पुस्तक के विषय में
महात्मा गांधी ने भारत की दो ऐतिहासिक यात्राएं की थी- एक तो तिलक स्वराज फंड के लिए और दूसरी अस्पृश्यता निवारण हेतु । दूसरी यात्रा का क्षेत्र विस्तृत था और उसमें गांधीजी ने जनता के आगे अपना हृदय उड़ेल दिया था । बापू की ऐतिहासिक यात्रा शीर्षक इस पुस्तक में गांधीजी की इसी दूसरी यात्रा का वर्णन है जिसमें गांधीजी ने देश के कोने-कोने में जाकर लोगों का अस्पृश्यता निवारण हेतु आह्वान किया । इस यात्रा में अस्पृश्यता निवारण के लिए कारगर प्रचार तथा धनसंग्रह का ऐसा बड़ा काम हुआ, जिसके कारण हरिजन कल्याण की प्रवृत्ति में इसे ऐतिहासिक माना जा सकता है । इस ऐतिहासिक यात्रा का विवरण मुख्यत : अंग्रेजी साप्ताहिक- हरिजन, गुजराती-हरिजन बंधु तथा हिंदी-हरिजन सेवक के तत्कालीन अंकों से लिया गया है ।
प्रस्तावना
महात्मा गांधी ने भारत की दो ऐतिहासिक यात्राएं की थीं- एक तो तिलक स्वराज फंड के लिए और दूसरी अस्पृश्यता निवारण के हेतु । दूसरी यात्रा का क्षेत्र विस्तृत था और उसमें गांधीजी ने जनता के आगे अपना हृदय उड़ेल दिया था । इस युगांतरकारी ऋषि ने एक मंत्र दिया था जो सदा समता संस्थापन का मार्ग दिखाता रहेगा । मंत्र यह है कि '' अस्पृश्यता हिंदू धर्म और समाज पर कलंक है । इस कलंक से मुक्त होकर ही ' आत्मवत सर्वभूतेषु ' धर्म बच सकता है । '' अनेक विद्वानों और आचार्यों ने शास्त्रोक्त मंत्रों के विविध अर्थ किए हैं, किंतु गांधीजी का यह मंत्र विविध अर्थों को नहीं चाहता । इसका सीधा-सादा अर्थ यह है कि इसे आचरण में उतारा जाए । गांधीजी का यदि कोई दर्शन है, यद्यपि गांधीजी ने स्वयं अपने विचारों को दर्शन का रूप देने से बार-बार मना किया था, तो इतना ही कि इसमें से हरेक अपने अंतर का निरीक्षण करे और जो कुछ वहां देखें, उसे जीवन क्षेत्र में मनोयोगपूर्वक उतारें ।
गांधीजी को प्राय : इतना ही समझा गया या सीमित कर दिया गया कि उन्हों ने परतंत्र भारत को स्वतंत्रता दिलाई । पर गांधीजी का जीवन-चरित भारत को स्वतंत्र बनाने में ही समाप्त नहीं हों जाता । सत्य और अहिंसा-ये दो अमोध साधन उनकी दृष्टि में केवल भारत मुक्ति के ही लिए ही नहीं थे । मानवता की मुक्ति गांधीजी के सामने सदा रही । वह दृष्टि थी. मानव के अंतर में से पशुता को बाहर निकाल देने की । पथ तो गांधीजी का बड़ा लंबा था । भारत की परतंत्रता का पत्थर, जो उस पथ पर पड़ा हुआ था, उसें हटाकर गांधीजी को आगे और आगे बढ़ते जाना था ।
मानव के अंतर में समाई हुई पशुता अर्थात उसकी स्वयं की बनाई हुई ऊंच-नीच की भावना थी- यह एक काला पर्दा था, इसे हटाने को ही गांधीजी आतुर थे क्योंकि वह स्वयं सर्वात्मा में परमात्मा का स्वरूप देखना और दूसरों को दिखाना चाहते थे- उनकी दृष्टि में अस्पृश्यता का पर्याय था-अनीश्वरता । शास्त्रों के तर्क-वितर्कों द्वारा सिद्ध करने की उसे आवश्यकता नहीं थी । बुद्वि से भी परे जो कुछ है उसी ने आदेश दिया था गांधीजी को कि उक्त मंत्र प्रकट किया जाए- कलुषित हिंदू धम और हिंदू समाज को मुक्ति दिलाने के लिए ।
