स्वाधीनता संघर्ष के विश्ववंद्य, अतुलनीय, अपराजित योद्ठा महाराणा प्रताप के सफल संघर्ष की वास्तविक कथा इतिहास-प्रंथों में दर्ज होने के बावजूद अनेक काल्पनिक कथाओं के द्वारा उसे धूमिल करने का प्रयास ही किया गया है।
इस प्रामाणिक पठनीय उपन्यास में घास की रोटी खाने, हल्दीघाटी युद्ध में शक्तिसिंह द्वारा प्राणरक्षा, युद्ध में जय-पराजय विवाद, भामाशाह द्वारा स्वयमोपार्जित अपार धन प्रदान करने जैसे अनेक जनप्रवादों का सच पर्याप्त शोध के पश्चात् सामने लाने का प्रयास किया गया है।
बचपन से युवावस्था तक पिता महाराणा उदयसिंह की घोर उपेक्षा के शिकार रहने के बावजूद प्रताप के किशोरावस्था में ही अपने शौर्य प्रदर्शन से लेकर महाराणा बनने में आए व्यवधान जैसे दर्जनों अज्ञात प्रकरण पुस्तक में होने के कारण पाठक को महाराणा प्रताप के अकल्पनीय संघर्ष की सच्चाई से अवगत होने का अवसर मिलेगा। उनके द्वारा आविष्कृत 'छापाकार युद्ध के द्वारा आठ वर्षों तक प्रलयंकारी मुगल आक्रमणों के प्रतिकार में मिली सफलता के कारण विश्व भर में इस पद्धति का अनुसरण होता रहा ।
भारतवर्ष के गौरव महाराणा प्रताप के दुर्धष संघर्ष, अप्रतिम संकल्पशक्ति और अपरिमेय जिजीविषा का यह प्रेरक विवरण हमारे वीर और प्रतापी सम्राटों के पराक्रम, साहस और शौर्य का जयघोष करेगा।
श्राद्धा के प्रतीकों की दुर्गति करने में हम भारतीयों का कोई सानी नहीं है। अपने प्रामाणिक इतिहास के द्वारा ही पर्याप्त से भी अधिक वंदनीय सिद्ध होने के बावजूद उनकी सम्मान वृद्धि के लिए अनेक काल्पनिक कथाएँ जोड़कर उन्हें अविश्वसनीय अथवा उपहासी तक बना देने में भी हमें कोई संकोच नहीं होता। महाराणा प्रताप भला इसके अपवाद कैसे हो सकते थे? उनके अकल्पनीय स्वतंत्रता संघर्ष को अतिरिक्त ऊँचाइयाँ प्रदान करने के लिए हमने अपनी बौद्धिक ऊर्जा का उपयोग, इतिहास के विपरीत अनेक काल्पनिक कथाएँ गढ़ने में किया। जिन्होंने उस जुझारू व्यक्तित्व को दयनीयता की दारुण स्थिति तक पहुँचा देने का काम ही किया। कवियों का तो खैर अपना कल्पनालोक होता है, किंतु प्रमाण के धरातल पर काम करनेवाले इतिहासकार भी स्वयं को इससे मुक्त नहीं रख पाए। उन्होंने भी उन काल्पनिक कथाओं में अपनी कल्पना के रंग भरते हुए उन्हें इतिहास का रूप प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
विशाल मुगल साम्राज्य के समक्ष मेवाड़ की स्थिति समुद्र में एक टापू अथवा बाज के सामने चिड़िया से अधिक नहीं थी। इस पर भी महाराणा प्रताप अपनी दूरदर्शिता, कूटनीति, राज्य प्रबंध, व्यूह रचना और आत्मविश्वास के बल पर अकबर के प्रलयंकारी आक्रमणों को निष्फल करके, अपनी मातृभूमि मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहे। आठ मुगल आक्रमणों में से पाँच तो प्रलयकालीन संवर्तक मेघों की तरह ही थे, जिन्होंने मेवाड़ को बार-बार रौंदते हुए उस धरा का अनेक बार रक्ताभिषेक किया था, किंतु महाराणा प्रताप हर बार मुगल सेना द्वारा बरबाद हुए मेवाड़ को पुनः पुनः आबाद करते रहने में सफल रहे। मेवाड़ के अतिरिक्त राजपूताना के अन्य सभी राज्यों मालवा, गुजरात, पंजाब, अफगानिस्तान, बिहार, बंगाल, उड़ीसा सहित संपूर्ण उत्तर-पूर्व भारत पर हुकूमत करनेवाले शहंशाह अकबर से टक्कर लेने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लेकिन प्रताप ने उसी अकल्पनीय को जीवंत कर इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा दिया था। प्रताप का यही संघर्ष उनकी महानता के लिए पर्याप्त से भी अधिक था।
किंतु उनकी संघर्ष गाथा को और अधिक ऊँचाइयाँ प्रदान करने के लिए किसी ने उन्हें घास की रोटी खिला दी, किसी ने उदय सागर की पाल पर आयोजित भोज में मानसिंह के अपमान की कथा गढ़ डाली। भामाशाह के दान की कथा ने तो तेजस्वी प्रताप को याचक जैसी दारुण स्थिति तक प्रदान कर दी। संकटों से परेशान होकर अकबर को समझौते के लिए पत्र लिखने, हल्दीघाटी युद्ध में शक्तिसिंह द्वारा रक्षा जैसी अन्य अनेक उपकथाओं ने भी महाराणा प्रताप के अकल्पनीय संघर्ष और उद्दाम चरित्र को खंडित करने का काम ही किया है।
सन् 1568 में चित्तौड़-विजय के साथ ही, मेवाड़ का चित्तौड़ से अजमेर तक का अधिकांश मैदानी भू-भाग अकबर के अधिकार में चला गया था। जिसे महाराणा उदयसिंह ने अपने जीवनकाल में वापस लेने का कोई प्रयास नहीं किया था। अपने राज्यारोहण के समय प्रताप को चित्तौड़ से उदयपुर के मध्य के थोड़े से मैदानी इलाके के अतिरिक्त तीन सौ वर्गमील का पर्वतीय क्षेत्र ही मिला था। मुगल आक्रमण से पूर्व शत्रु को उस क्षेत्र में सुविधाओं से वंचित रखने के लिए प्रताप ने उस मैदानी भाग में भी खेती पर प्रतिबंध लगाने के साथ समस्त कुएँ, तालाब आदि जलस्रोत तक भरवा दिए थे। इस रणनीति के कारण पचास हजार शाही सेना को अपनी संपूर्ण रसद ही नहीं, पानी तक अजमेर से मँगवाना पड़ता था।
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