विस्मृत यात्री: The Forgotten Travellers

FREE Delivery
$24.75
$33
(25% off)
Quantity
Delivery Ships in 1-3 days
Item Code: HAA153
Publisher: KITAB MAHAL
Author: राहुल सांस्कृत्यायन: (Rahul Saankrityayan)
Language: Hindi
Edition: 2013
ISBN: 8122503314
Pages: 303
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 290 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

प्रकाशकीय 

हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास प्रसिद्ध और अमर विभूतियों में गिना जाता है । राहुल जी की जन्मतिथि 9 अप्रैल, 1893 ई० और मृत्युतिथि 14 अप्रैल । 1963 ई० है । राहुल जी का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था । बौद्ध दर्शन से इतना प्रभावित हुए कि स्वयं बौद्ध हो गये । राहुल नाम तो बाद में पड़ा बौद्ध हो जाने के बाद । सांकत्य गोत्रीय होने के कारण उन्हें राहुल सांकृत्यायन कहा जाने लगा । राहुल जी का समूचा जीवन घुमक्कड़ी का था । भिन्न भिन्न भाषा साहित्य एवं प्राचीन संस्कृत पालि प्राकृत अपभ्रंश आदि भाषाओं का अनवरत अध्ययन मनन करने का अपूर्व वैशिष्ट्य उनमें था । प्राचीन और नवीन साहित्य दृष्टि की जितनी पकड़ और गहरी पैठ राहुल जी की थी ऐसा योग कम ही देखने को मिलता है । घुमक्कड़ जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति ही सर्वोपरि रही । राहुल जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सन् 1927 ई० में होती है । वास्तविकता यह है कि जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके, उसी प्रकार उनकी लेखनी भी निरन्तर चलती रही । विभिन्न विषयों पर उन्होंने 150 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है । अब तक उनक 130 से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं । लेखों, निबन्धों एवं भाषणों की गणना एक मुश्किल काम है ।

राहुल जी के साहित्य के विविध पक्षों को देखने से ज्ञात होता है कि उनकी पैठ न केवल प्राचीन नवीन भारतीय साहित्य में थी, अपितु तिब्बती, सिंहली, अंग्रेजी, चीनी, रूसी, जापानी आदि भाषाओं की जानकारी करते हुए तत्तत् साहित्य को भी उन्होंने मथ डाला । राहुल जी जब जिसके सम्पर्क में गये, उसकी पूरी जानकारी हासिल की । जब वे साम्यवाद के क्षेत्र में गये, तो कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्तालिन आदि के राजनीतिक दर्शन की पूरी जानकारी प्राप्त की । यही कारण है कि उनके साहित्य में जनता, जनता का राज्य और मेहनतकश मजदूरों का स्वर प्रबल और प्रधान है ।

राहुल जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न विचारक हैं । धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासाहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोश, प्राचीन तालपोथियों का सम्पादन आदि विविध क्षेत्रों में स्तुत्य कार्य किया है । राहुल जी ने प्राचीन खण्डहरों से गणतंत्रीय प्रणाली की खोज की । सिंह सेनापति जैसी कुछ कृतियों में उनकी यह अन्वेषी वृत्ति देखी जा सकती है । उनकी रचनाओं में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है । यह केवल राहुल जी थे जिन्होंने प्रचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिन्तन को समग्रत आत्मसात् कर हमें मौलिक इष्टि देने का निरन्तर प्रयास किया है । चाहे साम्यवादी साहित्य हो या बौद्ध दर्शन, इतिहास सम्मत उपन्यास हो या वोल्गा से गंगा की कहानियाँ हर जगह राहुल जी की चिन्तक वृत्ति और अन्वेषी सूक्ष्म दृष्टि का प्रमाण मिलता जाता है । उनके उपन्यासे और कहानियाँ बिल्कुल नये दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं ।

