पुस्तक के विषय में
रवींद्रनाथ टैगोर, चॉसर के संदेशवाहक की भांति, अपने शब्दों में गीत लिखते हैं और पाठक प्रत्येक क्षण समझता है कि ये बहुत विशाल, बड़े ही स्वाभाविक, बड़े ही उन्मुक्त भावुक और बड़े ही अद्भुत हैं, क्योंकि वे एक ऐसा कार्य कर रहे हैं जो किसी प्रकार विचित्र, अस्वाभाविक या प्रतिक्रियात्मक प्रतीत नहीं होता । ये कविताएँ उन तरुणियों की मेज पर सुंदर छपी हुई छोटी पुस्तक के रूप में नहीं पड़ी रहेंगी, जो अपने अलस करों से उठाकर एक उसी निरर्थक जीवन पर आहें भर सकें, जितना मात्र की वे जीवन के विषय में जान सकी हैं, अथवा जीवन के कार्य व्यापार में अभिनव प्रविष्ट छात्र उसे विश्व- विद्यालय में एक तरफ रख देने मात्र के लिए ले जाएँ बल्कि क्रमागत पीढ़ियों में यात्री लोग राजमार्ग पर चलते हुए और नावों में आगे बढ़ते हुए गुनगुनाएँगे।एक-दूसरे की प्रतीक्षा करते हुए प्रेमी इन्हें गुनगुनाते हुए इस ईश्वर-प्रेम में एक ऐसी ऐंद्रजालिक खाड़ी पाएँगे जिसमें उनका उग्रतर प्रेमोन्माद स्नान करके अपने यौवन को नवीन कर सकेगा। इस कवि का हृदय प्रतिक्षण बिना किसी प्रकार के अद्यःपतन के अप्रतिहत रूप से उन तक जाता है, क्योंकि इसने जान लिया है कि वे समझेंगे; और इसने अपने को उनके जीवन के वातावरण से आर्च कर रखा है ।
प्रकाशकीय
कवींद्र रवींद्र की नोबेल पुरस्कार प्राप्त विश्वप्रसिद्ध कृति 'गीतांजलि' आधुनिक भारतीय साहित्य की वह अन्यतम कृति है जिस पर हम सभी भारतीयों को गर्व है। विश्वकवि ने विश्व मानव को प्रेम और मानवता का जो अद्भुत गीत दिया वह आज की भागम-भाग भरे समय में और भी प्रासंगिक हो गया है। इस महान कृति ने विश्व-साहित्य को भारत की ओर से अनुपम उपहार दिया है। स्वयं रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा किए गए 'गीतांजलि' के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में डब्ल्यू.बी. येट्स ने ठीक ही लिखा है कि ''एक प्रकार की निर्दोषता और सरलता जो किसी भी साहित्य में अन्यत्र दिखाई नहीं पड़ती और परिणामस्वरूप चिड़ियाँ और पत्तियाँ उनके लिए बच्चों के समान अनुभूति-योग्य हो जाती हैं और हमारे विचारों के सम्मुख महती घटनाओं की तरह ऋतु परिवर्तन उनके और हमारे बीच आ उपस्थित होता है।''
विश्वकवि की एक सौ पचासवीं जयंती के अवसर पर मंडल द्वारा 'गीतांजलि' का प्रकाशन हमारे लिए गौरव की बात है। लालधर त्रिपाठी 'प्रवासी' के मौलिक अनुवाद से निःसंदेह पाठकों को मूल पाठ का आस्वाद मिलेगा।
अनुक्रम
1
दो शब्द
19
2
आत्म-निवेदन
21
[प्रथम पंक्ति की सूची]
3
अपनी चरण- धूलि के तल में
25
4
अमित वासना प्राण से चाहता पर
27
5
जिनको न जानता था तुमने बता दिया है
29
6
दुख से मुझे बचा लो
30
7
अंतर मेरा विकसित कर दे
32
8
प्रेम, प्राण, गान, गंध, ज्योति, पुलक में अमंद
33
9
नितू नूतन बन कर प्राणों में तुम आओ
34
10
खेल धान के खेत बीच
35
11
सखे, आज आनंद-सिंधु से
36
12
दुख के अश्रु-धार से साजूँगा सोने की थाल
37
13
काश गुच्छ को बाँध,
38
14
मंद मधुर पवन लगे शुभ्र पाल में
40
15
मेरा हृदय-हरण धन आया
41
16
जननी, तब अरुण करुण चरण
43
17
भर रहीं आनंद की तानें दिगंत
44
18
उमड़ घुमड़ घन पर घन छाते
45
कहाँ प्रकाश, प्रकाश न कण भर
47
20
श्रावण-घन के गहन तिमिर में
49
यह असाढ़ की घनी साँझ
51
22
प्राणाधार, करूँगी तुम पर आज प्रेम-अभिसार!
53
23
जानता हूँ भली- भांति किस आदि काल ही से
54
24
हे कलावान् तुम किस प्रकार करते हो मादक गान
56
इस प्रकार छिपकर जाने से
57
26
इस जीवन में मिल न सको यदि
59
लोक-लोक में देख रहा हूँ
61
28
अब चलें घाट से, सखी, कलश भर लावें!
