गणदेवता (चण्डीमण्डप और पंचग्राम): Ganadevata

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Item Code: NZD112
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author: हंस कुमार तिवारी (Hans Kumar Tiwari)
Language: Hindi
Edition: 2019
ISBN: 9788126319510
Pages: 580
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 540 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

गणदेवता

कालजयी बांग्ला उपन्यासकार ताराशंकर बन्धोपाध्याय का उपन्यास 'गणदेवता' संसार के महान उपन्यासों में गणनीय है । इसे भारतीय भाषाओं के शताधिक समीक्षक साहित्यकारों के सहयोग से समग्र भारतीय साहित्य में 'सर्वश्रेष्ठ' के रूप में चुना गया और ज्ञानपीठ पुरस्कार (वर्ष 1966) से सम्मानित किया गया ।

'गणदेवता' नये युग के चरण-निक्षेपकाल का गद्यात्मक महाकाव्य है । हृदयग्राही कथा का विस्तार, अविस्मरणीय कथा-शैली के माध्यम से, बंगाल के जिस ग्रामीण अंचल से सम्बद्ध है उसकी ग्रन्थ में समूचे भारत की धरती की महक व्याप्त है ।

लेखक के विषय में

ताराशंकर बन्धोपाध्याय

जन्म : 25 जुलाई 1898; लाभपुर, जिला वीरभूम, पश्चिम बंगाल । सम्मान : विशेष रूप से उल्लेख हैं- शरत् स्मृति पुरस्कार, कलकत्ता विश्वविद्यालय (1947); रवीन्द्र पुरस्कार (1955); साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1966); सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार- ज्ञानपीठ पुरस्कार (1966)

कृतित्व : सब 108 रचनाएँ जिनमें विधाक्रम से 50 उपन्यास, 40 कथा-संग्रह, 9 नाटक, 4 आत्मजीवनी, 2 निबन्ध-संग्रह, 1 कविता-संग्रह, 2 भ्रमणवृत्तान्त हैं ।

निधन : 14 सितम्बर, 1971

प्रस्तुति

दिल्ली में, 11 मई, 1967 को जब घोषणा हुई कि भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रवर्तित साहित्य-पुरस्कार योजना के अन्तर्गत गठित प्रवर परिषद् ने श्री ताराशंकर बन्योपाध्याय की कृति 'गणदेवता' को सन् 1925 से 1959 के बीच प्रकाशित समूचे भारतीय साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना है और एक लाख रुपये के पुरस्कार से सम्मानित किया है, तो जहाँ देश के साहित्यकारों को इस बात से प्रसन्नता हुई कि श्री ताराशंकर बन्योपाध्याय निःसन्देह पुरस्कार के अधिकारी हैं, वहाँ बांग्ला साहित्य से सामान्य परिचय रखनेवालों को इस बात से कौतूहल हुआ कि तारा बाबू की जिन कृतियों को बांग्ला साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों के रूप में अन्य माध्यमों द्वारा पुरस्कृत किया जा चुका है उनमें 'गणदेवता' का नाम क्यों नहीं? और, इस सर्वोच्च अखिल भारतीय पुरस्कार के लिए 'गणदेवता' श्रेष्ठतम के रूप में कैसे चुना गया?

श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय के समूचे कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन करने के उपरान्त अब प्राय: सभी सहमत हैं कि 'गणदेवता' का चुनाव पुरस्कार की अखिल भारतीय भूमिका के सर्वथा अनुरूप ही हुआ है। इस निर्वाचन का श्रेय मुख्यत: बांग्ला भाषा परामर्श समिति के सदस्यों को है जिन्होंने प्रवर परिषद् के विचारार्थ 'गणदेवता' की संस्तुति की । 'गणदेवता' का यह हिन्दी संस्करण बांग्ला में प्रकाशित कृति से इस दृष्टि से विशेष है कि बांग्ला में 'गणदेवता' के शीर्षक से समूचा उपन्यास एक जिल्द में अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ । बांग्ला में यह कृति दो पुस्तकों के रूप में प्रकाशित है 'गणदेवता' और 'पंचग्राम' यद्यपि 'पंचग्राम' में 'गणदेवता' की कथा अग्रसारित है । भारतीय साहित्य में श्री ताराशंकर बन्योपाध्याय की प्रतिष्ठा का चरम बिन्दु यह है कि वह बंकिमचन्द्र, शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की शृंखला में आते हैं । तारा बाबू की साहित्यिक उपलब्धि अमर है । उनका माग अपना निजी है, साधना अन्त:प्रेरित, और जीवन-दृष्टि स्वयं-प्राप्त । शरतचन्द्र मध्यवित्त भद्रलोकों की संवेदना के संवाहक थे । उनका उद्देश्य था समाज को वह दृष्टि देना जो पतितों और चरित्रहीनों के उदात्त मानवीय पक्ष को उद्घाटित करे। तारा बाबू ने साहित्य की अछूती और दुर्गम पगडण्डियों पर साहस के साथ पग रखे हैं । उन्होंने जिस शहरी और देहाती मध्यवित्त समाज को चित्रित किया है, वह उनका अपना सहवर्ती समाज है-उनके अपने जमाने की समस्याओं सै ग्रस्त, अपने युग से प्रभावित और .अपने युग का निमाण करता हुआ, नयी लीकें डालता हुआ तथा पुरानी लीकों को पालने में टूटता हुआ ।

तारा बाबू की कृतियों में जीवन के अनेक आयाम अदले-बदले हैं । वह पहुँचे हैं समाज के अछूते अंचलों में, निम्नवर्गों में, सुख-दुःख के ठोस संघर्ष में, दानवी-मानवी और दैवी प्रकृति के आदिम लोक में । जो उन्होंने देखा, वाष्पाकुल नेत्रों से नहीं, कल्पना-भावनाओं के उद्दाम वेगों से बहते हुए नहीं, प्रकृतिस्थ होकर, यथार्थ को स्वीकृति देकर, परम्परा के श्रेय को मान देकर, नये के प्रेम को अपनत्व देकर । 'गणदेवता' भारतीय नवजागरण काल का महाकाव्य है । इसमें जीवन के सांस्कृतिक पक्ष की परम्परा और नये प्रभावों का केन्द्र है 'चण्डीमण्डप' -माँ काली की पूजास्थली । और, जीवन के राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन, विघटन, पुनर्गठन की कथा का आधार है 'पंचग्राम' -मनु की व्यवस्था के अनुसार पाँच ग्रामों की इकाई, जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन उपलब्ध करती है । महाकाव्य की-सी भूमिका के अनुरूप ही 'गणदेवता' की कथा का उदय और विस्तार हुआ है, जिसमें पुरानी सामाजिक अर्थव्यवस्था का विघटन, नयी उद्योग-व्यवस्था की स्थापना और इस उलटफेर में जीवन-मूल्यों की नयी तुला पर असाधारण व्यक्तियों का साधारणीकरण, जो फिर भी अपने चरित्र की महत्ता में असाधारण रहते हैं । इसी पृष्ठभूमि में देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष और वलिदान की कथा, अत्याचारों और अत्याचारियों से टक्कर लेने का दुर्दम साहस-बड़े विलक्षण और मार्मिक चरित्र अवतरित हैं सब ।

साधारण और .असाधारण की क्रिया-प्रतिक्रिया, राक ही मानव के उदात्त और अनुदात्त पक्षी का यथार्थ चित्रण-और सर्वोपरि, जीवनसत्य के अनुसन्धान का प्रमाणीकृत प्रतिफल इस सबके परिप्रेक्ष्य में 'गणदेवता' असन्दिग्ध रूप से उच्चकोटि के सर्जनात्मक कृतित्व से .अलंकृत है ।

मूल वल्ला में 'गणदेवता' सर्वप्रथम 1942 में प्रकाशित हुआ था । तब से कई संस्करण इसके हो चुके हैं । उपन्यास का कथानक, इसके चरित्र, उनकी समस्या-भावनाएँ, और उनके 'आवेग-संवेग नितान्त स्वाभाविकता के साथ इस मूलभूत वास्तविकता को रेखांकित करते हैं कि सर्जनात्मक साहित्यिक रचना, यों देश के किसी भाग सै सम्बद्ध हौ, वह समूचे देश को प्रतिविम्बित करती है। देश की अन्तरात्मा यथार्थत: अविभाज्य है, भले ही वह अभिव्यक्ति देश की अनेक भाषाओं में से किसी एक में ग्रहण करे । और यही तो भारतीय ज्ञानपीठ की मूल दृष्टि है और उसके द्वारा प्रवर्तित इस पुरस्कार की प्रेरणा-भावना ।'गणदेवता' के इस हिन्दी रूपान्तर का प्रकाशन-उद्घाटन प्रथम बार 15 दिसम्बर 1967 को पुरस्कार समर्पण-समारोह के अवसर पर हुआ था । उससे एक वर्ष पहले जब महाकवि जी. शंकर कुरुप को पुरस्कार समर्पित किया गया था उस अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ ने पुरस्कृत कृति 'ओटस्कुष़ल' का हिन्दी अनुवाद 'बाँसुरी' शीर्षक से प्रस्तुत किया था । इन प्रकाशनों ने भारतीय ज्ञानपीठ की 'राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला' को एक नया गौरव दिया है ।

यह अनुवाद श्री हंसकुमार तिवारी ने प्रस्तुत किया है । बांग्ला के देहाती मुहावरे को यथार्थ हिन्दी पर्याय देने में वह विशेष रूप से कुशल हैं, क्योंकि देहाती जीवन से वह सम्पृक्त रहे हैं । अनुवाद में हिन्दी के बँधे-बँधाये गठन से हटकर यदि कुछ विचित्र-सा लगे तो उसे अनुवादक द्वारा मूल की भंगिमा को व्यक्त करने का प्रयोग माना जाए ।