समग्रत यह कहा जा सकता है कि राहुल जी न केवल हिन्दी साहित्य अपितु समूचे भारतीय वाड्मय के एक ऐसे महारथी हैं जिन्होंने प्राचीन और नवीन, पौर्वात्य एवं पाश्चात्य, दर्शन एवं राजनीति और जीवन के उन अछूते तथ्यों पर प्रकाश डाला है जिन पर साधारणत लोगों की दृष्टि नहीं गयी थी । सर्वहारा के प्रति विशेष मोह होने के कारण अपनी साम्यवादी कृतियों में किसानों, मजदूरों और मेहनतकश लोगों की बराबर हिमायत करते दीखते हैं ।

विषय के अनुसार राहुल जी की भाषा शैली अपना स्वरूप निर्धारित करती है । उन्होंने सामान्यत सीधी सादी सरल शैली का ही सहारा लिया है जिससे उनका सम्पूर्ण साहित्य विशेषकर कथा साहित्य साधारण पाठकों के लिए भी पठनीय और सुबोध है ।

प्रस्तुत कृति विस्मृत यात्री राहुल जी का एक महत्वपूर्ण उपन्यास है । इसके कथानक सें पाठक समझेंगे कि यह एक इतिहास का और घुमक्कड़ के अनुभवों का सागर है । उपन्यास का नायक नरेन्द्रयश कोई काल्पनिक पात्र नहीं । वह एक भारतीय ही था, वास्तव में था । बौद्ध भिक्षु बनने के बाद उसने भारत, सिंहल, मध्य एशिया और चीन आदि देशों का भ्रमण किया । उसकी मृत्यु भी चीन में ही हुई । नरेन्द्रयश ने खूब भ्रमण किया और आज उसे हम विसर गये हैं, अत उसे राहुल जी ने विस्मृत यात्री कह कर उसकी स्मृति इस उपन्यास के द्वारा जाहिर की है ।

 विस्मृत यात्री के नायक ने इतिहास और पर्यटक प्रवृत्ति का जो अपने जीवन में अनुपम मेल किया है, वह अद्भुत तो है ही । अत्यन्त रोचक व रोमांचक भी है ।

 

दो शब्द 

 

इतिहास का विद्यार्थी और पर्यटक होने के कारण विस्मृत यात्री जैसे उपन्यास लिखने के लिए मेरा ध्यान जाना स्वाभाविक ही है । मैं ऐसा करने में इतिहासकार और पर्यटक की जिम्मेवारी को ही पूरी तौर से निर्वाह करने की कोशिश करता हूँ, जिसका फल यह भी होता है, कि कितने ही उपन्यास प्रेमी इसमें कुछ कमियाँ पाते हैं । ऐसे पाठकों के दृष्टिकोण से मेरे में कुछ अन्तर है तो भी जिन दोषों का उद्भावन किया जाता है उनमें से कितनों को मैं अनुभव करता हूँ । पर हटाना मेरे बस की बात नहीं । हटाने के लिए कुछ तथ्यों को भी हटाना पडेगा, और साथ ही उतने धैर्य का मुझमें अभाव भी है । अतीत के समाज को ईमानदारी के साथ वास्तविक रूप मेँ रखना मैं अपना प्रथम कर्तव्य समझता हूँ । ऐतिहासिक उपन्यास में इतिहास और भूगोल या तत्कालीन देश काल पात्र की असंगति को मैं अक्षम्य दोष और इसे किसी भी बहाने से व्याख्या करना बेकार समझता हूँ । विस्मृत यात्री के लिखने में इन बातों पर कितना ध्यान दिया गया है उसे सहृदय पाठक समझेंगे ।

