इस पुस्तक के विद्वान् लेखक ने एक विस्तृत ऐतिहासिक परिदृश्य प्रस्तुत किया है कि हिन्दू समाज ने किस प्रकार ब्रिटिश शासनकाल में गोरक्षा का बृहद प्रयास किया था , और किस प्रकार उससे विफल किया गया था | उन्होंने ये भी स्पष्ट किया है कि ब्रिटिश शाशक गोरक्षा के प्रश्न को भारत की सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा हुआ मानते थे | और आशांकित थे की गोरक्षा का अभियान यदि प्रबल हुआ तो उनका साम्राज्य संकटापन्न हो जाएगा |
इसके पूर्व मध्यकाल में मुस्लिम आक्रान्ता और शासक भी गोरक्षा को हिन्दू संस्कृति का प्रतिक मान कर व्यापक गोवध करते रहे |वे हिन्दुओ को अपमानित करने के लिए विभिध प्रकार से और विभिध अवसरों पर गोवध करते थे | वह कहानी भी विद्वानों द्वारा गवेषणा का विषय है |
यहाँ पर केवल इतना ही कहना प्रयाप्त है की जिस गोरक्षा को मुसलमान और ब्रिटिश आदि विदेशी शासक हिन्दू संस्कृति से जुड़ा हुआ मानते थे | उसको केवल एक आर्थिक समस्या का रूप देकर स्वाधीन भारत के शासकों ने भारतीय संस्कृति के साथ द्रोह किया है | उस द्रोह को अन्त करके गोरक्षा और गोसेवा को फिर से यथोथित स्थान देना हिन्दू समाज का दायित्व है |
भारत भवन, गोपाल में 2005 से निराला सृजनपीठ के अध्यक्ष के अध्यक्ष, वागर्थ के निदेशक एवं पूर्वग्रह के संपादक |बाद में भारत भवन के न्यासी सचिव |वर्ष 2009 से म.प्र. शासन के संस्कृति विभाग के अंतगर्त धर्मपाल शोधपीठ के निदेशक |
वर्ष 2011 से महँ योगी स्वामी श्री रामदेव जी के मार्गदर्शन में दर्शन, राजनितिकशास्त्र एवं इतिहास पर वृहत कार्य |'आस्था चैनेल ' से 36 भाषणों का प्रसारण |
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