62
मेघ की जल धारा झर-झर
63
तेरी सजग प्रतीक्षा भी है,
65
31
घन, जन में हैं लीन,
67
यह तो तेरा, प्रेम सलोने हे मेरे चित चोर!
68
मौन खड़ा हूँ देव, आज गाने को तेरा गान
69
भय को मेरे दूर करो हे, देखो मेरी ओर!
70
घिर रहा यह हृदय फिर से,
71
कब से चले आ रहे मुझ से
73
आओ, आओ मेघ,
74
छंद-रचना मैं नहीं क्या
75
39
छूटा रे वह स्वप्न निशा का,
77
आनंद-गान गा रे
78
यहाँ जो गीत गाने को चलीं
80
42
खो जाती जो वस्तु उसे
82
अहंकार का मलिन वसन व्यसन भरा
83
आज हमारे अंग-अंग में पुलकावलि छाई
84
तुम को पिन्हाने के लिए
85
46
जगती के आनंद-यज्ञ में
86
करके प्रकाश को प्रकाशवान् चौगुना
87
48
आसन-तलकी धूलि उसी में मैं मिल जाऊँगी
88
अरुप रतन की आशा में
89
50
गगन-तल में खिला सहसा
90
हृदय बिछा कर बैठे वे
92
52
शांत प्राण के देव
95
किस प्रकाश से आशा-दीप
96
तुम्हीं हमारे स्वजन, तुम्हीं हो पास हमारे
97
55
अवनत कर दो देव, मुझे तुम
98
गंध-विधुर समीर में मैं
100
आज वसंत द्वार पर आया!
101
58
अपने सिंहासन से पल में
102
अपनाओ इस बार मुझे हे,
104
60
जीवन जिस क्षण सूख चले
105
नीरव कर दो, हे!
106
विश्व जब हुआ प्रसुप्त,
107
वह आकर बैठा पास यहाँ
108
64
सुनती नहीं पद-ध्वनि उसकी
109
मान गया मैं हार
110
66
एक-एक कर खोलो गायक,
111
कब मैं गान तुम्हारा गाता
112
प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ
114
आए तुम थे मनोज्ञ, आज प्रात में
116
हम तुम खेला करते थे जब
117
प्राण, दी तुमने नौका खोल
118
72
खो गया हृदय अधीर जलद-जाल में
119
हे मूक, यदि नहिं बोलोगे
120
जितनी बार जलाना चाहूँ
121
छिपा कर दुनिया से मैं नाथ,
122
76
वज्र-सी उठे बाँसुरी तान
123
दया करके मेरा जीवन
124
होगी जब सभा समाप्त,
125
79
चिरजन्म की हे वेदना
126
जब तुम आज्ञा देते मुझको गाने की
127
81
जाती जैसे मेरी सारी अभिलाषा
128
दिन में वे आए थे
129
लेकर तेरा नाम लिया कर
130
आज चाँदनी रजनी में
131
बात थी, एक नाव से, देव,
132
अपने एकाकी घर की,
133
मैं अकेला घूम सकता हूँ नहीं
135
यदि जगा दिया मुझे, अनाथ जान कर
137
चुन लो, हे, अविलंब सुमन को
138
तुम्हें चाहता, प्राण,
139
91
प्रेम हृदय का नहीं भीरु है
140
कठिन स्वरों में झंकृत कर दो
141
93
यह अच्छा करते हो, निष्ठुर,
142
94
देव समझ कर दूर रहूँ मैं
143
जो तुम करते कार्य,
144
विश्व संग मिल कर करते विहार हो वहीं
145
लो पुकार हे, पुकार के बुला मुझे
146
रे, जहाँ हो रही लूट भुवन में तेरी
147
99
विकसित करते फूल-सदृश तुम गान हमारा
148
किए रहूँगी ओंखें तेरी ओर
149
फिर से आता आषाढ़ गगन में छाकर
150
देख रहा, मानव वर्षा का
151
103
भर प्राणों में कौन सुधा हे देव, करोगे पान!
