क्योंकि मनुष्य के साथ ही परमात्मा होने की संभावना, पोटेंशियलिटी के द्वार खुलते हैं।
वह अर्जुन पशु होना नहीं चाहता; स्थिति पशु होने की है; परमात्मा होने का उसे पता नहीं है। बहुत गहरी अनजान में आकांक्षा परमात्मा होने की ही है, इसीलिए वह पूछ रहा है; इसीलिए जिज्ञासा जगा रहा है। जिसके जीवन में भी प्रश्न हैं, जिसके जीवन में भी जिज्ञासा है, जिसके जीवन में भी असंतोष है-उसके जीवन में धर्म आ सकता है। जिसके जीवन में नहीं है चिंता, नहीं है प्रश्न, नहीं है संदेह, नहीं है जिज्ञासा, नहीं है असंतोष-उसके जीवन में धर्म के आने की कोई सुविधा नहीं है।
गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो मन के पार इशारा करता है। लेकिन है मनोविज्ञान ही। अध्यात्म-शास्त्र उसे मैं नहीं कहूंगा। और इसलिए नहीं कि कोई और अध्यात्म-शास्त्र है। कहीं कोई शास्त्र अध्यात्म का नहीं है। अध्यात्म की घोषणा ही यही है कि शास्त्र में संभव नहीं है मेरा होना, शब्द में मैं नहीं समाऊंगा, कोई बुद्धि की सीमा-रेखा में नहीं मुझे बांधा जा सकता। जो सब सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है, और सब शब्दों को व्यर्थ कर जाता है, और सब अभिव्यक्तियों को शून्य कर जाता है-वैसी जो अनुभूति है, उसका नाम अध्यात्म है।
२१ मार्च १६५३ : जबलपुर के डी. एन. जैन कॉलेज में दर्शन की पढ़ाई करते हुए इक्कीस साल की उम्र में वे बुद्धत्व को उपलब्ध हुए।
१६५६ : ओशो दर्शन में प्रथम श्रेणी में ऑनर के साथ सागर विश्वविद्यालय से एम.ए. में उत्तीर्न हुए।
१६५७-१६६६ : विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बने और एक सार्वजनिक वक्ता के रुप में प्रसिद्ध हुए।
१६६६ : नौ साल के अध्यापन के बाद, विश्वविद्यालय को छोड़ उन्होंने मानव चेतना के उत्थान हेतु, पूरी तरह से स्वयं को समर्पित कर दिया। उन्हें आचार्य रजनीश के रूप में जाना जाने लगा।
१६७०-१६७४ : वे वुडलैंड अपार्टमेंट, मुंबई में रहने लगे। अब उन्हें भगवान श्री रजनीश कहा जाने लगा और उन्होंने शिष्यत्व चाहने वालों के लिए नव-संन्यास नामक संन्यास की एक नवीन अवधरणा का आंदोलन शुरू किया।
१६७४-१६८१ : पुणे आश्रम में स्थानांतरित। इन सात वर्षों के दौरान उन्होंने हर महीने हिंदी और अंग्रेजी में बारी-बारी प्रायः हर सुबह ६० मिनट के प्रवचन दिए ।
६८१-१६८५ : अमेरिका प्रस्थान। ओरेगान के कठोर रेगिस्तान में एक मॉडल कृषि कम्यून का निर्माण।
जनवरी १६८६ में काठमांडू, नेपाल की यात्रा।
३ जनवरी से १४ फरवरी तक,
भगवद्गीता का ओशो के प्रवचनों में भी महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने गीता पर किसी भी अन्य पुस्तक की तुलना में अधिक और काफी विस्तार से बात की, जो नवंबर १६७० में शुरू हुई और अगस्त १६७५ में समाप्त हुई।
ओशो के अनुसार गीता को एक गहन आध्यात्मिक पुस्तक के रूप में देखा है, जो जीवन के मूल रहस्यों से परिचित कराती है। गीता का संदेश सिर्फ थार्मिक या शास्त्रिय नहीं, बल्कि अस्तित्व की गहराईयों को समझने का एक मार्ग है। ओशो ने गीता के पात्र अर्जुन की मनोस्थिति का विश्लेषण करते हुए कहा कि अर्जुन का द्वंद्व केवल युद्ध के मैदान पर नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्य के भीतर की अनिर्णय की स्थिति का प्रतीक है। ओशो के अनुसार, गीता जीवन के सत्य को जानने का एक सरल और प्रभावी मार्ग है, जो हर व्यक्ति को स्वयं की दिव्यता से परिचय हेतु प्रेरित करती है।
आशो की जीवन रूपान्तरकारी पुस्तकें आत्मअन्वेषण की मार्गदर्शीका तो है ही, एक लाईब्रेरी की शोभा भी है। ओशो तपोवन द्वारा अब तक 209 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। 209 पुस्तकों में 101 पुस्तकें अंग्रेजी में और 108 पुस्तकें हिन्दी में है।
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