आधुनिक काल की अन्य गद्य विधाओं की भाँति नाटक का आरम्भ भी पश्चिम के प्रभाव स्वरूप ही माना जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को हिन्दी नाटक का प्रर्वत्तक माना जाता है। इन्होंने उस समय समाज में व्याप्त धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बुराइयों के प्रति समाज को जाग्रत करने हेतु नाटक को साधन बनाया। भारतेन्दु जी ने अनुदित और मौलिक नाटकों की रचना की। महावीर प्रसाद द्विवेदी युग में भी विभिन्न नाटकों की रचना हुई किन्तु इस युग में मौलिक नाटकों की संख्या कम थी और अनुवाद कार्य पर ही अधिक बल दिया गया। जयशंकर प्रसाद के आगमन से नाटक विधा में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया। इस समय में मौलिक नाटकों की संख्या में वृद्धि हुई। प्रसाद जी ऐतिहासिक नाटकों की रचना करने वाले हिन्दी के प्रमुख नाटककार माने जाते हैं। नाट्य-शिल्प की दृष्टि से इनके नाटक विशेष स्थान रखते हैं। इस युग में विभिन्न समस्याओं को नाटकों का आधार बनाया गया विशेषतः नारी समस्या, नगरीय जीवन की विडम्बनाएं, छुआछूत, भ्रष्टाचार, पाखंड, धार्मिक अंधविश्वास इत्यादि। प्रसाद युग हिन्दी नाटकों को प्रोढ़ता की ओर उन्मुख करने वाला युग साबित हुआ है। प्रसादोत्तर युग के नाटकों में विषय-वस्तु एवं शिल्प में बदलाव दिखाई देने लगा। 'जटिल जीवनाभूतियों को अब नाटकों में प्रस्तुत किया जाने लगा और अंतर्द्वद्ध चित्रण की प्रमुखता रहने लगी।' भारतीय हिन्दी साहित्येतिहास में भारतेन्दु से लेकर अब तक अनेक नाटककारों ने अपने नाटकों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। मनुष्य की संवेदनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने का एक सशक्त साधन नाटक है। 'संवेदना' एक ऐसा भाव है, जो प्रत्येक जीवित प्राणी में विद्यमान रहता है। यह परिस्थितिमूलक और मन की सर्वाधिक पवित्र भावना है, जो मनुष्य को पत्थर होने से बचाती है। 'संवेदना का मुख्य अर्थ है अनुभूत, ज्ञात या विदित होना अर्थात् शरीर में किसी प्रकार की वेदना होना वस्तुतः गर्मी-सर्दी, दुख-सुख आदि का अनुभव या ज्ञान होना ही संवेदना है।' महादेवी वर्मा संवेदना के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुई कहती हैं कि वेदना एक ऐसा तत्व है, जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार से एक अविच्छिन बंधन में बांध देता है, जो काल और सीमा के बंधन में पड़े असीम चेतना का क्रन्दन है। इन्होंने संवेदना को वेदना के अर्थ में ग्रहण किया है। संवेदना या संवेदना का शाब्दिक अर्थ सम्+वेदना से निर्मित है। अर्थात् दूसरों की वेदना को अनुभव करना, सुख-दुख को प्रकट करना तथा अनुभूति आदि। संवेदना शब्द को 'वेदना सहित' अर्थ में भी प्रकट किया जाता है। मानव-जीवन की कोई बात अंतः पीड़ा से प्रेरित होकर अथवा मार्मिकता से युक्त होकर प्रकट हो, हिन्दी नाटक : समाज और संवेदना के विविध आयाम वही संवेदना है। लेखक संवेदनशील होता है। यह संवेदना उसके जीवनानुभवों पर आधारित होती है, जिसको लेकर वह किसी रचना को जन्म देता है। उसके अनुभव मानव के व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक स्थितियों, सांस्कृतिक मूल्यों, राजनीतिक चेतनाओं आदि से प्राप्त होकर अभिव्यक्त होते हैं। साहित्य का संबंध मूलतः मानव हृदय से होता है। वह रचनाकार के हृदय से निकलकर आस्वादक के हृदय तक पहुँचता है। हृदय से हृदय तक की इस यात्रा में संवेदना का अहम स्थान होता है। साहित्य और कला की दुनिया में नाटक का विशेष महत्त्व है। नाटक एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने विचारों, इच्छाओं और भावनाओं को प्रस्तुत करता है। नाटक के जरिये नाटककार मानवीय संवेदना के विभिन्न पहलुओं को दर्शाने का प्रयास करता है। 'हिन्दी नाटक : समाज और संवेदना के विविध आयाम' पुस्तक के अंतर्गत संवेदना के विभिन्न रूपों को विभिन्न विद्वानों, शोधार्थियों ने अपनी लेखनी के माध्यम से बखूबी चित्रित करने का प्रयास किया है। प्रत्येक कार्य की अपनी कुछ सीमाएं और संभावनाएं होती है। सो, इस बात को ध्यान में रखते हुए यह पुस्तक पाठक के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है।
आधुनिक काल की अन्य गद्य विधाओं की भाँति नाटक का आरम्भ भी पश्चिम के प्रभाव स्वरूप ही माना जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को हिन्दी नाटक का प्रर्वत्तक माना जाता है। इन्होंने उस समय समाज में व्याप्त धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बुराइयों के प्रति समाज को जाग्रत करने हेतु नाटक को साधन बनाया। भारतेन्दु जी ने अनुदित और मौलिक नाटकों की रचना की। महावीर प्रसाद द्विवेदी युग में भी विभिन्न नाटकों की रचना हुई किन्तु इस युग में मौलिक नाटकों की संख्या कम थी और अनुवाद कार्य पर ही अधिक बल दिया गया। जयशंकर प्रसाद के आगमन से नाटक विधा में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया। इस समय में मौलिक नाटकों की संख्या में वृद्धि हुई। प्रसाद जी ऐतिहासिक नाटकों की रचना करने वाले हिन्दी के प्रमुख नाटककार माने जाते हैं। नाट्य-शिल्प की दृष्टि से इनके नाटक विशेष स्थान रखते हैं। इस युग में विभिन्न समस्याओं को नाटकों का आधार बनाया गया विशेषतः नारी समस्या, नगरीय जीवन की विडम्बनाएं, छुआछूत, भ्रष्टाचार, पाखंड, धार्मिक अंधविश्वास इत्यादि। प्रसाद युग हिन्दी नाटकों को प्रोढ़ता की ओर उन्मुख करने वाला युग साबित हुआ है। प्रसादोत्तर युग के नाटकों में विषय-वस्तु एवं शिल्प में बदलाव दिखाई देने लगा। 'जटिल जीवनाभूतियों को अब नाटकों में प्रस्तुत किया जाने लगा और अंतर्द्वद्ध चित्रण की प्रमुखता रहने लगी।' भारतीय हिन्दी साहित्येतिहास में भारतेन्दु से लेकर अब तक अनेक नाटककारों ने अपने नाटकों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। मनुष्य की संवेदनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने का एक सशक्त साधन नाटक है।
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