संस्कृत साहित्य एक महान् वटवृक्ष है, वेद उसका मूल है, ब्राह्मण और आरण्यक उसके तने हैं; रामायण, महाभारत और पुराण उसका परिपुष्ट मध्यभाग है जिसके ऊपर विविध दर्शन, धर्मशाख, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व-विद्या, वास्तुशास्त्र आदि भौतिक ज्ञान-विज्ञान को पल्लवित करने वाली बहुमुखी शाखाएं हैं। इसी कारण, संस्कृत साहित्य का अनुसन्धान हर युग और हर देश के विद्वानों के लिये मानव जीवन के सकल लक्ष्य की सर्वाङ्गीण सिद्धि के लिये सर्वदा सफल प्रयास सिद्ध हुआ है। संस्कृत साहित्य विश्व का सर्व प्राचीन साहित्य है; और ऋग्वेद विश्व-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है। 'जो वेद में है वही सर्वत्र है और जो बेद में नहीं, वह कहीं भी नहीं'- यह सदुक्ति सर्वथा चरितार्थ है। इस साहित्य का कलेवर इतना पुरातन होते हुए भी आजतक दृढ एवं बद्धमूल है। अनेक सदियों के बीत जाने पर भी इसका उत्तरोत्तर प्रसार अव्याहत गति से होता रहा है, और इसकी शाखा- प्रशाखाएँ इतनी विस्तृत हो चुकी हैं कि प्रत्येक अपने अपने पीवर अङ्गों एवं उपाङ्गों के कारण स्वतन्त्र सत्ता बनाये हुए है। कालक्रमानुसार परिवर्धमान संस्कृत साहित्य का आयाम इतना विस्तृत हो चुका है कि इसकी प्रत्येक शाखा के उद्गम एवं प्रसार की पूर्वापरता का निर्णय करना आज अनुसन्धान का एक प्रमुख, परन्तु कठोर, विषय बन गया है। कठोरता का मुख्य कारण यह है कि आमुष्मिक चरम सुख की अवाप्ति के प्रधान लक्ष्य को रखनेवाले भारतीय मनीषियों ने ऐहिक प्रतिष्ठा को सदा गौण समझ, विविध साहित्यिक रचनाओं के निर्माण से प्रसूत कीर्त्ति को नगण्य मानते हुए अपने और अपनी रचना के देश-काल के सम्बन्ध में सदा मौन का अवलम्बन किया है। परिणाम यह हुआ कि किसी भी प्राचीन ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के देश-काल तथा परस्पर पूर्वापरता के सम्बन्ध में निर्णय तत्प्रतिपादित विचारों के विकासक्रम तथा भाषा के प्रतियुग सहज परिवर्तनशील स्वरूप के आधार पर विहित अनेक ऊहापोह द्वारा सांधित अनुमितिमात्र हैं; और वे प्रतिदिन उपलभ्यमान नये नये पुरातत्वों के आलोक में स्वरूपगत परिवर्तन के सर्वथा सहिष्णु हैं।
इस दिशा में प्रथम प्रयास संस्कृत साहित्य की ओर अभिनिवेश से अनुप्राणित पाश्चात्य विद्वानों ने प्रस्तुत किया, और उनके अविश्रान्त अनुसन्धानों के फलस्वरूप न केवल विविध भाषा एवं विभाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का ही उपक्रम हुआ, अपि तु कहीं दूर दूर तक प्रसृत संस्कृत साहित्य की विभिन्न शाखाओं का मूल से सम्बन्ध स्थापित कर प्रत्येक प्ररोह के अनुक्रम का निर्धारण करते हुए परस्पर श्रृङ्खलित करने वाले साहित्यिक इतिहास का भी प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुतः, ऐतिहासिक दृष्टि से साहित्य का अध्ययन पाश्चात्य मनीषिर्यो की ही देन है जिन्होंने न केवल ग्रन्थ एवं ग्रन्धकारों के ही तिथिक्रम को सिद्ध करने की चेष्टा की है अपितु तत्कालीन समाज की सभ्यता एवं संस्कृति के स्वरूप एवं विकास के विभिन्न सोपान को भी स्थिर करने का सफल प्रयत्न किया है। पाश्चात्य विद्वानों के संस्कृत साहित्य-सम्बन्धी अनुसन्धानों के बल समग्र मानव जाति की सभ्यता एवं संस्कृति के ऐतिह्य की रूपरेखा अङ्कित की जा सकी, और भारतीय सभ्यता की प्राचीनता एवं अनुपम गरिमा भी विश्व के समक्ष स्पष्ट रूप से प्रकट हुई। ईसवी १८ वीं शताब्दी में पाश्चात्य पण्डितों का संस्कृत साहित्य की ओर आकर्षण हुआ; और तब से लगातार पश्चिम के विद्वान् संस्कृत वाब्यय की विविध शाखाओं का अध्ययन करते रहे, और समय समय पर वहाँ के विद्वत्समाज के हित संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद तथा वैज्ञानिक संस्करण एवं आलोचनात्मक निबन्ध भी प्रकाशित करते रहे। इन मनीषियों ने दुरवगाह संस्कृत साहित्य का मन्धन कर वेद, व्याकरण, धर्मशास्त्र, काव्यशास्त्र जैसे मौलिक विषयों पर अभूतपूर्व प्रकाश डाला; तथा संस्कृत साहित्य में सुगम प्रवेश के हेतु व्याकरण, शब्दकोश तथा भाषाशास्त्रीय ग्रन्थों की रचना की। साथ ही साथ उन्होंने सुदीर्घकाल से प्रचलित इस साहित्य की टूटी हुई कड़ियों को जोड़ क्रमबद्ध इतिहास को उपस्थित करने की उत्साहपूर्वक चेष्टा की। इस प्रकार संस्कृत वाङ्यय और उसमें प्रतिविम्बित भारतीय प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति के इतिहासकारों में आचार्य मैक्स म्यूलर, श्रेडर, श्लेगल, वेबर ने महनीय मौलिक प्रयास किया; परन्तु इन मनीषियों का यह भव्य प्रयास अपनी अपनी अभिरुचि के अनुसार प्रायशः एकाङ्गी रहा और समग्र साहित्य की परिपूर्ण रूपरेखा किसी एक प्रबन्ध में प्रस्तुत करने की कमी बहुत समय तक बनी रही। इसी कमी का अनुभव करते हुए आचार्य आर्थर एण्टनी मैक्डोनल ने एक सुगम सुबोध संस्कृत साहित्य के इतिहास का प्रणयन किया। आचार्य मैक्डोनल एक महान् अध्यवसायी कर्मठ विद्वान् हुए जिन्होंने अपनी प्रतिभा का सदुपयोग संस्कृत व्याकरण, वैदिक पदानुकमणी तथा शब्दकोश के निर्माण से लगा कर संस्कृत साहित्य के इतिहास की रचना तक बड़ी सावधानी से किया। उनके इन उदार प्रयासों के कारण आज का संस्कृत अध्येता उनका सदा कृतज्ञ एवं अधमर्ण है। यद्यपि आचार्य मैक्डोनल के पूर्वांचायों ने भी संस्कृत वाञ्चय के इतिहास पर अनेक रचनाएँ प्रस्तुत की हैं, तथापि मैक्डोनल कृत 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' कहीं अधिक व्यापक एवं प्रामाणिक होते हुए अन्त्यन्त सुबोध है। इसी कारण मैक्डोनल की इस कृति की उपादेयता अधिक सिद्ध हुई, और आज भारत का कोई विश्वविद्यालय ऐसा नहीं जहाँ इसने पाठ्य-क्रम में स्थान न पाया हो, और न आज का कोई संस्कृत खातक ऐसा है जिसने मैक्डोनल के संस्कृत साहित्य के इतिहास का अध्ययन न किया हो। इस ग्रन्थ की इतनी उपादेयता एवं पाठक-प्रियता होते हुए भी आज तक, दुर्भाग्यवश, यह अनमोल ग्रन्थ केवल अङ्ग्रेज़ी भाषा से अभिज्ञ छात्रों की परिमित सीमा तक ही अध्येताओं को लाभान्वित कर सका। आज हमारे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है; और हिन्दी के ही माध्यम से सर्वत्र शिक्षा का उपक्रम प्रस्तुत है। ऐसी अवस्था में अंग्रेज़ी भाषा द्वारा प्रणीत प्रकृत ग्रन्थ का उपयोग सकल छात्रवृन्द सहज