पुस्तक के विषय में
भारतीय समाज में लोक गायन की अपनी अलग ही परम्परा रही है। सम्पूर्ण भारत में चाहे कोई पारिवारिक कार्यक्रम हो या सामाजिक, गायन यहाँ के रीति-रिवाजों के साथ जुड़ा है। प्रस्तुत पुस्तक में सगाई से लेकर विदाई तक, गोद भराई से लेकर जच्चा-पालना तक, और विभिन्न त्योहारों पर गाये जाने वाले अन्य गीतों का समावेश किया गया है। जीजा-साली में हँसी-मजाक, देवर-भाभी की नोक-झोंक, सास-बहू की आपसी तकरार, ननद-भाभी की उलझन, देवरानी-जेठानी की ईर्ष्या आदि का वर्णन गीतों के माध्यम से किया गया है जिससे पारिवारिक कार्यक्रम और अधिक विनोदपूर्ण व मनोरंजक बन जाते हैं । गीतों का प्रत्येक शब्द भावना से परिपूर्ण है तथा इसमें निहित अपनापन प्रशंसनीय है। भक्ति और श्रृंगार भावों की अभिव्यक्ति भी इन गीतों में बहुत सरल व सरस रूप में की गई है।
ये गीत किसी व्यक्ति विशेष, समुदाय विशेष, जाति विशेष अथवा युग विशेष के लिए नहीं हैं। इन गीतों की महत्ता एवं उपयोगिता वर्तमान में विशेष रूप से है क्योंकि आज सर्वत्र पश्चिमी सभ्यता की नकल की जा रही है और सौहार्दपूर्ण एवं निकटतम सम्बन्ध टूट रहे हैं। ये परम्परागत गीत भंजित रिश्तों को प्रेम-सूत्र में बाँधने में अवश्य ही सहयोग देंगे।
लोकगीत हमारी संस्कृति का एक अहम हिस्सा हैं, अत: इन्हें समझना और परम्परा को जीवित रखना हम सबका उत्तरदायित्व है। आशा है यह पुस्तक अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में सफल होगी।
लता मित्तल (1969) का जन्म हरियाणा के हिसार नगर में एक उच्च एवं प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। यद्यपि एक कुशल गृहणी होने के कारण आपके पास समय का अभाव रहा, फिर भी आपने जन-मानस की आवश्यकताओं को समझते हुए इन राजस्थानी व हरियाणवी लोक गीतों का संकलन ही नहीं किया, बल्कि भाषा की दृष्टि से ये गीत सही उच्चारण के साथ पढ़े और गाये जाएं तथा वर्तमान पीढी की समझ में भी आयें, ऐसा प्रयत्न किया है। नए-नए व्यंजन बनाने एवं चित्रकला में आपकी अतिरिक्त अभिरुचि है।
दो-शब्द
संगीत का उद्गम आदिकाल में हुआ, ऐसा माना गया है। हालांकि इसके उद्गम काल को निर्धारित करना सभव नहीं है, फिर भी इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जब कभी वाणी का विकास हुआ होगा, तभी मानव जाति के अन्तर्मन में गुनगुनाने की हिल्लोरें उठी होंगी । गीत के गुनगुनाने मात्र से ही अर्न्तमन के तार झनझना उठते हैं और एक सुखद अनुभूति प्राप्त होती है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि लिपि से पहले भाषा का विकास हुआ था । ठीक उसी तरह लयबद्ध गान का उद्भव भी भाषा के पनपने के साथ-साथ हुआ होगा। भारत वर्ष में गायन कब शुरू हुआ इसके बारे में कोई आधारभूत जानकारी नहीं है, यद्यपि गायन का उल्लेख रामायण तथा महाभारत काल के ग्रंथों में भी है।
हमारे देश में शादी-व्याह, जन्मोत्सव तथा अन्य अनेक मांगलिक अवसरों पर गीत गाने की परम्परा रही है। लगभग सभी प्रान्तो में इन मांगलिक अवसरों पर लोक गीत गाये जाते हैं । इनके गायन की शैली में भिन्नता है। दरअसल कस्बों में बोली जाने वाली भाषा हर 8-10 कोस के बाद बदल जाती है और तदनुसार गीतों के बोल मे एव गायन की शैली में भी बदलाव आ जाता है।