नरेन्द्रयश कोई कल्पित पात्र नहीं है । वह हमारे ही देश के अब पश्चिमी पाकिस्तान के स्वात (उद्यान) की भूमि में 518 ई० में पैदा हुए, थे । उन्होंने भिक्षु बनने के बाद भारत । सिंहल, मध्य एशिया, धुमन्तुओं की भूमि और चीन में विचरण किया था, और अन्त में आधुनिक सियान (प्राचीन छाङअन्) महानगरी में अपना शरीर छोडा । उनके सच्बन्ध में चीनी साहित्य में जो सूचना मिलती हैँ 1 उसे डॉक्टर पा ० चाउ ने प्रदान किया । जिसे मैं कथ के आरम्भ में दे रहा हूँ और डॉ० पा० चाउ का इसके लिए बहुत कृतज्ञ हूँ नरेन्द्रयश उद्यान के क्षत्रिय परिवार के थे । 17 वर्ष की उमर में उन्होंने प्रव्रज्या ली और 21 वर्ष की उमर में बौद्ध संघ ने उन्हें उपसम्पदा प्रदान की । भिक्षु बनने के आरम्भ ही से उनके मन में बड़ी आकांक्षा थी कि उन पवित्र स्थानों की यात्रा करें, जहाँ बुद्ध की धातुयें सुरक्षित हैं । वह बौद्ध धर्म सम्बन्धी बहुत से स्थानों में गये । दक्षिण में वह सिंहलद्वीप तक गये और उत्तर में हिमालय से बहुत परे तक । एक बार एक स्थविर ने उनसे कहा, कि यदि तुम शील का चुपचाप अभ्यास करो, तो तुम्हें आर्यफल (मार्ग या निर्वाण) की प्राप्ति होगी, नहीं तो तुम्हारा पर्यटन बेकार जायेगा । लेकिन उन्होंने उस मुनि के आदेश का पालन नहीं किया।

सिंहल से लौटने के वाद कुछ समय तक वह उद्यान में ठहरे । जव उनका विहार आग से जल गया तो वह शायद सहायता प्राप्त करने के विचार से पाँच आदमियों के साथ हिमालय के उत्तर की ओर गये । हिमालय के ऊपर पहुँचने पर वहाँ दो रास्ते थे, एक आदमियों का और दूसरा दानवों का । उनको जब पता लगा कि हमारा एक साथी दानव पथ पर चला गया है, तो वह झटपट उधर दौड़े, लेकिन दुर्भाग्य से तब तक दानवों ने उसे मार डाला था । मत्रशक्ति से अपने को उनके पंजे से छुड़ाया । पीछे डाकुओं ने उन्हें घेर लिया और उसी पवित्र मन्त्र के प्रताप से वह (नरेन्द्र) फिर वच गये । पूर्व की ओर जाकर वह जुई जुई (अवार) देश में पहुँचे, जहाँ तुर्को ने विद्रोह कर दिया था । पश्चिम की ओर चल कर उद्यान लौटने की सम्भावना नहीं थी, इसलिए वह उत्तर की घोर जाते जाते नी हाइ (नील समुद्र) के तट पर पहुँचे, जो कि तुर्को के देश से 7000 ली (सवा दो हजार मील से अधिक) दूर था । उन्होंने देखा कि उस देश में बिल्कुल शांति नहीं है 1 इसलिए वह 558 ई० में चीन में उत्तरी छी वंश (550 577 ई०) की राजधानी होना (येह) में पहुँचे । सम्राट वेन् शुयेन (550 559 ई०) ने उनका बड़ा स्वागत किया, और थियेन् पिंग विहार में उनके रहने के लिए सबसे अच्छे कमरे और सबसे अच्छा भोजन प्रदान किया । चीनी भाषा में अनुवाद करने के लिए राजकुल में मौजूद संस्कृत के हस्तलेख उनके पास भेजे गये और चीन के विद्वान बौद्ध पंडित अनुवाद के काम में उनकी सहायता करने के लिए दिये गये । जब कभी उन्हें अवकाश मिलता, वह पहले के सीखे मंत्रों का पाठ करते । चीन में आने के थोडे ही दिनों बाद सम्राट ने उन्हें बौद्धसंघ के उपनायक का पद प्रदान किया, और पीछे प्रधान नायक बना दिया । अपने पद से मिलने वाली आमदनी के बहुत बड़े भाग को वह भिक्षुओं गरीबों, बन्दियों के भोजन तथा प्राणियों के घास चारे में खर्च करते । सार्वजनिक हित के लिए उन्होंने बहुत से कुएँ खुदवाये, जिनसे वह खुद पानी निकालकर प्यासों को पिलाते थे । उन्होंने पुरुष और स्त्री बीमारों के धर्मार्थ चिकित्सालय खोले, जिनमें हर तरह की आवश्यक चीजें मिलती थीं । चिन जुन में पश्चिमी पर्वत के ऊपर उन्होंने तीन विहार बनवाये । वह तुर्को के ठहरने की सरायों में जाया करते थे, और उनसे प्रार्थना करते, कि महीने में कम से कम छ दिन निरामिष भोजी रहो और अपने खाने के लिए बकरियों को मत मारो । इस तरह के पुण्य कार्य वह किया करते थे । एक बार जब वह बीमार पड़े, तो सम्राट और सम्राज्ञी स्वयं पुछार करने के लिए उनके पास गये । इस तरह का सम्मान बहुत कम किसी आदमी के प्रति दिखलाया जाता था । 577 ई० के अन्त में उत्तरी छी वश को उत्तरी चाओं वश (557 81 ई०) ने खतम कर दिया। 572 ई० में सम्राट वूकने जो कि ताउ धर्म का अनुयायी था चीन में बौद्ध धर्म, बौद्ध विहारों औरदूसरी संस्थाओं को नष्ट करने का निश्चय कर लिया । इन परिस्थितियों में नरेन्द्रयश बाहर से गृहस्थ की पोशाक पहनने के लिए मजबूर हुए, यद्यपि भीतर भिक्षु का चीवर वह तब भी रखते थे । अपने प्राणों को बचाने के लिए वह इधर उधर मारे मारे फिरे और बहुत तकलीफ सही । यह अत्याचार तब तक दूर नहीं हुआ, जब तक सुई राजवंश (589 618 ई०) की स्थापना नहीं हो गयी । नये राजवंश के आरंभ में बेनती ने उन्हें राजधानी में बौद्ध सूत्रों के अनुवाद करने के लिए निमंत्रित किया । उसके बाद उनसे प्रार्थना की, कि विदेशी भिक्षुओं के स्वागतिक के पद को स्वीकार करें । उन्होंने अपने कर्त्तव्य का बहुत अच्छी तरह पालन किया और सभी लोग उनको पसन्द करते थे ।

80 आह्ननिकों (प्रति आहिक प्राय 700 श्लोक) से अधिक परिमाण 15 ग्रथों का उन्होंने अनुवाद किया । 50 से अधिक देशों को देखने तथा 1 लाख 15 हजार ली (प्राय 50 हजार मील) की यात्रा करने में उन्होंने 4० वर्ष बिताये । 589 ई० में उनका देहान्त हुआ ।

डॉ ० पा ० चाउ की उपरोक्त पंक्तियों से नरेन्द्रयश के व्यक्तित्व का कुछ पता लगता है ।

सारी त्रुटियों के रहते हुए भी अपने महान् यात्री को हम इस पुस्तक के द्वारा स्मरण करने लगें, तो मैं अपने प्रयत्न को सफल समझूँगा ।

