विद्यालय शिक्षा के सभी स्तरों के लिए श्रेष्ठ शिक्षाक्रमों और पाठ्यपुस्तकों के निर्माण की दिशा में परिषद् पिछले पैंतीस वर्षों से कार्य करती आ रही है जिसका प्रभाव भारत के सभी राज्यों और संघ शासित प्रदेशों पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पड़ा है। अच्छे पाठ्यक्रमों और उत्तम पाठ्यपुस्तकों के अलावा हमारे विद्यार्थियों का मन परीक्षा में निर्धारित कोर्स से बाहर की अन्यान्य पुस्तकों को ज्ञान और आनंद की प्राप्ति के लिए पढ़ने के लिए स्वतः प्रेरित हो सके, इस उद्देश्य से परिषद् ने विभिन्न आयुवर्ग के विद्यार्थियों के लिए सरल भाषा और रोचक शैली में कम मूल्य की अतिरिक्त पठन की पुस्तकें प्रकाशित करने की योजना बनाई है। "पढ़ें और सीखें" शीर्षक इस परियोजना के अंतर्गत परिषद् ने मई 1994 तक निम्नलिखित विषयों पर हिंदी में 85, अंग्रेज़ी में 39 और उर्दू में 14 पुस्तकें प्रकाशित की हैं:
(क) शिशुओं के लिए पुस्तकें
(ख) कथा साहित्य
(ग) जीवनियाँ
(घ) देश-विदेश परिचय
(ङ) सांस्कृतिक विषय
(च) सामाजिक विज्ञान के अन्यान्य विषय
(छ) वैज्ञानिक विषय
(ज) अन्य उपयोगी विषय
इन पुस्तकों के निर्माण की दिशा में हम लब्धप्रतिष्ठ और सजूनशील लेखकों, अनुभवी अध्यापकों और योग्य कलाकारों का सहयोग ले रहे हैं। प्रत्येक पुस्तक के प्रारूप पर विषय-विवेचन, भाषा शैली और प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से सामूहिक विचार-विमर्श करके इसे अंतिम रूप प्रदान किया जाता है।
"देश-विदेश परिचय" शीर्षक के अंतर्गत अब तक अरुणाचल प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु तथा रोमानिया, स्वीडन-नार्वे और फिलिप्पीस पर पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं। प्रस्तुत पुस्तक "फ्रांस इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रकाशित की जा रही है।
इस पुस्तक के लेखक पचहत्तर वर्षीय प्रो. जगवंश किशोर बलबीर का जन्म दिल्ली में तथा शिक्षा-दीक्षा दिल्ली और इलाहाबाद में संपन्न हुई। भारत में दस वर्ष तक (1952-1962) संस्कृत का यूनिवर्सिटी प्रोफेसर रहने के बाद प्रो. बलबीर संयुक्त राष्ट्र संघ की अंतर्राष्ट्रीय लोक सेवा में पैरिस स्थित यूनेस्को मुख्यालय चले गए और बाईस वर्ष तक कार्यरत रहे। सेवा निवृत्त प्रो. बलबीर फ्रांस में बसे हुए हैं किंतु राष्ट्रीयता की दृष्टि से वे अब भी भारतीय हैं। हिंदी मातृभाषा-भाषी प्रो. बलबीर संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी, उर्दू पाली, फ्रेंच, स्पेनिश तथा तिब्बती भाषा के भी उद्भट् विद्वान है। हम आभारी है कि उन्होंने भारतीय विद्यार्थियों के लिए "फ्रांस" पर पुस्तक लिखने का हमारा निमंत्रण स्वीकार किया। इस पुस्तक में उन्होंने फ्रांसीसी जनजीवन, उद्योग और विज्ञान तथा वहाँ की सांस्कृतिक विशिष्टताओं आदि के बारे में ज्ञानवर्धक और रोचक जानकारियाँ बड़ी सजीव भाषा में प्रस्तुत की हैं। वे एक सिद्धहस्त लेखक हैं। अनेक भाषाओं की गहरी पकड़ रखने वाले प्रो. बलबीर की हिंदी का गद्य-शिल्प बड़ा अनूठा बन पड़ा है। यह कार्य उन्होंने अपने भारत-प्रेम और भारतीय विद्यार्थियों के लिए अपने कर्तव्य और अनुराग की भावना से पूरा किया है। एतदर्थ हम उनके प्रति पुनः अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
संस्कृत भाषा और साहित्य के वर्षों के गूढ़ अध्ययन ने मुझे भारत की आत्मा का ज्ञान दिया और हजारों वर्ष पुरानी हमारी अखंड संस्कृति के प्रति आदर और गौरव की भावनाओं से ओत-प्रोत कर दिया। अंग्रेजी भाषा, शिक्षा प्रणाली, जीवन और संस्कृति के अतिरिक्त अन्य देशों की जिज्ञासा सेंट स्टीफन्ज़ कॉलिज, दिल्ली के विद्यार्थी जीवन में जागृत हुई और जब में गुरुवर प्रोफ़ेसर बाबूराम सक्सेना के निरीक्षण में अनुसंधानार्थ प्रयाग विश्वविद्यालय में रहा तो फ्रांसीसी और जर्मन भाषा सीखने का प्रथम अवसर पाया। अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के नागपुर के अधिवेशन में सबसे पहले जिस फ्रांसीसी से मेरी भेंट हुई वे थे वेदांत के फ्रांसीसी विद्वान प्रोफेसर ओलिविये लकोम्ब (Olivier Lacombe)। उस समय वे भारत में फ़्रांसीसी दूतावास के सांस्कृतिक परामर्शदाता थे। उनकी कृपा से ही फ्रांसीसी सरकार ने मुझे फ्रांस में अनुसंधान करने के लिए छात्रवृत्ति दी।
भारत की स्वतंत्रता का यह महत्वपूर्ण और प्ररेणाप्रद समय था। आनंदभवन, प्रयाग की एक सभा में पण्डित जवाहरलाल नेहरू के अद्वितीय व्यक्तित्व की झाँकी देखी और दिल्ली की भंगी कालोनी में महात्मा गांधी की अर्चना सभाओं में उनका संदेश सुना। भारत की आज़ादी के उस 14-15 अगस्त, सन् 1947 की आधी रात को जब मैंने पण्डित नेहरू का भाषण सुना तो अपनी पीढ़ी के लोगों की तरह मेरा दिल भी उछल पड़ा था। हम सब ही स्वतंत्र देश की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर हो गए थे। हम सब ही भारतीय संस्कृति के आधारभूत मूल्यों से प्रेरित हो यथाशक्ति भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक उन्नयन करना चाहते थे, सभी विश्वभर में अहिंसा और सहनशीलता का संदेश फैलाना चाहते थे।
भारत छोड़ने से पहले महात्मा गांधी की आत्मकथा के कुछ अंश अत्यंत सार्थक हो गए। अठारह वर्ष की आयु में वे विद्या ग्रहण करने के लिए ब्रिटेन गए थे। लंदन में परिवार के एक मित्र डॉक्टर मेहता ने उन्हें दीक्षा दी। लंदन पहुँचने के अगले दिन डॉ. मेहता गांधी जी से मिलने आए। बातचीत के दौरान में गांधी जी ने डॉ. मेहता के हैट पर अपना हाथ सहलाना शुरू कर दिया। कुछ तन कर डॉ. मेहता ने उन्हें ऐसा करने से रोका। गांधी जी ने लिखा है कि यूरोपीय आचार-व्यवहार के विषय में यह उनका पहला पाठ था। परिहासपूर्ण लहजे में डॉ. मेहता ने कहा "अन्य व्यक्तियों की चीज़ों को छूना यहाँ ठीक नहीं समझा जाता। न यहाँ पर ऐसे सवाल ही पूछे जाते हैं जो हम भारत में पूछते हैं। ज़्यादा ऊँचे स्वर में भी नहीं बोलना चाहिए।" जब गांधी जी के लंदन में होटल में रहने का सवाल उठा तो डॉ. मेहता ने उन्हें बताया कि हम ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त करने के लिए ही नहीं अपितु अंग्रेज़ी जीवन और आचार-व्यवहार का ज्ञान भी प्राप्त करने आते हैं। डॉ. मेहता ने उन्हें सलाह दी कि वह किसी अंग्रेज़ी कुटुंब में रहें....।
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