प्रस्तुत पुस्तक में उत्तरी भारत के मारवाडी एवं बागडी समाज में गाये जाने वाले गीतों को संग्रहित किया गया है । ये गीत मुख्यत राजस्थान, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गाये जाते हैं । कई शताब्दियों से मारवाडी, बागड़ी तथा अग्रवाल समाज का भारत के विभिन्न प्रांतों में बसने के कारण इन गीतों का प्रचार एवं प्रसार लगभग सभी प्रान्तों में हुआ है और इन गीतों की उपयोगिता अब सम्पूर्ण भारत में हो गई है । भारत मूल के निवासी आज विश्व में चाहे जहाँ भी निवास कर रहें हों वे भी इन गीतों से किसी न किसी प्रकार से जुड़े इस पुस्तक में प्रस्तुत गीतों के रचनाकार और काल के बारे में जानकारियों का अभाव है क्योंकि ये गीत परम्परागत हैं और अवसरों के अनुसार पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाये जाते रहें हैं । यूँ तो इन गीतों के लिखित प्रमाण नहीं है फिर भी विभिन्न भाषा का प्रयोग उन्हें हरियाणवी, राजस्थानी और देशी लोक गीतों के रूप में बांटता प्रतीत होता है। लिखित प्रमाण के अभाव के बावजूद शब्दों के अर्थ को समझाने का भरसक प्रयास इस पुस्तक में किया गया है ।
रसों का समावेश भी इन गीतों में देखने को मिलता है। जकड़ी, जीजा गीतों में हास्य रस, सीठने और सगाजी के गीतों में व्यंग्य रस, बन्नी और विदाई के गीतों में करूण रस और हमर रस का बहुत मनभावन चित्रण है। विदाई के समय गाये जाने वाले गीतों में माँ-बाप एवं परिवारजन का कलेजे पर पत्थर रखकर विदा करने का दृश्य, बेटी का रूदन और पत्थर दिल को भी पिघला देने वाले दृश्यों का सजीव वर्णन है। सीठने, समधी, जंवाई, जीजा आदि गीतों में भी कन्या पक्ष वाले अपने समधी, समधन एवं बारातियों के साथ बहुत अपनेपन से उनको निम्न कोटि का बताते हुए उनसे मजाक करती हैं। जकड़ी द्वारा पत्नी अपने पति एवं सुसराल पक्ष पर छींटाकशी करती हैं। बन्ना एवं बन्नी का यादों में खोना, शादी से पहले मन में बहुतेरे सवालों का उठना, सजना संवरना एवं परिवार जन के द्वारा उन पर हीरे वारना, मोती से चौंक छूना आदि आनन्दविभोर करने वाली बातों का बन्ना-बन्नी के गीतों में मनोरंजक चित्रण है। केवल इतना ही नहीं अपितु शादी के बाद बच्चा होने पर गाई जाने वाली बधाईयाँ, बच्चे का लाड़-चाव, पालना एवं झूलना की सुन्दरता का वर्णन जच्चा के गीतों में किया गया है। यद्यपि आजकल की पीढ़ी के गानों का विषय उन्मुक्तता प्रधान होता है। हर व्यक्ति खुशी के मौके पर फिल्मी गीतों पर थिरकना पसन्द करते हैं, जिसमें पूर्णतया पश्चिमी सभ्यता तथा सस्कृति का ही समावेश होता है। तथापि खुलेपन के इस दौर में हमारी सस्कृति, कला और साहित्य को बचाने की एक छोटी सी कोशिश इस पुस्तक के माध्यम से की गई है ताकि विदेशी खुलेपन की भावनात्मक क्राति को हमें झेलना ना पड़े और हमारी समृद्ध सामाजिक संस्कृति को हम विकसित रूप में जीवित रख सकें।
विषय-सूची
1
नेगचार (कन्या के लिए)
1-25
2
नेगचार (वर के लिए)
27-41
3
देवी देवताओं के गीत
43-63
4
रतिजाग के गीत
65-83
5
हलदात एवं बान के गीत
85-95
6
भात के गीत
97-104
7
अन्य गीत
113-136
8
बन्ना के गीत
139-190
9
बन्नी के गीत
193-245
10
जच्चा के गीत
251291
11
संदर्भ ग्रंथ
295
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Hindu ( हिंदू धर्म ) (12491)
Tantra ( तन्त्र ) (986)
Vedas ( वेद ) (705)
Ayurveda ( आयुर्वेद ) (1890)
Chaukhamba | चौखंबा (3352)
Jyotish ( ज्योतिष ) (1442)
Yoga ( योग ) (1093)
Ramayana ( रामायण ) (1389)
Gita Press ( गीता प्रेस ) (731)
Sahitya ( साहित्य ) (23031)
History ( इतिहास ) (8222)
Philosophy ( दर्शन ) (3378)
Santvani ( सन्त वाणी ) (2532)
Vedanta ( वेदांत ) (121)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist