साहित्य जीवन की व्याख्या है। जीवन में जो कुछ साहित्यकार अनुभव करता है उसे वह अपनी कृति में अभिव्यक्त करता है। अनुभूति और इसकी अभिव्यक्ति ही साहित्यकार को मौलिक व्यक्तित्व देती है। अनुभूति मानव की संवेदनशीलता की मानव पुत्री है और साहित्यकार सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी। परिस्थितियों और परिवेश से प्रभावित होना उसके लिए सहज है तो इनकी अभिव्यक्ति और भी सहज एवं स्वाभाविक है।
स्वतन्त्रता के स्वर्णिम विवाह में जो स्वप्न भारत ने संजाये थे वे सब कालान्तर में धूमिल पड़ने लगे। स्वतन्त्रता सारहीन लगने लगी। विकासात्मक कार्य नकारात्मक महत्व के दिखाई देने लगे। समाज विभिन्न वर्गों में विभक्त हुआ। ऐसे परिवेश में विकासशील नारी का व्यक्तित्व अपनी पहचान के लिए भटकने लगा। सामाजिक मान्यताओं को अस्वीकार कर अपने ही बनाए कायदे-कानून पर चलने के लिए आकांक्षित हुआ। अपने स्वत्व की रक्षा के लिए नारी संघर्ष के प्रांगण में परिस्थितियों और परम्पराओं से जुड़ने लगी। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध समकालीन परिवेश में नाट्य नायिकाओं की भूमिका का मूल्यांकन ही है।
वास्तव में प्रसादोत्तर हिन्दी नाटकों में नायिका की परम्परा पूरी तरह अपारम्परिक रही है। न तो शास्त्र की पुरानी जमीन पर उनका निर्माण हुआ है, और न शास्त्र के निकटों पर उनका मूल्यांकन ही किया जा सकता है। इसीलिए हिन्दी नाटकों में नायिका के बदलते प्रतिरूपों का अनुशीलन सर्वथा नए आलोक में ही सम्भव है।
नाट्यशास्त्र के रचनाकाल से ही नाटक की नायिका के स्वरूप का विश्लेषण आरम्भ हो गया था, लेकिन भारतीय नाटक की विकासयात्रा के साथ नायिका के स्वरूप में भी परिवर्तन आता गया है। सामान्य अर्थों में नायक कीपत्नी या प्रिया के रूप में नायिका की परिकल्पना की गई है। भारतीय नाट्यशास्त्र में नाट्य-वस्तु के विकास में योगदान देने वाली प्रधान पात्री के रूप में नायिका की चर्चा मिलती है, जबकि पश्चिम के नाट्यशास्त्रियों ने नायिका के लिए नायक से सम्बद्ध होना अनिवार्य नहीं समझा है। वास्तविकता तो यह है कि कालप्रवाह के साथ नाट्यशास्त्र में नायिका की परिकल्पना बदलती रही है। परिवेश और अनुभव के अनुरूप नाटककारों ने नायिका को विभिन्न रसों की प्रस्ताविका के रूप में अंकित किया है। इसी कारण कभी नायिका श्रृंगार की मूर्ति के रूप में अंकित हुई है, तो कभी नायिका शांत और भक्ति रस में डूबी हुई नजर आती है।
हिन्दी नाटकों का इतिहास साक्षी है कि नाटककारों ने अपने सामयिक परिवेश और युग की माँग के अनुरूप नायिका के बदलते हुए रूप अंकित किए है। नायिका की शास्त्रीय अवधारणा से अलगाव के जिन अभिलक्षणों को जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों में इंगित किया था, उनकी व्यापक विस्तारयोजना प्रसादोत्तर हिन्दी नाटकों में दृष्टिगत होती है। प्रसाद के बाद के हिन्दी नाटक पाश्चात्य आधुनिकता, यांत्रिकता और आर्थिक, सांस्कृतिक परिवर्तन के साक्षी बने है। जिस आधुनिक परिवेश को प्रसादोत्तर हिन्दी नाटकों में अभिव्यक्ति मिली हैं, उसमें परम्परागत नायिका की परिकल्पना नहीं की जा सकती थी। स्वभावतः प्रसादोंत्तर हिन्दी नाटककारों ने नाट्य-वस्तु और नाट्य-योजना के अनुरूप नायिका के नये बदलते हुए रूपों का आलेखन किया है।
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