कर सकें इसी हेतु इसका हिन्दी अनुवाद नितान्त अपेक्षित है। इसी अपेक्षा की पूत्ति के उद्देश्य से हिन्दी रूपान्तर कर आचार्य मैक्डोनल के इस अनर्घ ग्रन्थ को सर्वसाधारण के उपयोग के योग्य बनाने की चेष्टा की गई है। तत्रापि, अनुवाद करते समय प्रारम्भिक अध्येताओं की अपेक्षाओं का विशेष ध्यान रखा गया है। प्रस्तुत रूपान्तर सर्वत्र प्रतिपद अनुवाद नहीं है, परन्तु आचार्य मैक्डोनल के वक्तव्य को यथावत् पाठक के सम्मुख उपस्थित करने का प्रयास है। यत्रतत्र मूल लेखक ने प्रतिपाद्य विषय के निदर्शन के लिये वैदिक संहिता एवं उपनिषदों के अनेक उद्धरण अङ्ग्रेज़ी में पद्यबद्ध अनूदित कर स्थान स्थान पर दिये हैं। मूल अन्ध को पढ़ने वाले छात्र उद्धत अंशों के मूल पाठ से परिचित नहीं हो पाते, और अङ्ग्रेज़ी पद्य सहज कण्ठस्थ भी नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में छात्र उन मूल उद्धरणों को अपेक्षित स्थानों पर उल्लिखित करने में असमर्थ ही रहते हैं। इस कठिनाई को दूर करने के उद्देश्य से मूल अन्धकार द्वारा उद्धृत, अङ्ग्रेज़ी में अनूदित अंशों के स्थान पर मूल मन्त्रों का पाठ ही दे कर छात्रों के बोध के लिए टिप्पणी में उन मन्त्रों का अर्थ हिन्दी में दिया गया है। हिन्दी में मन्त्रों का वही अर्थ किया गया है जो आचार्य मैक्डोनल को अभिप्रेत है यद्यपि हमारे प्राचीन भाष्यकार सायण द्वारा किये हुए अर्थ से वह बहुधा विभिन्न है। रूपान्तरकार को मूलग्रन्थ का विधेय होकर ही रहना होता है, और अनूदिता ने अवधानपूर्वक इस उत्तरदायिता के वहन करने का पूर्ण प्रयत्न किया है; साथ ही साथ अपेक्षित स्थलों पर आचार्य सायण द्वारा विहित अर्थ का उल्लेख भी तुलनात्मक अध्ययन में सौकर्य सम्पादन की दृष्टि से किया है।
निस्सन्देह, यह एक अजीब सी बात है कि समूचे संस्कृत साहित्य के इतिहास पर आज तक अंग्रेजी में कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया ।
संस्कृत साहित्य में प्रचुर मात्रा में वास्तविक गुण हैं; इतना ही नहीं - वह हमारे भारतीय राज्य की जनता के जीवन एवं विचारों पर प्रभूत प्रकाश डालता है इस दृष्टि से भी वह साहित्य ब्रिटिश राष्ट्र के लिए सविशेष अभिरुचि का विषय है। उक्त विषय से पर्याप्त परिचय न होने के कारण, यहाँ के अनेक तरुण, जो प्रतिवर्ष भारत के भावी प्रशासक बनने के लिए समुद्र तरण करते हैं, वहाँ के उस साहित्य के विषय में क्रमबद्ध परिचय से वञ्चित ही रहते हैं जिसमें आधुनिक भारतीय सभ्यता का अपने मूल स्रोतों से पारम्परिक सम्बन्ध अन्तर्निहित है और जिसके ज्ञान के विना भारतीय सभ्यता भली-भाँति समझी नहीं जा सकती। इसी कारण, मैं ने श्री गॉस के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार करते हुए "विश्व-साहित्य-माला" के अन्तर्गत प्रस्तुत ग्रन्थ को तैय्यार करने का विचार किया। कारण, यह बह सुअवसर था जिसके द्वारा बीस वर्ष से भी अधिक अविच्छिन्न अध्ययन-अध्यापन के फलस्वरूप प्रतिदिन एधमान मेरी अभिरुचि के विषय पर मैं कुछ परिचयात्मक सामग्री जनता के समक्ष उपस्थित कर सकता था।
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