दिल्ली के यामुनापार इलाके के अधिकांश बच्चों एवं किशोरों की तरह मुझे भी बाल्यवस्था से ही फिल्में देखने का जबर्दस्त शौक रहा है। अस्सी के दशक के अंत में किराये के वीसीआर पर रात भर जागकर, परिवार और मोहल्ले पड़ोस के लोगों के साथ तीन-तीन फिल्में देखना। उस वक्त किसी त्यौहार से कम नहीं लगता था। यह वो दौर था। जब लोगों के पास उतना अधिक पैसा नहीं था। लेकिन दिलों में प्यार की कोई कमी नहीं थी। सब मिल-जुल कर रहा करते थे। एक साथ त्यौहार मनाते थे। फिल्में देखा करते थे। संयुक्त परिवार कल्चर था। तब की फिल्में भी परिवार संग बैठकर देखी जा सकती थी। वहीं नब्बे के दशक की शुरूआत में केवल टीवी आने के बाद फिल्में देखने का शौक निरंतर प्रगति करता रहा। लेकिन फिल्मों को परिवार के सभी सदस्यों के साथ बैठकर देखने का चलन अब धीरे-धीरे कम होने लगा था। वहीं अब फिल्मों के लिए शनिवार की रात या किसी छुट्टी का इंतजार नहीं करना पड़ता था। प्रत्येक दिन कम से कम एक फिल्म अवश्य देखने को मिल जाया करती थी। टीवी पर फिल्में देखने का यह सिलसिला यूं ही चलता रहा। इसी बीच कुछेक फिल्मों को सिनेमा हॉल पर देखने का अवसर भी मिला। मुझे अच्छे से याद है कि पहली बार वर्ष 1988 में दिल्ली के कल्याण सिनेमा हॉल पर फिल्म 'लोहा' देखी थी। इसके बाद इसी सिनेमा हॉल पर साल 1996 में 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' देखी। यहां आपको बता दूं कि दिल्ली में होने के बावजूद इस सिनेमा हॉल पर फिल्में रिलीज होने के कम से कम छह माह बाद लगती थी। वर्ष 2006-07 में मालिकों द्वारा अत्याधिक घाटा होने के कारण इस सिनेमाघर को बंद कर दिया गया है। अब, इसकी जगह एक गगनचुंबी इमारत में सैकड़ों फ्लैट बन चुके हैं। वर्ष 2001 से प्रत्येक शनिवार को दिल्ली के 'गोलचा' तथा 'लिबर्टी' सिनेमा हॉल पर फिल्म देखने लगा। कई बार तो ऐसा हुआ कि एक ही दिन में दोनों सिनेमाघरों पर दो अलग-अलग फिल्में देखीं। गोलचा पर फिल्में देखने का आलम यह था कि वर्ष 2010 में प्रदर्शित फिल्म 'सदियां' को सिर्फ चार-पांच दर्शकों की मौजूदगी में देखा। यह पहला अवसर था। जब किसी सिनेमाघर में फिल्म देखने के लिए सिर्फ पांच दर्शक ही पहुंचे। यद्यपि फिल्म में हेमा मालिनी, रेखा, ऋषि कपूर जैसे दिग्गज कलाकार थे। जिनके कारण ही मैं फिल्म देखने गया था। यह अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा के बेटे लव सिन्हा की डेब्यू फिल्म थी। जो बॉक्स ऑफिस पर सुपरफ्लाप रही। आपको बता दूं कि शनिवार को ही फिल्म देखने का प्रमुख कारण इस दिन कॉलेज का अवकाश होना था। यह सिलसिला वर्ष 2015 तक बदस्तूर रहा। हालांकि एंटरटेनमेंट रिपोर्टिंग करते समय कुछेक फिल्में ब्रहस्पतिवार को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। वर्ष 2015 के बाद काम की अधिकत्ता के चलते सिनेमा घरों पर कम ही फिल्में देखी। इस दौरान मल्टीप्लेक्स पर आठ-दस फिल्में देखीं। सिंगल स्क्रीन के मुकाबले मल्टीप्लेक्स पर उतना अधिक मजा नहीं आया। दोनों के दर्शक वर्ग में एक खास किस्म का अंतर दिखा। 70 एम एम के पर्दे पर दर्शक फिल्म देखने आते हैं। अपने पसंदीदा स्टार को देखने आते हैं। वहीं मल्टीप्लेक्स पर लोग पिकनिक मनाने आते हैं। ऐसा मुझे लगता है। फिल्में देखने के शौक से हिंदी सिनेमा और इसके कलाकारों के बारे में अधिक से अधिक जानने की जिज्ञासा पैदा हुई। वर्ष 2004 में पंजाब केसरी समाचार पत्र के लिए पहली बार अभिनेत्री ईशा कोप्पिकर, अमृता अरोड़ा तथा करण राजदान के साक्षात्कार लिए। इसके बाद तो कई सिने हस्तियों से रूबरू होने का अवसर मिला। फिल्म और फिल्मी हस्तियों के विषय में लिखते-लिखते सिनेमा के प्रति नजरिया बदलने लगा। मेरे लिए अब यह मनोरंजन के साधन के अलावा बहुत कुछ हो गया था। ऐसा लगने लगा था कि इस पर कई रिसर्च किये जा सकते हैं। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के लिए की जाने वाली पीत पत्रकारिता से इतर भी सिनेमा के संदर्भमें बहुत कुछ है। अभिनेत्री डिंपल जी के साथ इंटरव्यू करते हुए एक दिलचस्प वाक्या हुआ। अपनी बाल्यवस्था से ही हिंदी के एक-दो बड़े समाचार पत्रों में डिंपल और सन्नी के 'अंतरंग' रिश्तों के बारे में पढता आ रहा था। जब डिंपल जी से साक्षात्कार करने का अवसर मिला तो बढ़ी ही उत्सुकता से उनसे सन्नी के साथ संबंधों पर प्रश्न पूछा। इस पर उनका जवाब जिंदगी भर के लिए यादगार बन गया। 'जब मैं और सन्नी 'अंतरंग' थे। क्या हमने किसी का रूम में इंतजार किया था? उनकी इस बात ने मुझे मौन करा दिया। यही पीत पत्रकारिता है। जिससे तमाम छोटे-बड़े पत्र-पत्रिकाओं तथा पत्रकारों को बचना चाहिए। फिर किसी भी सेलिब्रेटी की जिंदगी में तांक-झांक करने का किसी का कोई हक नहीं। बशर्ते जब तक उनके किसी कृत्य से समाज को किसी प्रकार की हानि नहीं हो रही हो। यह एक यादगार साक्षात्कार था। डिंपल जी के अलावा कई दूसरे कलाकारों ने भी साक्षात्कार में बड़ी ही बेबाकी से अपनी बातें रखीं।
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