्माके वचनोंकी परायणता कल्याणकारक
69
14
अपने सुधारकी आवश्यकता
80
15
भगवान् शीघ्र कैसे मिलें?
89
ज्ञान, चेतन-स्वरूप परमात्माका ध्यान
94
17
राग-द्वेष मूल दोष हैं
106
18
भजन, ध्यान, सत्संग ही करें
110
वैराग्यकी महिमा
113
20
सृष्टि-रचनाका क्रम
116
21
आनन्द कैसे मिले?
120
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