आधुनिक इतिहास-लेखन तथ्यपरकता, वैज्ञानिकता व पुष्ट स्रोत्रों पर तो आधारित है ही, साथ ही काल-विभाजन व अवैयक्तिक विश्लेषण भी इसके विशेष महत्त्वपूर्ण अंश है। इतिहास का काल-विभाजन उसको सरलीकृत व बोधगम्य बनाने के लिए ही किया जाता है। इसका कोई नैसर्गिक सिद्धान्त भले न हो, परन्तु इतिहास में विकासवाद के सिद्धान्त व बदलती सामाजिक-आर्थिक परिवेश में कुछ ऐसे आधार अवश्य रेखांकित किये जा सकते हैं; जो आर्थिक इतिहास के निर्धारण में सहायक सिद्ध हो सकें। पुरुषार्थ में दूसरा स्थान 'अर्थ' का है। 'अर्थ' का सम्बन्ध धन-सम्पत्ति से होते हुए भौतिक उपकरण और सुख से भी है। वस्तुतः अर्थ का अभिप्राय उन सभी उपकरणों अथवा भौतिक साधनों से है, जो व्यक्ति को समस्त सांसारिक सुख उपलब्ध करते हैं तथा तत्सम्बन्धी सभी आवश्यकताओं और साधनों की पूर्ति करते हैं। व्यावहारिक रूप से अगर देखा जाय तो मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताएँ और उसकी भौतिक इच्छाएँ अर्थ के माध्यम से ही पूरी होती हैं। अतः 'अर्थ' से तात्पर्य उन सभी भौतिक वस्तुओं और साधनों से है, जो व्यक्ति के सुख-सुविधा में प्रयुक्त होते हैं। मनुष्य को अपने जीवन में अन्यान्य प्रकार के कर्तव्य और उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए अर्थ की आवश्यकता पड़ती है। यह 'अर्थ' उपार्जन धर्म के माध्यम से ही करने के लिए निर्देशित किया गया है। साधारणतः व्यक्ति सुख-सुविधा और यश ऐश्वर्य का आकांक्षी होता है। वह भौतिक सुख के प्रति अत्यधिक आकर्षित रहता है। त्रऋग्वैदिक- युग के आर्य भी भौतिक सुखों के प्रति जागरूक थे। धन-सम्पत्ति, गाय-अश्व इत्यादि की वृद्धि के लिए वे भगवान् से प्रार्थना करते थे (ऋग्वेद, 1.73.1, 2.21.6, 3.1.19, 4.36.9, 5.4.11, 6.31.1)। इस प्रकार का भौतिक सुख और सुविधा अर्थ से ही सम्भव है। अतः अर्थ का अभिप्राय विस्तृत है। यह सुख-सुविधा का साधन है, जो व्यक्ति को भौतिक सुख और आनन्द प्रदान करने में विशेष सहायक सिद्ध होता है। व्यक्ति में प्राप्त करने की प्रवृत्ति की तुष्टि ही अर्थ है। ऐसी स्थिति में जीवन की समस्त सुविधाएँ, आर्थिक कामनाएँ और भौतिक-संस्कृति से सम्बन्धित हैं, जिनकी प्राप्ति अर्थ के ही माध्यम से होती है। कुटुम्ब के पोषण एवं उसे समृद्ध और उन्नतिशील बनाने में अर्थ का विशेष महत्त्वपूर्ण योगदान है। गार्हस्थ्य जीवन के विभिन्न धार्मिक कार्यों और कर्तव्यों का परिपालन अर्थ के बिना संभव नहीं है। अतः अर्थ के माध्यम से व्यक्ति जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है तथा अपने जीवन को सुखमय बनाने की चेष्ट करता है। स्पष्ट है कि अर्थ सामाजिक लक्ष्य-प्राप्ति का साधन है, जिससे भौतिक सुख की प्राप्ति होती है। इस सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य और राजा जनक की कथा स्मरणीय है। जब याज्ञवल्क्य राजा जनक के यहाँ पहुँचे तब जनक ने उनसे पूछा कि आपको धन और पशु अथवा शास्त्रार्थ और विजय चाहिए? उन्होंने उत्तर दिया कि दोनों चाहिए। निश्चय ही याज्ञवल्क्य की दृष्टि में अर्थ का भी विशेष महत्त्व था।
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