प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य परम्परा के अनन्यतम हस्ताक्षर गोस्वामी तुलसीदास ने कभी भी तर्कादि के बल पर जीव-जगत के सम्बन्धों को व्याख्यायित करते हुए पांडित्य-प्रदर्शन नहीं किया, अपितु भक्तिमार्ग की सरलता, समर्पण और साधुता को ही अपनाया । सच तो यह है कि उनका सामाजिक जीवन और कवि-व्यक्तित्व एक दूसरे में रच बस गये थे और यही कारण है कि उनके काव्य में एक स्वाभाविक प्रवाह तथा भौतिकता के साथ संयुक्त एक अद्भुत अध्यात्मिक संयोग देखा जाता है । रामचरितमानस’ में उन्होंने कहा भी है - सर्वभाव गज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोई ।’ उनके लगभग एक दर्जन ग्रंथों की एक-एक पंक्ति में प्रस्तुत भक्ति, चिंतन, आचार-विचार और भाषा आदि के इस कल-कल निनाद को महसूस करने का अपना शब्दातीत आनंद है ।
ऐसे में गोस्वामी तुलसीदास जैसे महाकवि के प्रेरक व्यक्तित्व को सम्पूर्णता और संक्षिप्तता में संजोना स्वर्गीय डॉ० रामचन्द्र तिवारी जैसे विद्वान द्वारा ही सम्भव था । स्वयं डॉ० तिवारी ने इस रचना-’गोस्वामी तुलसीदास में स्वीकार किया है कि कबीर की वाणी से प्रवाहित भक्तिकाव्य धारा जायसी और सूर से होती हुई तुलसी में आकर पूर्णता प्राप्त करती है । भारतीय संस्कृति में जो कुछ वरेण्य है, उदात्त है, श्रेष्ठ और मांगलिक है, वह तुलसी के भक्तिकाव्य में समाहित होकर मनुष्य मात्रा के लिए शक्ति और प्रेरणा का अक्षय स्रोत बन गया है । डॉ० रामचन्द्र तिवारी ने इस पुस्तक को आठ अध्यायों में विभाजित किया है । ये इस प्रकार हैं - युग संदर्भ, जीवन परिचय, प्रामाणिक रचनाएं, दार्शनिक सिद्धांत, भक्ति पद्धति, काव्य सौ ठव, समाज दर्शन और मूल्यांकन । मात्रा 64 पृष्ठों में समाहित यह पुस्तक ‘गागर में सागर’ सरीखी है । पुस्तक में उदाहरणों की प्रचुरता स्वरूप गोस्वामी तुलसीदास की अनेक पंक्तियां पग-पग पर आहलादित करती हैं । उत्तर प्रदेश हिन्दी सस्थान इस पुस्तक के चतुर्थ सस्करण का प्रकाशन अपनी स्मृति संरक्षण योजना के अन्तर्गत करते हुए अत्यंत गौरवान्वित है ।
आज के समय में जिस तरह से मूल्यों का दास हो रहा है, पारस्परिक सद्भाव पर आधारित विकास हमारी सर्वप्रमुख जरूरत है, ऐसी तमाम आवश्यकताओं पर तुलसीदास की लेखनी वर्षा पहले ही मुखरित हो चुकी है । सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती जैसी पंक्तियां इसका प्रमाण हैं । इस तरह, भक्तिकाल की चार प्रमुख धाराओं में से एक रामाश्रयी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में स्थापित तुलसीदास जी के महान प्रेरक व्यक्तित्व को शब्दों में पिरोने में यह पुस्तक पूरी तरह सफल रही है । आशा है ऐसे अनेकानेक संदर्भो में छात्रों और जिज्ञासु पाठकों से लेकर शोधार्थियों और विद्वानों के बीच अत्यंत उपयोगी बन चुकी इस पुस्तक ‘गोस्वामी तुलसीदास’ के इस चतुर्थ संस्करण को भी अपनाया और सराहा जायेगा ।
प्रथम संस्करण का
आमुख
तुलसीदास हिन्दी भक्ति-काव्यधारा के अन्यतम कवि है । कबीर की वाणी से प्रवाहित भक्ति-काव्यधारा जाययी और सूर से होती हुई तुलसी में आकर पूर्णता प्राप्त करती है । उनकी भक्ति श्रुति-सम्मत है । ज्ञान, योग, कर्म, समन्वित है । उसमें ‘लोक’ और बेद’-दोनों परम्परायें संश्लिष्ट हैं । वह व्यक्ति-मानस का संस्कार और लोक का कल्याण करने वाली है । भारतीय संस्कृति में जो कुछ वरेण्य है, उदात्त है, श्रेष्ठ और मांगलिक है, वह तुलसी के भक्ति-काव्य में समाहित होकर मनुष्य मात्र के लिए शक्ति और प्रेरणा का अक्षय स्रोत बन गया है । मध्यकाल के घोर संकट और संक्राति के बिन्दु पर खड़े होकर तुलसी ने अपनी पूरी परम्परा का मंथन करके उदात्त मूल्यों का जो सार संग्रह किया, उसे रामचरितमानस में राम’ के माध्यम से साकार कर दिया । तुलसी के काव्य-नायक राम है । यह राम निर्गुण-निराकार भी हैं और सगुण-साकार भी । वे ‘ब्रह्म’ भी हैं और दशरथ के पुत्र भी । तुलसी की इस मान्यता का ठोस तार्किक आधार है । ‘गुण’ के अभाव में ‘निर्गुण की ओर साकार’ की अनुपस्थिति में ‘निराकार’ की अवधारणा असंभव है । इसलिए परम-तत्त्व को मात्र निर्गुण मानना किसी भी दृष्टि से संगत नहीं है । तुलसी यह जानते थे कि धर्म के सामान्य और विशेष - दोनों ही रूपों को आचरण के स्तर पर उतारने और चरितार्थ करने के लिए काव्य-नायक का सगुण-साकार होना आवश्यक है । उन्होंने अनुभव किया था कि जब सारी मर्यादायें रू चुकी हों, उदर-पूर्ति का प्रश्न आचरण का प्रेरक और नियामक बन गया हो; दरिद्रता के दशानन ने सारी दुनिया को अपनी दाढ़ में ले लिया हो, पूरा समाज नाना प्रकार के धर्म-सम्प्रदायों, जातियों और उपासना-पद्धतियों में विभक्त होकर जर्जर हो गया हो, तब कोरे उपदेश और दोष-दर्शन से काम नहीं चलेगा । घोर अशिखा, अज्ञान, अभाव और मूल्य-हीनता के उस संकट-काल में तुलसी ने रामचरितमानस’ की रचना को । ‘मानस’ की कथा के दो पक्ष हैं । एक राम, दूसरा रावण का । राम का पक्ष नीति, धर्म और न्याय का है, रावण का अनीति, अधर्म और अन्याय का । राम-रावण के द्वन्द्व की यह कथा दो विराधी मूल्यों के द्वन्द्व की कथा है । तुलसी के आदर्श राम हैं । राम धर्म-पंथ पर अविचल रह कर अधर्म और अन्याय के प्रतिकार के लिए आजीवन संघर्ष करते हैं । संघर्षशील राम के आचरण में धर्म, नीति, शिष्टाचार तथा जीवन के वे सारे मूल्य साकार हुए हैं जो लोक-मंगल का विधान करने वाले हैं । इसीलिए ‘मानस’ की कल्पना करते हुए तुलसी ने राम सीय जस-सलिल को विशेष महत्व दिया है । राम के चरित्र (शील) के जिस श्रेष्ठ जल से ‘मानस’ (सरोवर) आपूरित है, वह मधुर, मनोहर तो है ही, मंगलकारी भी है । ‘ध्वनि’ ‘वक्रोक्ति, ‘गुण, ‘अलंकार’ आदि सौष्ठव-विधायक विशेषताएँ तो उस अमृतमय जलराशि में क्रीड़ा करने वाली मछलियाँ है । उनका महत्त्व आनुषंगिक है । तुलसी की अन्य रचनाएँ भी प्रकार-भेद में राम के शील का ही निदर्शन करती हैं । इस प्रकार युग क्री सांस्कृतिक आवश्यकता को ध्यान में रख कर तुलसी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से एक नई काव्य-दृष्टि प्रस्तुत की है ।
प्रस्तुत कृति में इसी दृष्टि से तुलसी के काव्य-विवेक का आकलन और महत्व का प्रतिपादन किया गया है । आज का युग भी-सांस्कृतिक संकट का युग है । आज भी समाज में भ्रष्टाचार और मूल्यहीनता चरम सीमा पर है । हम अपनी परंपरा से उच्छिन्न होने में गौरव का अनुभव करने लगे हैं । रोली स्थिति में आज बहुत गहरे जाकर तुलसी-साहित्य के मूल्यांकन की आवश्यकता है । यह कार्य आगे आने वाले तुलसी के ममी विद्वान अवश्य करेंगे, इस विश्वास के साथ हम अपना यह विनम्र प्रयास तुलसी-प्रेमी जनता को सौंप रहे हैं । उनका स्वीकार ही हमारा संबल होगा ।
अनुक्रम
1
युग-सन्दर्भ
2
जीवन-परिचय
6
3
प्रामाणिक रचनाएँ
16
4
तुलसी के दार्शनिक सिद्धान्त
26
5
तुलसी की भक्ति-पद्धति
34
काव्य-सौष्ठव
45
7
तुलसी का समाज-दर्शन
71
8
मूल्यांकन (उपसंहार)
82
Hindu (हिंदू धर्म) (12743)
Tantra (तन्त्र) (1023)
Vedas (वेद) (709)
Ayurveda (आयुर्वेद) (1912)
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