हिन्दी साहित्य और संवदेना का विकास (1986: सोलहवाँ संवर्द्धित संस्करण:2002) रामस्वरूप चतुर्वेदीकी बहुपठित और चर्चित इतिहास कृति है। साहित्य के गद्य पक्ष का विस्तृत व्यौरेवार अध्ययन उन्होंने हिन्दी गद्य: विन्यास और विकास (1996) शीर्षक से प्रस्तुत किया। इस क्रम में कविता के स्वतंत्र आलोचनात्मक अध्ययन की अपेक्षा अभी थी। वह इस नयीकृति हिन्दी काव्य का इतिहास से पूरी होती है। यहाँ हिंदी कविता के विविध कालों, उनकी प्रवृत्तियों, और विशिष्ट रचनाकारों का क्रमबद्ध व्यवस्थित अध्ययन किया गया है। यों, कबीर से लेकर कविता के नवीनतम विकास क्रम को उस की सूक्ष्म से सूक्ष्म भंगिमाओं में दरसाया जा सका है।
प्रस्तुत अध्ययन में लेखक की पूर्व प्रकाशित हुई कृतियों का, कुछ नये पर्यवेक्षणों के साथ, संयोजन संगमन कुछ इस रूप में हुआ है कि हिंदी कविता के संदर्भ में एक समग्र नया परिप्रेक्ष्य उभरता है, जिससे पूरी हिंदी कविता के संवेदनात्मक विकास, तथा उस के विशिष्ट कवियों को समझने में महत्वपूर्ण दृष्टि सामने आती है।
इस रुप में हिन्दी कविता के सामान्य पाठक और विशिष्ट अध्येता इस कृति को समान रूचि के साथ उपयोगी पाएँगे। यों, आलोचना की उपर्युक्त ये तीनों रचनाएँ परस्पर सापेक्षता में स्वतंत्र समग्र अध्ययन हैं, हिंदी साहित्यकी संवेदनशील समझ बनाने के लिए।
इस युग के कई विरोधाभासों की तरह एक यह भी है कि एक ओर लगना है जैसे हमारे समूचे जीवन-क्रम में कविता को हाशिए पर डाल दिया गया है तो दूसरी ओर समझ में आता है कि यंत्र से अधिकाधिक ग्रस्त, और फिर ग्रस्त होते आधुनिक मनुष्य के लिए प्रकृति और कविता अधिक आकर्षक और उपकारी हो रहे हैं । वृक्ष और कविता-पुस्तक के प्रति रुझान बढ़ा है भौतिक और आध्यात्मिक प्रदूषण का शमन करने के लिए ।
कविता का महत्व बढ़ता है तो काव्यानुशीलन का भी है इस दृष्टि से ओर भी कि आधुनिक आलोचना कविता के पुनर्सर्जन का दायित्व मान कर चलती है । उसके लिए साहित्य यदि जीवन की पुनर्रचना है तो आलोचना को साहित्य की पुनर्रचना होना चाहिए । हिंदी कविता का प्रस्तुत अध्ययन कहाँ तक इस मान्यता को पुष्ट करता है, इसका निर्णय तो कविता और इस काव्यालोचन के पाठक ही कर सकते हैं, क्योकि किसी भी प्रकार की पुनर्रचना के अंतिम लक्ष्य और समुचित आश्रय तो वे ही हैं ।
'हिन्दी काव्य का इतिहास' में एक नयी प्रकार की आलोचना-व्यवस्था है इस अर्थ में विशेषत: कि वह अपने उपजीव्य काव्य की ही तरह क्रमश: विकसित हुई है लेखक की पिछली कई कृतियों के संयोजन और संगमन के बीच । तब उस के अध्यायो में पाठक कई जगह पुनरावृत्ति लक्षित करेगा; पर इस से उन अंशों का महत्व और बल एक साथ ही प्रकट हो सकेगा किसी भी संवेदनशील पाठक के प्रिय काव्य-प्रसंगों की तरह ।
जन्म : 1931 ई. में कानपुर में । आरंभिक शिक्षा पैतृक गाँव कछपुरा (आगरा) में हुई । बी.ए. क्राइस्ट चर्च, कानपुर से । एम.ए. की उपाधि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1952, में । वहीं हिंदी विभाग में अध्यापन(1954-1991) । डी. फ़िल् की उपाधि 1958 में मिली, डी. लिट्. की 1972 में । आरंभिक समीक्षापरक निबंध 1950 में प्रकाशित हुए। नयी प्रवृत्तियों से संबद्ध पत्रिकाओं का संपादन किया 'नव पत्ते' ( 1952), 'नयी कविता' (1954) ' क ख ग(1963) । शोध-त्रैमासिक 'हिन्दी अनुशीलन' का संपादन (1960-1984)।
प्रकाशन- शरत् के नारी पात्र (1955), हिंदी साहित्य कोश (सहयोग मे संपादित-प्रथम भाग (1955) द्वितीय भाग1963) हिंदी नवलेखन (1960) आगरा जिले की बोली(1961), भाषा और संवेदना (1964) अज्ञेय और आधुनिक रचना की समस्या (1968) हिंदी साहित्य की अधुनातन प्रवृत्तियाँ (1969), कामायनी का पुनर्मूल्यांकन(1970) मध्यकालीन हिंदी काव्यभाषा (1974) नयी कविताएँ एक साक्ष्य (1976) कविता यात्रा (1976) गद्य की सत्ता 1977 सर्जन और भाषिक संरचना (1980), इतिहास और आलोचक-दृष्टि (1982), हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास (1986) काव्यभाषा पर तीन निबंध(1989) प्रसाद-निराला-अज्ञेय (1989) साहित्य के नये दायित्व (1991), कविता का पक्ष (1994) समकालीन हिंदी साहित्य विविध परिदृश्य (1995) हिंदी गद्य विन्यास और विकास (1996), तासप्तक से गद्यकविता (1997) भारत और पश्चिम : संस्कृति के अस्थिर संदर्भ(1996), आचार्य रामचंद्र शुक्ल- आलोचना का अर्थ अर्थ की आलोचना (2001) भक्ति काव्य-यात्रा (2003)।
संयुक्त संस्करण भाषा संवेदना और सर्जन (1996) आधुनिक कविता-यात्रा (1998) ।
आलोचना सैद्धांतिक और व्यावहारिक, भाषाशास्र तथा विचारो के साहित्य मे विशेष रुचि ।
सुषमा के साथ विवाह 1955 । तीन बेटे-विनीत (पल्लवी), विनय ( दीपा), विवेक (शेफाली) ।
साधना तथा व्यास सम्मान : 1961
निधन : 24 जुलाई 2003
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