पुस्तक के विषय में
यूरोपीय उपन्यास के विकास में पूँजीवादी अर्थतन्त्र और मध्य वर्ग का योगदान क्षत महत्त्वपूर्ण माना जाता है और अक्सर इस अवधारणा को हिन्दी उपन्यास के इतिहास पर भी चस्पाँ कर दिया जाता है। पर हिन्दी क्षेत्र की परिस्थितियों को देखते हुए हिन्दी उपन्यास के सम्बन्ध में इस सामान्यीकरण को संगत नहीं माना जा सकता। 1870-90 की अवधि में हिन्दी क्षेत्र में न तो पूँजीवादी अर्थतन्त्र का कोई वर्चस्व था, न ही कोई मजबूत मध्य वर्ग पैदा हुआ था । इस समय भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चंगुल में तड़फड़ा रहा था और एक विदेशी पूँजीवादी उसका चौतरफा शोषण कर रहा था। इस विदेशी पूँजीवाद की भाषा अँगरेजी थी। इस व्यवस्था के पोषक और सहायक के रूप में अँगरेजी पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग वजूद में आ रहा था, पर वह अधिकतर अहिन्दीभाषी, विशेष रूप से बँगलाभाषी था। दरअसल हिन्दी उपन्यास हिन्दीभाषी जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति था।
बीसवीं शताब्दी के अन्त के साथ हिन्दी उपन्यास की उस लगभग 130 वर्ष की हो चुकी हे बड़े ही बेमालूम ढंग से 1870 ई. में पं. गोरीदत्त की देवरानी-जेठानी की कहानी के रूप में इसका जन्म हुआ, जिसकी तरफ लगभग सो वर्षो तक किसी का ध्यान भी नहीं गया लेखक ने पुष्ट तर्कों के आधार पर देवरानी-जेठानी की कहानी को हिन्दी के प्रथम उपन्यास के रूप में स्वीकार किया है ओर 1870 ई. से 2000 ई. तक की अवधि में हिन्दी उपन्यास के ऐतिहासिक विकास को समझने का प्रयास किया है।
हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों के प्रामाणिक विवरण का अभिलेख सुरक्षित रखने की समृद्ध और विश्वसनीय परम्परा प्राय नहीं है, इस कारण हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन में -अनेक प्रकार की मुश्किले आती है इस पुस्तक में पहली बार लगभग 1300 उपन्यासों का उल्लेख उनके प्रापाणिक प्रसकन-काल के साथ किया गया है। यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि इस किताब में कोई महत्वपूर्ण उपन्यासकार या उपन्यास छूट नहीं गया है, पर इस बात की कोशिश जरूर की गई है साहित्य के इतिहास में सभी लिखित-प्रकाशित रचनाओ का उल्लेख न सम्भव हे न आवश्यक, इसलिए सचेत रूप में भी अनेक उपन्यासों का जिक्र इस पुस्तक में नहीं किया गया है
साहित्य के इतिहास में पुस्तको की प्रकाशन-तिथियों की प्रामाणिकता के साथ-साथ यह भी जरूरी होता हे कि सम्बद्ध विधा के विकास की धाराओ की सही पहचान की जाए। विधा के रूप में हिन्दी उपन्यास का विकास अभी जारी है। विकास 'ऐतिहासिक काल' में ही होता है और इतिहास में प्रामाणिक तथ्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है कोशिश यह की गई हे कि यद पुस्तक हिन्दी उपन्यास का मात्र 'इतिहास' न बनकर 'विकासात्मक इतिहास' बने।
लेखक के विषय में
गोपाल राय
बिहार के बक्सर जिले के एक अत्यन्त पिछड़े गाँव चुन्नी। में, जहाँ आज भी बिजली और पक्की सड़क नहीं पहुँची हे, 13 जुलाई, 1932 को (मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र के अनुसार) जन्म।
आरम्भिक शिक्षा गाँव और निकटस्थ कस्वे के स्कूल में। माध्यमिक शिक्षा बक्सर हाई स्कूल, बक्सर और कॉलेज की शिक्षा, पटना कॉलेज, पटना में। स्नातकोत्तर शिक्षा (हिन्दी) पटना विश्वविद्यालय, पटना में। पटना विश्वविद्यालय से ही 1964 में 'हिन्दी कथा साहित्य' और उसके विकास पर पाठकों की रुचि का प्रभाव' विषय पर डी. लिट. की उपाधि।
फरवरी, 1957 में पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति और वहीं से दिसम्बर, 1992 में सेवा- निवृत्ति। प्रकाशित पुस्तकें :
हिन्दी कथा साहित्य और उसके विकास पर पाठकों की रुचि का प्रभाव (1965), गोदान. अध्ययन की समस्याएँ: (1966), हिन्दी का प्रथम उपन्यास देवरानी-जेठानी की कहानी (सम्पादन-प्रकाशन, 1966), हिन्दी उपन्यास काल (1968), हिन्दी उपन्यास कोश खंड-2 (1969), हिन्दी साहित्याब्द कोश (1967-1980, सम्पादन), प्र.का.1968-81, उपन्यास का शिल्प (1973), अज्ञेय और उनके उपन्यास (1975), राष्ट्रकवि दिनकर (सम्पादन,1975), 'उपन्यास की पहचान' श्रृंखला के अन्तर्गत शेखर एक जीवनी (1975), गोदान, नया परिप्रेक्ष्य (1982), रंगभूमि, पुनर्मूल्याकन (1983), हिन्दी भाषा का विकास (1995), मैला आँचल (2000), दिव्या ( 2001) आदि। जुलाई, 1967 से समीक्षा का सम्पादन-प्रकाशन।
क्रम
1
प्रस्तुति
IX
2
दरवाजे पर दस्तक (1801-1869)
13
3
नवजागरण और हिन्दी उपन्यास (1870-1890)
23
4
रोमांस, पाठक और उपन्यास (1891-1917)
68
5
यथार्थ के नये स्वर (1918-1947)
126
6
(क) केन्द्र में किसान (1918-1936)
7
(ख) नयी दिशाओं की तलाश (1937-1947)
171
8
विमर्श के नये क्षितिज (1948-1980)
196
9
समकालीन परिदृश्य (1981-2000)
375
10
और... अन्त में
399
11
ग्रन्थानुक्रमणिका
471
12
लेखकानुक्रमणिका
491
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