गांधीजी ने बार-बार कहा था कि अस्पृश्यता का निवारण और उन्मूलन मात्र राजनीतिक साधनों से नहीं हो सकता । जिसे गांधीजी धर्म मानते थे उसकी संस्थापना पल-पल पर रंग पलटने वाली बेचारी राजनीति कैसे कर सकती है ' राजनीति गांधीजी की दृष्टि में चेरी थी धर्म की । सैकड़ों हजारों भाषणों में गांधीजी ने बार-बार कहा था कि समाज संशोधन प्रायश्चित रूपी तप से ही संभव है । अस्वच्छ बर्तन में हम दूध को रख सकते हैं ' स्वातंत्र्य रूपी दूध को अस्वच्छ बर्तन में यदि रखा तो वह फट जाएगा । विषमता ही समाज के जीवन में अस्वच्छता है और अनीश्वरता भी । गांधीजी ने भारत की स्वतंत्रता को अस्पृश्यता निवारण आदोलन द्वारा केवल फलितार्थ कहा था । अस्पृश्यता अर्थात ऊंच-नीच की भावना के रहते हुए हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं । भारत की स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि विश्व की मानवता भी सुरक्षित नहीं ।
इसी लक्ष्य कों लेकर बापू ने जन-जन को अस्पृश्यता निवारण का संदेश दिया था । यह संदेश बापू के जीवन का संदेश था । जनवत्सलता से प्रेरित होकर ही बापू ने इस ऐतिहासिक यात्रा का आरंभ किया था । रूढ़िवादियों ने इस धर्ममूलक प्रवृत्ति का कहीं-कहीं पर विरोध भी किया पर सर्वत्र बापू के संदेश का स्वागत हुआ । विरोधियों के हृदय भी पिघल गए-ऐसे अनेक प्रसंग यात्रा-विवरण में आए हैं । जीवनशुद्धि के ऐसे पावन प्रसंग हमको उस पथ पर खींचकर ले जाते हैं, जहां मानव प्रेम के पुष्प बिछे हुए हैं और हम अपने आपको भूल जाते हैं । वे हमें सोचने को विवश कर देते हैं कि अपने कलुषित हृदय को प्रायश्चित के पावन जलसे पखार डालें और गहरे उतरकर देखें- आज हम कहां हैं और हमें कहां जाना है ।
इस ऐतिहासिक यात्रा का विवरण अंग्रेजी साप्ताहिक-हरिजन गुजराती- हरिजन बंधु तथा हिंदी- हरिजन सेवक के तत्कालीन अंकों से मुख्यत : लिया गया है । बापू के सचिवों ने, अन्य साथियों ने तथा इन पत्रों के संपादकों ने जो विवरण प्रति सप्ताह भेजे, वे इतने रोचक हैं कि उनको पढ़ते जी नहीं भरता । मेरा अहोभाग्य कि हरिजन सेवक कै मेरे संपादन- काल में यह एतिहासिक हरिजन यात्रा सम्पन्न हुई ।
ऐतिहासिक यात्रा की यह पुस्तक स्वयं ही अपनी प्रस्तावना है, विस्तार देने की आवश्यकता नहीं। आशा है कि भूलते जा रहे गांधीजी की भूलते जा रहे बापू की एवं उनके कार्यकलापों की- यह यात्रा-विवरण कुछ तो याद दिलाएगा हमें कि आज भी समय है बापू कैं दिखाए पथ पर चलन का । विश्वास है कि दुनिया को, जो भटक गई है और उलझन में पड गई है-बापू का दिखाया रास्ता-मानवीय समता का राजमार्ग-पकड़ना ही होगा जिसका निर्माण गांधीजी ने अपने रक्त की एक-एक बूंद से किया था । आधार मानता हूं श्री बालकृष्ण शास्त्री का, जिन्होंने यात्रा-विवरणों कै संकलन में योग दिया है ।
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