153
यह जीवन की साघ हमारी
154
एकाकी निकली मैं घर से
155
देख रहा हूँ तुम लोगों की ओर
156
अपने सिर पर अपने को
157
जागो, हे मेरे मन
158
हैं जहाँ सब से अधम रे,
162
भाग्य हीन हे देश
164
छोड़ना नहीं जकड़े रहना
167
हृदय पूर्ण है मेरा अब
169
113
इसी से नाम मैं लेता नहीं तेरा हृदय-वासी
170
अरे, यह कौन कहता है
171
115
संध्या में यम आ पहुँचेगा
173
दया करके स्वयं लघु बन
175
चरम पूर्णता मेरे जीवन की
176
राही हूँ,
178
उड़ती ध्वजा है अरी, अभ्रभेदी रथ पर
180
भजन, ध्यान, साधन, जप फेंक रे कहीं
182
सीमा में तुम असीम भरते निज स्वर
184
इसी से तो तेरा आनंद
185
सखे, यह मान का आसन
186
प्रभु-गृह से आया जब वीरों का दल
187
सोचा था कि कार्य पूर्ण हो गया, सखे अशेष
188
अलंकार सब छोड़ रहा है
189
निंदा, दुख, अपमानों से
190
नृप का वेश बना कर माँ
191
पतले, मोटे दो तारों में
193
देने के योग्य न दान
195
इसी लिए मैं जग में आया
197
जीवन में ये दु:स्वप्न विष्य बन
198
मैं सदा खोजता रहा तुम्हें
199
134
जीवन की इति तक भी
200
मिलने दो सब आनंद रागिनी होकर
201
136
आगे पीछे जब मुझे बाँध देते हो
202
जब तक तू है शिशु-सा निर्बल
203
यह चित्त कब हमारा रे नित्य सत्य होगा
204
तुमको अपना स्वामी समझूँ
205
इतना दे दिया मुझे
206
सुनता ओ नाविक,
207
मन का औ काया का
208
निज नाम से ढकते जिसे
210
हमारा नाम जब मिट जाएगा
211
जड़ा हुआ जिन बाधाओं से
212
तेरी दया नहीं भी यदि
213
आराधना हमारी सब पूर्ण हो न पाई
215
एक नमस्कार प्रभो
216
जीवन में जिस का आभास नित मिले
218
नित्य विरोध नहीं सह सकती हूँ
220
करूँ प्रेम को आत्म-समर्पण
221
152
जो मुझे प्रेम करते जग में
222
कब प्रेम दूत को भेजोगे
223
गान गवाए तुम ने मुझ से
224
सोचा, हुआ समाप्त किंतु यह
225
ले लेने पर पूर्ण
226
दिवस यदि हुआ समाप्त
227
नदी पार का यह जो आषाढ़ी प्रभात
228
159
जाते जाते मेरे मुख से
229
160
मेरा अंतिम यही निवेदन
231
161
तुमने मुझे अनंत बनाया
233
होऊँगा मैं खड़ा प्रति दिवस
235
163
मृत्यु-दूत को मेरे घर के द्वार
236
वैराग्य साधन में मिले जो मुक्ति
238
165
राजेंद्र, तुम्हारे हाथ काल है
240
166
दान तुम्हारा मर्त्यवासियों की
242
चित्त जहाँ भयशून्य, उच्च मस्तक नित रहता
243
168
मेरे अंग-अंग में तेरा स्पर्श
244
एक साथ ही तुम्हीं नीड़ हो
245
दीर्घ काल से अनावृष्टि
246
क्षणभर सुख के लिए
247
172
दो-चार दिवस का प्रश्न नहीं
248
उस दिन जब खिला कमल
250
174
छोडूँ नाव आज मझधारे
252
आज निशा की अलस पलक में
253
''बंदी, बोलो किसने तुमको-
254
177
रहने दो इतना शेष कि मैं
255
छाया में छिप सब से पीछे
256
179
एक दिन था, जब तेरे लिए
260
मुझे तब मिलता हर्ष अपार!
262
181
ढल चली राह देखते रात व्यर्थ ही आशा में उनके
264
प्रात के शांति-सिंधु में उठीं
266
183
गया था भीख माँगने आज भींगी
269
निशा; काम दिन भर के
271
सोचा माँग मैं गुलाब का हार
275
कितना सुंदर केश तुम्हारा मोहन,
278
कुछ तुम से पूछा नहीं, नहीं
279
अंतर में है आलस्य अभी आँखों में नींद तुम्हारे है!
281
एरे प्रकाश मेरे प्रकाश,
282
मेरी नस नस में दौड़ रही
284
शिशुगण अनंत लोक-सिंधु तीर आ मिले
286
192
नींद जो कि बच्चों की आँखों पर
288
जब रंगीन खिलौने लाता
290
194
उससे विजन सरि-तीर
292
जो मेरी आत्मा के अंतस्तल में
295
196
मेरी पृथ्वी पर रवि की
297
अपने लिए करूँ मैं सब कुछ,
299
निज गंभीर गुप्तस्पर्शों से
301
जब थी सुष्टि नवीन हुए ज्योतित नव तारे,
303
शरत् काल के मेव खंड-सा नभ
304
खोए हुए समय पर कितनी काटीं आँखों में रातें
305
खोजता प्रबल आस में किंतु
306
भग्न मंदिर के विस्मृत देव,
307
न कोलाहलमय ऊँचे शब्द
309
जानता, आवेगा वह दिन
311
अवकाश पा चुका हूँ!
इस बिदा के समय सखी, करो
315
रहा अनजान किया कब पार प्रथम मैंने जीवन का द्वार!
317
209
पराजय के अनेक उपहार हार से तुम्हें सजाऊँगा!
318
छोड़ देता हूँ जब पतवार
320
कह दिया सभी से गर्व सहित
321
तुम निज सृष्टि-पथ रखती हो घेर कर
323
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रवींद्र का जीवन
325
214
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