दो शब्द

'गणदेवता' उपन्यास वर्ष 1966 के भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुआ है । भारतीय ज्ञानपीठ के प्रयत्न से ही इसका हिन्दी 'अनुवाद प्रकाशित हो रहा है । 'गणदेवता' का प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1942 में हुआ था जिसके प्रथम खण्ड का नाम है 'गणदेवता' (चण्डीमण्डप) । इसका दूसरा खण्ड 'पंचग्राम' सन् 1944 में प्रकाशित हुआ । वास्तव में इन दोनों खण्डों को मिलाकर ही एक सम्पूर्ण रचना बनती है । इस प्रकार 'चण्डीमण्डप' और 'पंचग्राम', इन दो खण्डों का संयुक्त नाम 'गणदेवता' है । बांग्ला में दोनों खण्ड दो पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हैं । भारतीय ज्ञानपीठ ने इन दोनों को एकत्र कर 'गणदेवता' नाम से हिन्दी में प्रकाशित किया है । 'गणदेवता' का रचना-काल 1941-42 है । इस समय भारतवर्ष परोक्ष में युद्धाक्रान्त था और प्रत्यक्ष में विदेशी शासन की शृंखलाओं से मुक्ति के लिए संघर्षरत । यही वेदना उसके अन्तःकरण को क्षत-विक्षत किये थी । उसी उत्ताप और ज्वाला के कुछ चिह इस उपन्यास में भी आ गये हैं, ऐसा मैं सोचता हूँ ।

'गणदेवता' बंगाल के ग्राम्यजीवन पर आधारित एक ग्रामभित्तिक उपन्यास है । कृषि पर निर्भरशील ग्राम्यजीवन की शताब्दियों की सामाजिक परम्परा किस प्रकार पाश्चात्य औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप यन्त्र-सभ्यता के संघात से धीरे-धीरे अस्त-व्यस्त होने लगी थी, यही इस उपन्यास में दिखाया गया है । कृषि-निर्भर ग्राम्यजीवन जिन सामाजिक परम्पराओं पर टिका हुआ था उनका रूप सम्भवतया संसार के कृषि-निर्भर, यन्त्र-सभ्यता से अछूते ग्राम्यजीवन में सर्वत्र एक ही है । किन्तु 'पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा-द्राविड़-उत्कल-बंग' को अपने में समेटे इस विशाल देश भारत की सामाजिक परम्परा के साथ एक और तत्त्व भी गुम्फित था जिसे अनुशासन कहा जा सकता है। यह अनुशासन नीति का अनुसरण करता है, और न्याय और अन्याय के बोध को लेकर सदा स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से जीवन में सब कहीं, सब क्षेत्रों में, किसी--किसी प्रकार अपने को प्रयुक्त करना चाहता है। सम्पूर्ण सामाजिक परम्परा की आधार-भूमि यह बोध ही था। इस बोध के परिणामस्वरूप प्राकृतिकविभिन्नता के रहते भी आभ्यन्तरिक तथा बाह्य जीवन में सारे भारत के ग्राम्यजीवन को एक आश्चर्यमयी एकता की वाणी प्राप्त होती है ।

इसीलिए, बंगाल के ग्राम्यजीवन का जो चित्र इस उपन्यास का आधार है वह केवल बंगाल का होने पर भी उसमें सम्पूर्ण भारत के ग्राम्यजीवन का न्यूनाधिक प्रतिबिम्ब मिलेगा । बंगाल के गाँव का खेतिहर-महाजन श्रीहरि घोष, संघर्षरत आदर्शवादी युवक देबू घोष, अथवा जीविकाहीन-भूमिहीन अनिरुद्ध लुहार केवल बंगाल के ही निवासी नहीं हैं; इनमें भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम-सब दिशाओं के भिन्न-भिन्न राज्यों के ग्रामीण मनुष्यों का चेहरा खोजने पर प्रतिबिम्बित मिल जाएगा । बंगाल के श्रीहरि, देबू या अनिरुद्ध ने दूसरे प्रान्तों में जाकर सिर्फ़ नाम ही बदला है, पेशे और चरित्र में वे लोग भिन्न नहीं हैं ।

भारतीय ज्ञानपीठ, उसकी अध्यक्षा माननीया श्रीमती रमा जैन, तथा मन्त्री श्रीयुत् लक्ष्मीचन्द्र जैन को मैं इस पुस्तक का आग्रह और यत्न से प्रकाशन करने के लिए धन्यवाद अर्पित करता हूँ तथा प्रतिष्ठित अनुवादक श्री हंसकुमार तिवारी को भी अनुवाद-कार्य के लिए धन्यवाद देता हूँ ।

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