 विस्मृत यात्री के कितने ही भाग दिल्ली साप्ताहिक हिन्दुस्तान में क्रमश निकले थे, उसके सम्बन्ध में कितने ही पाठकों ने पूछताछ की । सिंह सेनापति को पढ़कर कितने ही पाठक पटना म्यूजियम में उन ईटों को देखने जाते हैं, जिनके ऊपर उस ग्रंथ के लिखे होने की बात उक्त उपन्यास के आरम्भ में कही गयी है । यदि वह वस्तुत ईंटों पर उत्कीर्ण होता तो वह उपन्यास नहीं होता । ईंटों के दर्शनार्थी पाठकों को समझ लेना चाहिए था, कि वह उपन्यास है । हाँ ऐतिहासिक है, अर्थात् उस काल के देश काल पात्र की परिधि से बाहर नहीं जा सकता । कुछ पत्रों में विस्मृत यात्री के बारे में भी वही सवाल पूछे गये हैं । मेरे सभी ऐतिहासिक उपन्यास उपन्यास हैं, इतिहास या जीवनी नहीं । ऋग्वेदकालीन आर्यों के सम्बन्ध में सुदास (दाशराज्ञयुद्ध) नाम से एक उपन्यास के लिखने की मैं इस वक्त तैयारी कर रहा हूँ । आज से तीन सहस्राब्दियों पहले के समाज में आज से भारी भेद था । किन्हीं किन्हीं बातों में तो वह इतना उग्र था, जिसे आज के कितने ही श्रद्धालु सुनने के लिए भी तैयार नहीं होंगे । मेरी वोल्गा से गंगा के बंगला अनुवाद की समालोचना करते एक सज्जन ने सरकार को उसे जब्त करने की प्रेरणा दी । ऐसी प्रेरणाओं से डरकर अपने कर्तव्य से विमुख हो जाना किसी लेखक के लिए शोभा नहीं देता । तो भी, कोई यह न कहे, कि सुदास केवल कल्पनाओं के सहारे हमारी संस्कृति को नीचा दिखाने के लिए लिखा गया है; इसीलिए आजकल ऋग्वेद की सामग्री के आधार पर अनेक लेख मैं भिन्न भिन्न पत्रिकाओं में लिख रहा हूँ, जिन्हें मूल ऋचाओं के साथ पुस्तकाकार छाप दिया जाएगा, और ईमानदार आलोचकों के लिए बात स्पष्ट हो जाएगी ।

विस्मृत यात्री 1953 ई० में लिखकर तैयार हुआ था, और सुदास उसके तीन वर्ष बाद समाप्त होगा । इससे मालूम होगा, कि उपन्यास लिखने की मेरी व्यासक्ति नहीं है, यद्यपि रुचि अवश्य है । इससे भी अधिक रुचि जैसे ग्रंथों के लिखने की ओर मेरी है, उनके प्रकाश में आने में सबसे बडी दिक्कत है । मैंने प्राय ऐसे ही विषयों पर ग्रंथ लिखने चाहे, जिनकी हिन्दी में कमी है । हिमालय के साथ पर्यटक के तौर पर मेरा घनिष्ट सम्बन्ध है, मैं नगाधिराज का परम भक्त हूँ । नगाधिराज को जानना हमारे हरेक शिक्षित का कर्तव्य है । इस जानकारी को देने के लिए मैंने हिमालय पर लिखना शुरू किया । भूटान की सीमा से जम्बू की सीमा तक पर लिख भी चुका । इन ग्रन्थों में दार्जिलिंग परिचय और गढ़वाल निकल भी चुके हैं । गढ़वाल के पढ़ने वालों से यह कहने की जरूरत नहीं है, कि इन ग्रन्थों में किस तरह हिमालय के हरेक अंग को दिखलाने की कोशिश की गयी। है । नेपाल, गढवाल से भी दूना ( 1200 पृष्ठों का) ग्रंथ बडी मेहनत से लिखा गया, और यह कहना अत्युक्ति नहीं है, कि अंग्रेजी में भी कोई एक उस तरह की पुस्तक नहीं है । वह तीन वर्ष पहले लिखा जा चुका था । इसके 300 पृष्ठ छपकर अब कीडों और चूहों के शिकार बन रहे हैं । कुमाऊँ की नैया भी भँवर में है । जौनसार देहरादून की अभी पूछ ही नहीं आई । यमुना तट से चनाब के तट तक के हिमाचल प्रदेश के सौ फार्मो के ग्रंथ का नाम सुनकर ही प्रकाशक कान पर हाथ रखते हैं । मेरी इच्छा थी, कि जम्बू काश्मीर और भूटान पूर्वोत्तर सीमान्त के दो और ग्रन्थों को लिखकर सारे हिमालय को पाठकों के सामने रख दूँ । अभी भी उस संकल्प को मैंने छोड़ा नहीं है, पर कीड़ों को खिलाने से मन हिचकता है ।

हिमालय के अतिरिक्त अपने देश की काव्य निधियों को संग्रह रूप में रखने की मेरी बड़ी इच्छी है। इसी के फ्लस्वरूप हिन्दी काव्यधारा को मैंने लिखकर आठवीं सदी से बारहवीं सदी तक प्रचलित अपभ्रंश भाषा के कवियों की सुन्दर कृतियों को कलानुसार रक्खा। दक्षिणी काव्यधारा को लिखे पाँच साल हो गये। लेकिन उसका सिर्फ एक फार्म स्प के रूप में देख पाया । मालूम नहीं उसकी प्रेस कापी कीड़ों से बच भी पायेगी। संस्कृत काव्यधारा को अभी अभी मैंने तैयार किया है, जिसमें ऋग्वेद से लेकर अन्तिम काल तक के 50 कवियों की सूक्तियों को काल क्रम से रक्खा गया है । पुस्तक में बाई ओर मूल और दाहिनी ओर उसकी हिन्दी दी गयी है । यह भी आठ नौ सौ पृष्ठों की पुस्तक है, मालूम नहीं यह प्रयत्न किसका भोज साबित होगा । जो भी हो । इसी तरह पालि काव्यधारा और प्राकृत काव्यधारा के दो और संग्रहों को तैयार कर देने का मैं संकल्प रखता हूँ।

रूस के दो साल प्रवास में जिस ग्रंथ के लिए मैंने अध्ययन और सामग्री संचय किया था, वह मध्य एशिया का इतिहास लिखकर तीन वर्ष से प्रेस में है । लेखक भी चुस्त है और प्रकाशक और भी चुस्त, पर प्रेस की गति विधि ऐसी है, कि नही विश्वास किया जाता 1 कि डेढ सौ फार्मों का ग्रंथ कब तक बाहर निकलेगा । हम मुद्रक की इस बात को विश्वास कर लेते हैं, कि अगले साल वह जरूर निकल जायेगा ।

लेखकों को अपने ग्रंथों के प्रकाशन में कैसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, यह उपरोक्त पंक्तियों सै मालूम होगा । मेरे उपन्यासों के बारे में वह बात नहीं है । विस्मृत यात्री लिखने के तीसरे वर्ष प्रकाशकों की कमी से नहीं प्रकाशित हो रहा है । यदि उसकी प्रति दे दी गयी होती, तो इसका गुजराती अनुवाद भी इसी समय प्रकाशित हुआ मिलता । किताब महल के स्वामी श्री श्री निवास अग्रवाल ने विस्मृत यात्री और कितनी ही दूसरी पुस्तकों को प्रकाशित किया है, जिसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ ।

पुस्तक को बोलने पर टाइप करने का काम श्री मंगलदेव परियार ने जिस तत्परता से किया है, उसके लिए मैं उनका भी कृतज्ञ हूँ ।

 

विषय सूची

बाल्य

1

प्रेम

25

भिक्षु

37

गंधार कश्मीर

49

कान्यकुब्ज को

71

मगध की ओर

85

सिंहल में

107

स्वदेश की ओर

123

देश प्रत्यावर्त्तन

134

हिमालय पार

147

कांस्य देश में

158

कूची में

173

दिशा परिवर्तन

188

घुमन्तुओं की भूमि

204

शीत समुद्र और महा मरुभूमि

222

महाचीन की ओर

241

व्यस्त जीवन

257

झंझा में

274

ऊंचा संध्या

283

उपसंहार

290

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at help@exoticindia.com
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through help@exoticindia.com.
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories