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भूमंडलीकरण और स्त्री: Globalization and Women

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Item Code: HBD454
Author: Kumar Bhaskar
Publisher: Sanjay Prakashan
Language: Hindi
Edition: 2025
ISBN: 9788174532879
Pages: 118
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 278 gm
Fully insured
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100% Made in India
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23 years in business
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Book Description
पुस्तक परिचय

हजारों वर्षों से पुरुषवादी मानसिकता के अधीन स्त्री जाति उन्हीं पुरुषवादी अवधारणाओं और संस्कृति की संवाहिका बन जाती है, जिसका फायदा बाजार उठाता है। 'द सेकेंड सेक्स' की लेखिका सीमोन द बोउवार ने कहा है कि "स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि उसे बना दिया जाता है।" भूमंडलीकरण में स्त्री को 'स्त्री' बनाने की प्रक्रिया तेज हुई है। लेकिन इस प्रक्रिया ने अनजाने में स्त्री के प्रति एक द्वन्द्वात्मक स्थिति पैदा कर दी है।

एक बात तो साफ-साफ समझ में आती है कि पूँजीवाद ने भूमंडलीकरण के माध्यम से 'अर्थ' की लालसा का विस्तार किया है। इसी 'लालसा' ने स्त्री की मुक्ति का एक अनजाना आधार रखा। एक बहुत बड़े आर्थिक विस्तार की राजनीति में स्त्री को घर से बाहर निकालने और निकलने पर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने मजबूर किया समाज और खुद स्त्री को। एक ओर जहाँ औद्योगिक विकास के लिए स्त्री को सबसे सस्ते श्रम के रूप में इस्तेमाल किया गया, वहीं दूसरी ओर कारपोरेट जगत में विज्ञापन के माध्यम से स्त्री द्वारा उत्पादों को बेचने के लिए उसका भोगपरक और परंपरावादी दृष्टिकोण बाजार ने अपनाया। इस पूरी प्रक्रिया के बीच स्त्री को आर्थिक सत्ता और अपनी एक पहचान मिली। श्रम और उत्पादन को बेचने की आवश्यकता ने, पुरुषवादी बाजार की मजबूरी ने स्त्री को मुक्ति दी। इस मुक्ति का क्षेत्र विस्तृत हो गया। एक ओर जहाँ भूमंडलीकरण के ठेकेदारों के लिए विस्तार फायदेमंद रहा वहीं दूसरी ओर स्त्री का यह विस्तार अपनी जगह बनाने लगा, पुरुषवादी संरचना के भीतर।

बाजार ने स्त्री को विज्ञापन में जबरन बिना सटीक प्रस्तुति के परंपरागत रूप से डाल रखा है, क्योंकि बाजार सटीकता नहीं उपभोग देखता है और स्त्री को उपभोग के रूप में बाजार प्रस्तुत करता है अपने व्यापार के लिए। उसके अलावा बाजार स्त्री के प्रति विभिन्न समाजों और धर्मों में फैली परंपरावादी जड़ मानसिकता को भी अपने व्यापार का हिस्सा बनाकर अपनी वस्तु का प्रचार करता है।

प्राक्कथन

यह विषय आज के दौर में स्त्री विमर्श को एक नया आयाम देने वाला है, जिसने पुरुषवादी सामाजिक संरचना के भीतर हलचल मचा दी है। इस हलचल का विकास पूँजीवादी भूमंडलीकरण की संरचना में उसके उद्देश्य को लेकर उपस्थित जरूर था। भूमंडलीकरण की अवधारणा में ही ऐसा द्वन्द्व है स्त्री का व्यापक विस्तार भी इस संरचना के भीतर द्वन्द्वात्मक रूप में हुआ है।

हजारों वर्षों से पुरुषवादी मानसिकता के अधीन स्त्री-जाति उन्हीं पुरुषवादी अवधारणाओं और संस्कृति की संवाहिका बन जाती है, जिसका फायदा बाजार उठाता है। 'द सेकेंड सेक्स' की लेखिका सीमोन द बोउवार ने कहा है कि "स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि उसे बना दिया जाता है।" भूमंडलीकरण में स्त्री को 'स्त्री' बनाने की प्रक्रिया तेज हुई है। लेकिन इस प्रक्रिया ने अनजाने में स्त्री के प्रति एक द्वन्द्वात्मक स्थिति पैदा कर दी है।

एक बात तो साफ-साफ समझ में आती है कि पूँजीवाद ने भूमंडलीकरण के माध्यम से 'अर्थ' की लालसा का विस्तार किया है। इसी 'लालसा' ने स्त्री की मुक्ति का एक अनजाना आधार रखा। एक बहुत बड़े आर्थिक विस्तार की राजनीति में स्त्री को घर से बाहर निकालने और निकलने पर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने मजबूर किया समाज और खुद स्त्री को। एक ओर जहाँ औद्योगिक विकास के लिए स्त्री को सबसे सस्ते श्रम के रूप में इस्तेमाल किया गया, वहीं दूसरी ओर कारपोरेट जगत में विज्ञापन के माध्यम से स्त्री द्वारा उत्पादों को बेचने के लिए उसका भोगपरक और परंपरावादी दृष्टिकोण बाजार ने अपनाया। इस पूरी प्रक्रिया के बीच स्त्री को आर्थिक सत्ता और अपनी एक पहचान मिली। श्रम और उत्पादन को बेचने की आवश्यकता ने, पुरुषवादी बाजार की मजबूरी ने स्त्री को मुक्ति दी। इस मुक्ति का क्षेत्र विस्तृत हो गया। एक ओर जहाँ भूमंडलीकरण के ठेकेदारों के लिए विस्तार फायदेमंद रहा वहीं दूसरी ओर स्त्री का यह विस्तार अपनी जगह बनाने लगा, पुरुषवादी संरचना के भीतर।

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